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Amrit World’s Blog… This blog by Amrit Pal Singh ‘Amrit’ presents posts in English, Punjabi, Hindi (or simple Urdu)…

सिन्ध और ‘हिन्दू’ शब्द (वीडियो) | पाकिस्तान की स्थापना

سندھ اور لفظ ‘ہندو’ | قیام پاکستان

आज से तक़रीबन 2500 साल पहले एक ईरानियन सल्तनत हुआ करती थी, जिसे अकीमिनिड सल्तनत कहा जाता है। उस अकीमिनिड सल्तनत का एक बिल्कुल पूर्वी प्रोविन्स होता था, जिस का नाम था ‘हिन्दुश’। पाकिस्तान का प्रान्त ‘सिन्ध’ उस दौर में अकीमिनिड सल्तनत के उसी ‘हिन्दुश’ प्रान्त का हिस्सा था।

‘हिन्दुश’ लफ़्ज़ में ‘हिन्दू’ सिन्ध दरिया का ही प्रोटो-ईरानियन रूप है। और आख़िर में लगा ‘श’ ‘धरती’ के लिये आया है। इस तरह, हिन्दुश का मतलब हुआ, सिन्धु दरिया की धरती। ‘हिन्दुश’ प्रोविन्स के लोगों को ‘हिन्दू’ कहा जाता था।

हर भाषा की अपनी संस्कृति है












कल अपनी निजी डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ रहा था। ख़्याल आया कि जब कभी मेरे बाद कोई इन्हें पढ़ेगा, तो ज़्यादातर हिस्सा उसको समझ ही नहीं आएगा। मैंने बातें इशारों में लिखी हैं, जिन के मायने समझने किसी के लिये आसान नहीं होंगे। बल्कि, ग़लत समझे जाने की गुंजाइश ज़्यादा है।

जब मैं पंजाबी में मास्टर्स की पढ़ाई कर रहा था, तो एक बार एक प्रोफ़ैसर साहिब ने पढ़ाते हुये कहा था कि एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में बिल्कुल परफ़ैक्ट अनुवाद सम्भव ही नहीं है।

डॉक्टर एच. के. लअल चण्डीगढ़ में हमें उर्दू पढ़ाया करते थे। वे कहते थे कि भाषा सिर्फ़ शब्दों का संग्रह और ग्रामर की बन्दिश ही नहीं होती, बल्कि उस का अपना अलग कल्चर भी होता है। उस कल्चर को जाने-समझे बिना उस भाषा के साहित्य को ठीक से समझा नहीं जा सकता।

यह जो कल्चर है, इस का दूसरे कल्चर में अनुवाद करना बहुत मुश्किल है। साहित्य की किसी रचना का अक्सर भाषाई अनुवाद ही किया जाता है। भाषाई अनुवाद में मूल साहित्यिक रचना का एक अंदाज़ा-सा ही लगता है, पूर्ण रूप से दर्शन नहीं होते।

मैंने ख़ुद कई रचनाओं के मूल को भी पढ़ा है और उनके किसी भाषाई अनुवाद को भी। दोनों में स्पष्ट फ़र्क़ दिखाई पड़ता है।

ऐसा मैंने गुरुवाणी के अनुवाद में तो बहुत ज़्यादा शिद्दत से महसूस किया है। गुरुवाणी का भाषाई अनुवाद बुद्धिजीवी और पेशेवर कथावाचक करते तो हैं, पर गुरुवाणी का भीतरी भाव उन की पकड़ से बाहर रह जाता है। दूसरे धर्मों के ग्रन्थों के अनुवाद के बारे में भी बिल्कुल यही बात कही जा सकती है।

कोई व्यक्ति हमारी ही भाषा में, हमारे ही सामने, हमें ही मुख़ातिब होते हुये कुछ कहे, तो भी सम्भव है कि उस की बात को हम अन्यथा ले लें। फिर दूसरे कल्चर की भाषा के अनुवाद की तो बात ही क्या!

