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साधु और चोर

अभी एक गुड़िया की कॉल आई। बातों-बातों में वह कहने लगी कि अगर हम कहीं यात्रा कर रहे हों, और रेलगाड़ी में एक साधु, एक पुलिसकर्मी, और एक चोर हो, तो हम चोर के साथ बैठना पसन्द करते हैं। हमारे मन में ऐसा भय बैठ चुका है साधुओं के प्रति, इतनी सारी ख़बरें पढ़-सुन कर।

मैं उसकी बात सुनकर हँस पड़ा। उसकी बात बहुत गम्भीर थी, पर मुझे तसल्ली भी हुई कि यह गुड़िया मुझ से इतनी सहज तो है कि ऐसी बात बड़े आराम से मुझसे कह सके। बिल्कुल वैसे ही, जैसे बेटियाँ अपने पिता से कोई भी बात बिना भय के कह सकें। साधुओं को भी ‘बाबा’ इसी लिये कहा जाता है। फ़ारसी भाषा में ‘बाबा’ का अर्थ ही ‘पिता’ होता है।

चोर वाली बात से मुझे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। मेरा एक क़रीबी रिश्तेदार चंडीगढ़ में एक कोर्ट केस में फंस गया, जहाँ उसे ज़मानत की ज़रूरत थी। मैंने उसकी ज़मानत दे दी। कुछ समय बाद वह बेल जम्प (bail jump) कर गया, तो कोर्ट की तरफ़ से मुझे सम्मन आने लग गये। आख़िर मुझे वकील हायर (hire) कर के कोर्ट में पेश होना पड़ा।

एक पेशी के दिन बरसात हो रही थी। मैं छाता लेकर कोर्ट में गया और अदालत के बाहर अपने केस की आवाज़ लगने का इन्तज़ार करने लगा। मेरे साथ एक व्यक्ति बैठा था। मेरी उससे बातचीत शुरू हो गई। उस ने बताया कि वह प्रोफैशनल चोर है और एक क्रिमिनल केस में पेशी भुगतने आया था।

जब मेरे वाले केस की आवाज़ लगी, तो मैं अपना छाता उसी चोर को पकड़ा कर अदालत के अन्दर चला गया। पेशी के दौरान मेरे ज़िहन में यही ख़्याल आता रहा कि मैं अपना छाता एक चोर को पकड़ा कर आया हूँ और अब मुझे मेरा छाता वापस नहीं मिलेगा।

पेशी के बाद मैं अदालत से बाहर निकला, तो वह मेरे छाते को पकड़ कर वहीं बैठा हुआ था। उसने मुझे मेरा छाता वापस दिया और फिर मुझे मेरे केस की अपडेट पूछने लगा।

फिर मैंने उसे कहा, “आप को भी आप के केस में बहुत परेशानियों को झेलना पड़ रहा है।”

उसने उत्तर दिया, “जदों कुक्कड़ मैं खाधे हन, तां बाँगां वी हुण मैनूं ही देणिआं पैणिआं हन।” (जब मुर्ग़े मैंने खाये हैं, तो बाँग भी अब मुझे ही देनी पड़ेगी)।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

हिंसा और प्रेम

कई व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो दूसरे लोगों को शारीरिक या मौखिक हिंसा से भयभीत करते रहते हैं। यह भी स्वाभाविक है कि दूसरों के विरुद्ध हिंसा करने वालों के शत्रु भी बन ही जाते हैं। हिंसा से हिंसा पैदा होती ही है। दूसरों के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग करने वाले हमेशा ही जवाबी हिंसा से भयभीत रहते हैं, चाहे वे अपने भय को छुपा कर ही रखें।

दूसरी तरफ़, ऐसे भी व्यक्ति होते हैं, जो सभी को प्रेम करने वाले होते हैं। वे प्रेम के ऐसे पुजारी होते हैं कि अपने विरोधियों का भी बुरा नहीं करते।

सभी को प्रेम करने वाले व्यक्तियों के बारे में यह पूरी तरह से निश्चित है कि उनको भी प्रेम करने वाले लोगों की कमी नहीं होती। उनके प्रेम के जवाब में उनको भी अनेक लोगों से प्रेम मिलता है। अगर हिंसा से हिंसा पैदा होती है, तो प्रेम से प्रेम पैदा होता है।