बहुत लम्बे अरसे से उर्दू शायरों ने सरकारी लाठी की मार से बचने के लिये #शायरी, ख़ास तौर पर #ग़ज़ल का इस्तेमाल अपनी बात पोशीदा ढंग से कहने के लिये किया है। हर भाषा की तरह उर्दू की भी अपनी अलग संस्कृति है। किसी भी भाषा को उसकी संस्कृति से अलग कर के नहीं समझा जा सकता। उर्दू के बारे में भी यही बात है।

बहुत भारतीय लोग उर्दू की शायरी पसन्द करते हैं। उन में से कई उर्दू के ग्रुप्स भी चला रहे हैं। लेकिन, ये ग्रुप्स चलाने वाले मुख्यतः देवनागरी लिपि में उर्दू पढ़ने वाले लोग हैं, वह भी कुछ प्रसिद्ध उर्दू शायरी के शौक़ीन। उनको उर्दू की गहरी शायरी की शायद समझ नहीं है। उन के लिये उर्दू शायरी का मतलब बस इश्किया शायरी से है।

मैं भी ऐसे ग्रुप्स में कभी बहुत ऐक्टिव रहता था। तब मैं अपनी फेसबुक वॉल पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ ग्रुप्स में ही उर्दू की शायरी शेयर (share) करता था।

एक बार मैंने शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का यह शेअर उन्हीं कुछ ग्रुपों में शेयर किया था:-

बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की।
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की।

– शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

(शैख़ [धार्मिक रहनुमा] के दिल में गुनाह करने की इच्छा अभी बाक़ी है। अगर इस ने अपनी दाढ़ी काली की, तो यह अपना मूँह भी काला करेगा)।

باقی ہے دل میں شیخ کے حسرت گناہ کی
کالا کرے گا منہ بھی جو داڑھی سیاہ کی

شیخ ابراہیم ذوقؔ

अब हुआ यह कि ग्रुप एडमिन्स (group admins) इस शेअर से घबरा गये। उन को लगा कि यह शेअर किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकता है। सभी ने मेरी वह पोस्ट हटा दी।

ऐसा उन की उर्दू संस्कृति के प्रति अज्ञानता की वजह से हुआ।

दाढ़ी सियाह करना, अर्थात, अपनी दाढ़ी के बाल काले करना इस्लाम में मना है। सिख पन्थ में भी यही स्थिति है। ‘शैख़’, यानि धार्मिक रहनुमा होकर भी अगर कोई अपनी दाढ़ी काली कर रहा है, तो इसका मतलब उस के मन में गुनाह करने की इच्छा है। गुनाह करेगा, तो अपना मूँह भी काला करेगा।

यह शेअर लिख कौन रहा है? ‘शेख़ इब्राहीम ज़ौक़’, जो जाति से ख़ुद ‘शेख़’ भी हैं और मुसलमान भी।

तो, एक बहुत गहरे शेअर को इस लिये समझा नहीं जा सका, क्योंकि उस शेअर की भाषा की संस्कृति से वे लोग अनजान थे।

(यही वजह थी कि मैंने वे ग्रुप्स छोड़ दिये थे। उनके बार-बार पूछने पर भी मैंने उन एडमिन्स को वजह नहीं बताई थी। अब यहाँ पर वह वजह लिख दी है)।

आज अपनी ही डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ते हुये यह पुरानी बात याद आ गई और यहाँ लिख दी है।

ख़ैर, छोड़िये। ????

अब इक़बाल असलम का एक शेअर पेश करता हूँ।

Swami Amrit Pal Singh 'Amrit'पुष्कर, राजस्थान की एक याद

‘जुब्बा’ कहते हैं, लम्बे-से कुर्ते को, जो शेख़ पहनते हैं। जुब्बे जैसा ही लम्बा चोला कुछ भारतीय साधु भी पहनते हैं, जिसे ‘अल्फ़ी’ बोलते हैं। ‘अल्फ़ी’ को ही ‘खफ़नी’ भी कह देते हैं। ‘दस्तार’ कहते हैं पगड़ी को। ‘रियाकारी’ का अर्थ है, ‘मक्कारी’, ‘पाखण्ड’, ‘झूठा दिखावा’।

अरे ओ जुब्बा-ओ-दस्तार वालो!
रिया-कारी हुई है बंदगी क्या?

~ इक़बाल असलम

रियाकारी: – मक्कारी, पाखण्ड, झूठा दिखावा।

(ओ लम्बा चोला और दस्तार पहनने वालो! क्या अब पाखण्ड ही भक्ति हो गई है?)

ارے او جبہ و دستار والو
ریا کاری ہوئی ہے بندگی کیا

اقبال اسلم

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

25 अगस्त, 2023












बलोचिस्तान 1947 | हिन्दू-सिख क़त्लेआम | पाकिस्तान की स्थापना

بلوچستان ١٩٤٧ | ہندو سکھ قتل عام | قیام پاکستان

#पाकिस्तान_की_स्थापना । #हिन्दू_सिख_क़त्लेआम ।

बलूचिस्तान में हिन्दू-सिख आबादी मुख्यतः राजधानी कोयटा में थी। यहाँ 1947 तक हिन्दुओं की आबादी तक़रीबन 25 हज़ार थी, जो कि कोयटा की कुल आबादी की 35 फ़ीसद से भी ज़्यादा थी। सिखों की आबादी तक़रीबन 12 फ़ीसद थी और वे दस हज़ार से कुछ कम ही थे। बहुत थोड़े-से बौद्ध और जैन भी कोयटा में रहते थे। अब वहाँ हिन्दू आबादी एक फ़ीसद से भी कम है।

पिशीन में 1947 तक हिन्दू आबादी 25 फ़ीसद और सिख आबादी तक़रीबन 10 फ़ीसद थी। अब वहाँ हिन्दू आबादी आधा फ़ीसद भी नहीं है।

इसी तरह, मच में हिन्दू आबादी 19 फ़ीसद और सिख आबादी 5 फ़ीसद थी। अब मच में हिन्दू आबादी डेढ़ फ़ीसद है।

सनातन जैन परम्परा में गुरुपूर्णिमा












~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

कथा है कि सौधर्म इन्द्र द्वारा विधिवत् पूजा और धनपति कुबेर द्वारा समवसरण की रचना के बावजूद श्री महावीर भगवान की दिव्य ध्वनि ६६ दिन तक नहीं खिरी।

समवसरण

समवसरण

आम भाषा में कहें, तो महावीर भगवान के रूप में गुरु तो मौजूद हैं, परन्तु गणधर, अर्थात, कोई ऐसा विशेष शिष्य उपलब्ध नहीं है, जो उनके ब्रह्मोपदेश को ग्रहण कर के आगे और जिज्ञासुओं को भी वही उपदेश कर सकने की योग्यता रखने वाला हो।

बहुत गम्भीर बात है। गुरु उपलब्ध है। देव वहाँ मौजूद हैं। मानव वहाँ मौजूद हैं। अन्यन्य जीव वहाँ मौजूद हैं। परन्तु, कोई ऐसा विशेष शिष्य वहाँ मौजूद नहीं है।

सब के जीवन में गुरु आते हैं। हर किसी के एक से ज़्यादा गुरु होते हैं। कोई आपको पढ़ना सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको गणित सिखाता है, तो वह आपका गुरु है। कोई आपको साइंस पढ़ाता है, तो वह आपका गुरु है। आपको कोई भी विषय पढ़ा दे, वह आपका गुरु है।

माँ ने आपको बहुत कुछ सिखाया। चलना सिखाया। खाना, पीना, बोलना सिखाया। माँ भी गुरु है। जीवों के पहले गुरु के तौर पर माँ का ही ज़िक्र होता है।