हर व्यक्ति के पास हिंसा करने का भी विकल्प है और प्रेम करने का भी। वह जो भी विकल्प चुनना चाहे, चुन सकता है। जो भी विकल्प वह चुनेगा, बदले में उस को भी वही कुछ मिलना है।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

अनावश्यक बोलते रहना

अक्सर ऐसा होता है कि जिन को बोलना नहीं चाहिए, वे बहुत बोलते हैं। ऐसी जगह भी बोलने से रुकते नहीं, जहाँ उन्हें मौन होकर सिर्फ़ सुनना ही चाहिए। कोई सत्पुरुष कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा हो, वहाँ भी ऐसे लोग कुछ अनावश्यक बात कर के सत्पुरुष को ही चुप रहने पर मजबूर कर देते हैं।

एक दूसरी स्थिति भी है। जिनके पास बहुत कुछ है बताने के लिये, जो ज्ञानीजन हैं, जो प्रभु-प्रेमी हैं, जो सर्वहितैषी हैं; वे बोलते ही नहीं हैं। बोलें भी, तो बहुत कम बोलते हैं।

भाई गुरदास जी लिखते हैं:-

बिनु रस रसना बकत जी बहुत बातै
प्रेम रस बसि भए मोनि ब्रत लीन है।
(भाई गुरदास जी, कबित 65)।

(जब जीवन में प्रेम का) रस नहीं (था, तो) जीभ बहुत बातें कहती थी। (अब जीभ) प्रेम-रस के वश में होकर मौनव्रत में लीन हो गई है।

बोलना तभी चाहिए, जब हृदय में प्रेम हो। क्रोध में क्या बोलना? नफ़रत में क्या बोलना? ईर्ष्या में क्या बोलना? लालच में क्या बोलना? भाई, बोलना ही है, तो प्रेम में बोलिये, प्रेम से बोलिये।

पर होता यह है कि ज़बान में रस नहीं, अर्थात वाणी मधुर नहीं, फिर भी बहुत बोलता है, बहुत बातें करता है। बिना मतलब ही बोलता रहता है।

दूसरी ओर, जो प्रेम-रस के वशीभूत हो गये, वे तो मौन ही रहने लगे। उन को प्रेम-रस के आगे संसारी बातों का रस अत्यंत फीका लगने लगा। व्यर्थ की बातें करके प्रेम-रस से वंचित रहना ही क्यों?

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

राम, राम, और राम

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

भारतीय पौराणिक कथाओं में ऐसे तीन महात्माओं का विस्तार से ज़िक्र आया है, जिनका नाम ‘राम’ था। इन तीनों को परम्परागत भारतीय समाज ने बहुत आदर दिया है। ये तीन महान आत्माएं हैं, भृगुवंशी महर्षि श्री जमदग्नि के महाबली सपुत्र श्री राम, रघुवंशी महाराज दशरथ के महाबली सपुत्र श्री राम, और वृष्णिवंशी श्री वसुदेव के महाबली सपुत्र श्री राम।
Shri Ram

तीन राम जी

इन तीनों को भगवान कहा गया है। इन तीनों को विष्णु भगवान का अवतार कहा गया है। इन तीनों ने भीषण युद्ध लड़े।

भृगुवंशी श्री राम को भृगुवंशी होने की वजह से भार्गव राम और महर्षि श्री जमदग्नि के सपुत्र होने की वजह जामदग्न्य राम या सिर्फ़ जामदग्न्य के नाम से भी जाना जाता है। उनका प्रिय शस्त्र परशु (कुहाड़ा) होने की वजह से लोक में वह भगवान श्री परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हैं। पुराणों में उन्हें भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में छठा अवतार कहा गया है।

रघुवंशी श्री राम को महाराज दशरथ के सपुत्र होने की वजह से दाशरथि राम भी कहा जाता है। यही राम सबसे प्रसिद्ध हैं। भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में सातवें अवतार इन्हीं भगवान श्रीराम को माना गया है।

वृष्णिवंशी श्री वसुदेव के सपुत्र श्री राम को अधिकतर बलभद्र या बलराम के नाम से जाना जाता है। वे भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में से आठवें अवतार भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं। पुरातन परम्परा में इन्हें भी विष्णु अवतार माना गया है, हालांकि वे शेषनाग के अवतार के तौर पर अधिक प्रसिद्ध हैं।