जो आपको धर्म पढ़ा दे, धर्मग्रंथ पढ़ा दे, वह भी आपका गुरु है। इस गुरु का विशेष स्थान है। इसकी ख़ास अहमियत है।

पर, इन सब गुरुओं से भी ऊपर एक गुरु है। यह वह गुरु है, जो आपको मोक्ष मार्ग दिखा दे; जो आपको आत्मानुभव करा दे; जो आपको ब्रह्मज्ञान करा दे। ऐसे गुरु को सद्गुरु कहा जाता है।

सद्गुरु के अनेक शिष्य हो सकते हैं। हज़ारों, लाखों, करोड़ों शिष्य हो सकते हैं। पर हर शिष्य इतना सुयोग्य नहीं होता कि सद्गुरु के अत्यन्त रहस्यमय उपदेश को ग्रहण कर सके।

एकोपि वङ्कामणिरि शिष्योलं गुरूजनस्य किं बहुभि:।
काचशकलैरिवान्यैरू दण्डै: पात्रता शून्यै :।।

गुरूजन के लिये हीरे जैसा एक भी शिष्य पर्याप्त है। कांच के टुकड़ों की भांति पात्रता-शून्य ढेर सारे उद्दण्ड शिष्यों से क्या प्रयोजन है।

काँच के टुकड़ों का ढेर क्या करना? चाहे एक ही सुयोग्य शिष्य हो, पर जो हो, तो हीरे जैसा निर्मोल्क हो। हीरा तो एक भी बहुत है।

समवसरण में सद्गुरु बैठे हैं। उनको सुनने के लिये देव आदि मौजूद हैं। सौधर्म इन्द्र खड़ा है। कुबेर खड़ा है। पर सद्गुरु हैं कि मौन हैं।

गोतम गोत्र वाले, सकल वेद वेदांग के ज्ञाता, महापण्डित, इन्द्रभूति जी अपने भाइयों और 500 ब्राह्मण शिष्यों के साथ समवसरण में पहुँचते हैं। सामने देखते हैं। पवित्रात्मा महावीर महाभाग बैठे हैं।

सद्गुरु जब बोलेंगे, तब बोलेंगे। जब उपदेश देंगे, तब देंगे। अभी तो उनका दर्शन करने मात्र से इन्द्रभूति जी को कुछ ऐसी अनुभूति हो गई है, जिस को कथन नहीं किया जा सकता।

वह आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन था।

ऐसा शिष्य भी दुर्लभ है। सौधर्म इन्द्र भी वहाँ इन्द्रभूति का पूजन करते हैं। अहो भाग्य! सुयोग्य गुरु के सुयोग्य शिष्य का पूजन तो देव भी करते हैं। इन्द्र भी करते हैं।

इन्द्रभूति अपने दोनों भाइयों, वायुभूति और अग्निभूति, और अपने 500 शिष्यों समेत महावीर भगवान से दीक्षित हो गये।

इन्द्रभूति अब महावीर भगवान की संगति से इन्द्रभूति नहीं रहे। वह महावीर जी के प्रथम गणधर हो गये। इतिहास में उनको गौतम गणधर के नाम से जाना जाता है। उनके दोनों भाइयों सहित ग्यारह गणधर हुए।

श्री गौतम गणधरश्री गौतम गणधर

इतिहास कहता है कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन इन्द्रभूति को उनके गुरु की प्राप्ति हुई और वे गौतम गणधर हो गये। इस लिये जैन परम्परा में यह दिन ‘गुरु पूर्णिमा’ के तौर पर विख्यात हुआ।

इससे अगले दिन, यानि श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को प्रभात में पहली बार श्री महावीर जी की गम्भीर वाणी खिरी।

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’












थोहा ख़ालसा क़त्लेआम (वीडियो)