इन तीनों अवतारों में से सबसे अधिक प्रसिद्धि दाशरथि श्रीराम को ही मिली है। वैष्णव, जैन, बौद्ध, और सिख, इन चारों ही पन्थों के धर्म-ग्रंथों में श्री राम का ज़िक्र मिलता है।

वैष्णव पन्थों में दाशरथि श्री राम को भगवान विष्णु के बहुमान्य दस अवतारों में गिना गया है। वे विष्णु के सातवें अवतार हैं।

जैन कथाएं वैष्णव कथायों से कुछ भिन्न हैं, लेकिन श्रीराम उन कथायों में भी नायक हैं। जैन धर्म के 63 शलाकापुरुषों और 9 बलभद्रों में श्रीराम का भी शुमार होता है।

बौद्ध धर्म की जातक कथायों में भी श्रीराम का ज़िक्र मिलता है। उस अनुसार श्रीराम एक तपस्वी हैं, जो राजा बने। उनको बुद्ध का ही पूर्व अवतार माना गया है।

सिख ग्रन्थों में भी राम कथा का ज़िक्र हुआ है। गुरु ग्रन्थ साहिब में कई जगहों पर राम का ज़िक्र मिलता है। दशमग्रंथ में विष्णु के 24 अवतारों की कथा में रामकथा काफ़ी विस्तार से दी गई है।

श्रीराम चाहे विष्णु के अवतार हैं या 9 बलभद्रों में से एक या बुद्ध का ही पूर्व अवतार; वैष्णव, जैन, बौद्ध, और सिख परम्पराओं में महाराज राम को नायक ही माना गया है। यह एक तथ्य है।

किन्तु, आश्चर्य है कि पिछले कुछ दशकों से ऐसे हिन्दू, बौद्ध, और सिख देखने को मिल रहे हैं, जो रावण को नायक सिद्ध करने की भरपूर कोशिश में लगे हुये हैं। क्या ये लोग नहीं जानते कि इन्हीं के धर्मग्रंथों में नायक श्री रामचन्द्र हैं, न कि रावण?

सिन्ध और ‘हिन्दू’ शब्द (वीडियो) | पाकिस्तान की स्थापना

سندھ اور لفظ ‘ہندو’ | قیام پاکستان

आज से तक़रीबन 2500 साल पहले एक ईरानियन सल्तनत हुआ करती थी, जिसे अकीमिनिड सल्तनत कहा जाता है। उस अकीमिनिड सल्तनत का एक बिल्कुल पूर्वी प्रोविन्स होता था, जिस का नाम था ‘हिन्दुश’। पाकिस्तान का प्रान्त ‘सिन्ध’ उस दौर में अकीमिनिड सल्तनत के उसी ‘हिन्दुश’ प्रान्त का हिस्सा था।

‘हिन्दुश’ लफ़्ज़ में ‘हिन्दू’ सिन्ध दरिया का ही प्रोटो-ईरानियन रूप है। और आख़िर में लगा ‘श’ ‘धरती’ के लिये आया है। इस तरह, हिन्दुश का मतलब हुआ, सिन्धु दरिया की धरती। ‘हिन्दुश’ प्रोविन्स के लोगों को ‘हिन्दू’ कहा जाता था।

हर भाषा की अपनी संस्कृति है












कल अपनी निजी डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ रहा था। ख़्याल आया कि जब कभी मेरे बाद कोई इन्हें पढ़ेगा, तो ज़्यादातर हिस्सा उसको समझ ही नहीं आएगा। मैंने बातें इशारों में लिखी हैं, जिन के मायने समझने किसी के लिये आसान नहीं होंगे। बल्कि, ग़लत समझे जाने की गुंजाइश ज़्यादा है।

जब मैं पंजाबी में मास्टर्स की पढ़ाई कर रहा था, तो एक बार एक प्रोफ़ैसर साहिब ने पढ़ाते हुये कहा था कि एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में बिल्कुल परफ़ैक्ट अनुवाद सम्भव ही नहीं है।

डॉक्टर एच. के. लअल चण्डीगढ़ में हमें उर्दू पढ़ाया करते थे। वे कहते थे कि भाषा सिर्फ़ शब्दों का संग्रह और ग्रामर की बन्दिश ही नहीं होती, बल्कि उस का अपना अलग कल्चर भी होता है। उस कल्चर को जाने-समझे बिना उस भाषा के साहित्य को ठीक से समझा नहीं जा सकता।

यह जो कल्चर है, इस का दूसरे कल्चर में अनुवाद करना बहुत मुश्किल है। साहित्य की किसी रचना का अक्सर भाषाई अनुवाद ही किया जाता है। भाषाई अनुवाद में मूल साहित्यिक रचना का एक अंदाज़ा-सा ही लगता है, पूर्ण रूप से दर्शन नहीं होते।

मैंने ख़ुद कई रचनाओं के मूल को भी पढ़ा है और उनके किसी भाषाई अनुवाद को भी। दोनों में स्पष्ट फ़र्क़ दिखाई पड़ता है।

ऐसा मैंने गुरुवाणी के अनुवाद में तो बहुत ज़्यादा शिद्दत से महसूस किया है। गुरुवाणी का भाषाई अनुवाद बुद्धिजीवी और पेशेवर कथावाचक करते तो हैं, पर गुरुवाणी का भीतरी भाव उन की पकड़ से बाहर रह जाता है। दूसरे धर्मों के ग्रन्थों के अनुवाद के बारे में भी बिल्कुल यही बात कही जा सकती है।

कोई व्यक्ति हमारी ही भाषा में, हमारे ही सामने, हमें ही मुख़ातिब होते हुये कुछ कहे, तो भी सम्भव है कि उस की बात को हम अन्यथा ले लें। फिर दूसरे कल्चर की भाषा के अनुवाद की तो बात ही क्या!

बहुत लम्बे अरसे से उर्दू शायरों ने सरकारी लाठी की मार से बचने के लिये #शायरी, ख़ास तौर पर #ग़ज़ल का इस्तेमाल अपनी बात पोशीदा ढंग से कहने के लिये किया है। हर भाषा की तरह उर्दू की भी अपनी अलग संस्कृति है। किसी भी भाषा को उसकी संस्कृति से अलग कर के नहीं समझा जा सकता। उर्दू के बारे में भी यही बात है।

बहुत भारतीय लोग उर्दू की शायरी पसन्द करते हैं। उन में से कई उर्दू के ग्रुप्स भी चला रहे हैं। लेकिन, ये ग्रुप्स चलाने वाले मुख्यतः देवनागरी लिपि में उर्दू पढ़ने वाले लोग हैं, वह भी कुछ प्रसिद्ध उर्दू शायरी के शौक़ीन। उनको उर्दू की गहरी शायरी की शायद समझ नहीं है। उन के लिये उर्दू शायरी का मतलब बस इश्किया शायरी से है।

मैं भी ऐसे ग्रुप्स में कभी बहुत ऐक्टिव रहता था। तब मैं अपनी फेसबुक वॉल पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ ग्रुप्स में ही उर्दू की शायरी शेयर (share) करता था।

एक बार मैंने शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का यह शेअर उन्हीं कुछ ग्रुपों में शेयर किया था:-

बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की।
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की।

– शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

(शैख़ [धार्मिक रहनुमा] के दिल में गुनाह करने की इच्छा अभी बाक़ी है। अगर इस ने अपनी दाढ़ी काली की, तो यह अपना मूँह भी काला करेगा)।

باقی ہے دل میں شیخ کے حسرت گناہ کی
کالا کرے گا منہ بھی جو داڑھی سیاہ کی

شیخ ابراہیم ذوقؔ

अब हुआ यह कि ग्रुप एडमिन्स (group admins) इस शेअर से घबरा गये। उन को लगा कि यह शेअर किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकता है। सभी ने मेरी वह पोस्ट हटा दी।

ऐसा उन की उर्दू संस्कृति के प्रति अज्ञानता की वजह से हुआ।

दाढ़ी सियाह करना, अर्थात, अपनी दाढ़ी के बाल काले करना इस्लाम में मना है। सिख पन्थ में भी यही स्थिति है। ‘शैख़’, यानि धार्मिक रहनुमा होकर भी अगर कोई अपनी दाढ़ी काली कर रहा है, तो इसका मतलब उस के मन में गुनाह करने की इच्छा है। गुनाह करेगा, तो अपना मूँह भी काला करेगा।

यह शेअर लिख कौन रहा है? ‘शेख़ इब्राहीम ज़ौक़’, जो जाति से ख़ुद ‘शेख़’ भी हैं और मुसलमान भी।

तो, एक बहुत गहरे शेअर को इस लिये समझा नहीं जा सका, क्योंकि उस शेअर की भाषा की संस्कृति से वे लोग अनजान थे।

(यही वजह थी कि मैंने वे ग्रुप्स छोड़ दिये थे। उनके बार-बार पूछने पर भी मैंने उन एडमिन्स को वजह नहीं बताई थी। अब यहाँ पर वह वजह लिख दी है)।

आज अपनी ही डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ते हुये यह पुरानी बात याद आ गई और यहाँ लिख दी है।

ख़ैर, छोड़िये। ????

अब इक़बाल असलम का एक शेअर पेश करता हूँ।

Swami Amrit Pal Singh 'Amrit'पुष्कर, राजस्थान की एक याद

‘जुब्बा’ कहते हैं, लम्बे-से कुर्ते को, जो शेख़ पहनते हैं। जुब्बे जैसा ही लम्बा चोला कुछ भारतीय साधु भी पहनते हैं, जिसे ‘अल्फ़ी’ बोलते हैं। ‘अल्फ़ी’ को ही ‘खफ़नी’ भी कह देते हैं। ‘दस्तार’ कहते हैं पगड़ी को। ‘रियाकारी’ का अर्थ है, ‘मक्कारी’, ‘पाखण्ड’, ‘झूठा दिखावा’।

अरे ओ जुब्बा-ओ-दस्तार वालो!
रिया-कारी हुई है बंदगी क्या?

~ इक़बाल असलम

रियाकारी: – मक्कारी, पाखण्ड, झूठा दिखावा।

(ओ लम्बा चोला और दस्तार पहनने वालो! क्या अब पाखण्ड ही भक्ति हो गई है?)

ارے او جبہ و دستار والو
ریا کاری ہوئی ہے بندگی کیا

اقبال اسلم

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

25 अगस्त, 2023












बलोचिस्तान 1947 | हिन्दू-सिख क़त्लेआम | पाकिस्तान की स्थापना

بلوچستان ١٩٤٧ | ہندو سکھ قتل عام | قیام پاکستان

#पाकिस्तान_की_स्थापना । #हिन्दू_सिख_क़त्लेआम ।

बलूचिस्तान में हिन्दू-सिख आबादी मुख्यतः राजधानी कोयटा में थी। यहाँ 1947 तक हिन्दुओं की आबादी तक़रीबन 25 हज़ार थी, जो कि कोयटा की कुल आबादी की 35 फ़ीसद से भी ज़्यादा थी। सिखों की आबादी तक़रीबन 12 फ़ीसद थी और वे दस हज़ार से कुछ कम ही थे। बहुत थोड़े-से बौद्ध और जैन भी कोयटा में रहते थे। अब वहाँ हिन्दू आबादी एक फ़ीसद से भी कम है।

पिशीन में 1947 तक हिन्दू आबादी 25 फ़ीसद और सिख आबादी तक़रीबन 10 फ़ीसद थी। अब वहाँ हिन्दू आबादी आधा फ़ीसद भी नहीं है।

इसी तरह, मच में हिन्दू आबादी 19 फ़ीसद और सिख आबादी 5 फ़ीसद थी। अब मच में हिन्दू आबादी डेढ़ फ़ीसद है।

सनातन जैन परम्परा में गुरुपूर्णिमा












~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

कथा है कि सौधर्म इन्द्र द्वारा विधिवत् पूजा और धनपति कुबेर द्वारा समवसरण की रचना के बावजूद श्री महावीर भगवान की दिव्य ध्वनि ६६ दिन तक नहीं खिरी।

समवसरण

समवसरण

आम भाषा में कहें, तो महावीर भगवान के रूप में गुरु तो मौजूद हैं, परन्तु गणधर, अर्थात, कोई ऐसा विशेष शिष्य उपलब्ध नहीं है, जो उनके ब्रह्मोपदेश को ग्रहण कर के आगे और जिज्ञासुओं को भी वही उपदेश कर सकने की योग्यता रखने वाला हो।

बहुत गम्भीर बात है। गुरु उपलब्ध है। देव वहाँ मौजूद हैं। मानव वहाँ मौजूद हैं। अन्यन्य जीव वहाँ मौजूद हैं। परन्तु, कोई ऐसा विशेष शिष्य वहाँ मौजूद नहीं है।

सब के जीवन में गुरु आते हैं। हर किसी के एक से ज़्यादा गुरु होते हैं। कोई आपको पढ़ना सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको गणित सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको साइंस पढ़ाता है, तो वह आपका गुरु है। आपको कोई भी विषय पढ़ा दे, वह आपका गुरु है।

माँ ने आपको बहुत कुछ सिखाया। चलना सिखाया। खाना, पीना, बोलना सिखाया। माँ भी गुरु है। जीवों के पहले गुरु के तौर पर माँ का ही ज़िक्र होता है।

जो आपको धर्म पढ़ा दे, धर्मग्रंथ पढ़ा दे, वह भी आपका गुरु है। इस गुरु का विशेष स्थान है। इसकी ख़ास अहमियत है।

पर, इन सब गुरुओं से भी ऊपर एक गुरु है। यह वह गुरु है, जो आपको मोक्ष मार्ग दिखा दे; जो आपको आत्मानुभव करा दे; जो आपको ब्रह्मज्ञान करा दे। ऐसे गुरु को सद्गुरु कहा जाता है।

सद्गुरु के अनेक शिष्य हो सकते हैं। हज़ारों, लाखों, करोड़ों शिष्य हो सकते हैं। पर हर शिष्य इतना सुयोग्य नहीं होता कि सद्गुरु के अत्यन्त रहस्यमय उपदेश को ग्रहण कर सके।

एकोपि वङ्कामणिरि शिष्योलं गुरूजनस्य किं बहुभि:।
काचशकलैरिवान्यैरू दण्डै: पात्रता शून्यै :।।

गुरूजन के लिये हीरे जैसा एक भी शिष्य पर्याप्त है। कांच के टुकड़ों की भांति पात्रता-शून्य ढेर सारे उद्दण्ड शिष्यों से क्या प्रयोजन है।

काँच के टुकड़ों का ढेर क्या करना? चाहे एक ही सुयोग्य शिष्य हो, पर जो हो, तो हीरे जैसा निर्मोल्क हो। हीरा तो एक भी बहुत है।

समवसरण में सद्गुरु बैठे हैं। उनको सुनने के लिये देव आदि मौजूद हैं। सौधर्म इन्द्र खड़ा है। कुबेर खड़ा है। पर सद्गुरु हैं कि मौन हैं।

गोतम गोत्र वाले, सकल वेद वेदांग के ज्ञाता, महापण्डित, इन्द्रभूति जी अपने भाइयों और 500 ब्राह्मण शिष्यों के साथ समवसरण में पहुँचते हैं। सामने देखते हैं। पवित्रात्मा महावीर महाभाग बैठे हैं।

सद्गुरु जब बोलेंगे, तब बोलेंगे। जब उपदेश देंगे, तब देंगे। अभी तो उनका दर्शन करने मात्र से इन्द्रभूति जी को कुछ ऐसी अनुभूति हो गई है, जिस को कथन नहीं किया जा सकता।

वह आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन था।

ऐसा शिष्य भी दुर्लभ है। सौधर्म इन्द्र भी वहाँ इन्द्रभूति का पूजन करते हैं। अहो भाग्य! सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य का पूजन तो देव भी करते हैं। इन्द्र भी करते हैं।

इन्द्रभूति अपने दोनों भाइयों, वायुभूति और अग्निभूति, और अपने 500 शिष्यों समेत महावीर भगवान से दीक्षित हो गये।

इन्द्रभूति अब महावीर भगवान की संगति से इन्द्रभूति नहीं रहे। वह महावीर जी के प्रथम गणधर हो गये। इतिहास में उनको गौतम गणधर के नाम से जाना जाता है। उनके दोनों भाइयों सहित ग्यारह गणधर हुए।

श्री गौतम गणधरश्री गौतम गणधर

इतिहास कहता है कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन इन्द्रभूति को उनके गुरु की प्राप्ति हुई और वे गौतम गणधर हो गये। इस लिये जैन परम्परा में यह दिन ‘गुरु पूर्णिमा’ के तौर पर विख्यात हुआ।

इससे अगले दिन, यानि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को प्रभात में पहली बार श्री महावीर जी की गम्भीर वाणी खिरी।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’