पोठोहार के इलाके में ज़िला रावलपिण्डी के गाँव थोआ ख़ालसा का क़त्लेआम 1947 के ख़ूनी दौर के सबसे मशहूर क़त्लेआमों में से एक है। थोआ ख़ालसा में 93 सिख औरतों ने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये गाँव के कुएँ में कूद कर अपनी जान दे दी थी।

गृहस्थ धर्म श्रेष्ठ है

(स्वामी अमृत पाल सिंघ ‘अमृत‘)

सिख परम्परा में भाई साहिब भाई गुरदास जी गुरुमत के महान विद्वान हुये हैं। गुरु साहिबान के प्रति उनकी श्रद्धा अनुकरणीय है। गुरु साहिबान ने भी उनको बहुत सम्मान दिया।

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के जिस प्रथम स्वरूप को पाँचवे सद्गुरु, श्री गुरु अर्जुन देव जी ने लिखवाया था, उसके लिखारी भाई गुरदास जी ही थे।

आप जी की रचना दो हिस्सों में है। आप जी ने वारें पंजाबी में लिखी हैं, जबकि आपके कबित्त बृज भाषा में हैं।

आपका 376वां कबित्त यह है:-

जैसे सरि सरिता सकल मै समुन्द्र बडो,
मेर मै सुमेर बडो जगतु बखान है।
तरवर बिखै जैसे चन्दन बिरखु बडो,
धातु मै कनक अति उतम कै मान है।
पञ्छीअन मै हन्स, म्रिग राजन मै सारदूल,
रागन मै सिरीरागु, पारस पखान है।
गिआनन मै गिआनु अरु धिआनन मै धिआन गुर,
सकल धरम मै ग्रिहसतु प्रधान है ॥३७६॥

भाई गुरदास जी फ़रमाते हैं कि जैसे सरोवरों और नदियों में समुद्र बड़ा (श्रेष्ठ) है और पर्वतों में सुमेर का जगत व्याख्यान करता है; जैसे वृक्षों में से चन्दन बड़ा है और धातुओं में सोने को उत्तम माना जाता है; पक्षियों में हंस, पशुओं में शेर, रागों में श्रीराग, और पत्थरों में पारस है; (वैसे ही) ज्ञानों में ज्ञान, गुरु द्वारा दिया ज्ञान है, ध्यानों में गुरु का ध्यान है, और धर्मों में गृहस्थ धर्म की प्रधानता है।

गुरमुख जनों की चरणरज,
(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

दूसरों की परवाह करना


(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

जब मैं मिडल स्कूल में पढ़ता था, हमारे प्रिंसिपल बड़े सख़्त अनुशासन वाले थे। जब मैंने पोस्टग्रेजुएशन की, तब वे रिटायरमेंट की उम्र में पहुँच गये। 

जब मैं उनके पास पढ़ता था, तब मुझे उनसे डर लगता था। अब जब कि वे रिटायरमेंट की अवस्था में आ गये, तो मुझे कई बार उनसे लम्बी बातें करने का मौक़ा मिला। मैं कई बार उनके घर चला जाता और उनसे बातें करता रहता। उन्होंने मुझे पंजाब में एक धार्मिक विद्यालय में प्रिंसिपल लगवा दिया। वे मुझे कहते थे, “मैं चाहता हूँ कि तुम्हें धार्मिक क्षेत्र में मान्यता मिले।”

एक दिन वे मुझे कहने लगे कि अब उनको लगता है कि उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी ऐसे ही बच्चों पर सख़्त अनुशासन रखकर बर्बाद कर दी। बच्चों पर ज़रूरत से ज़्यादा सख़्ती ठीक नहीं है।

आज मुझे अपने उन्हीं प्रिंसिपल साहिब की बातें याद आ रही हैं। 

मुझे भी महसूस होता है कि ख़ुद को नफ़रत से बचाने की अपनी कोशिश में मैं प्रेम बाँटने में कंजूस ही रह गया। मन को शान्त रखने की कोशिश में मेरी लम्बी मौन साधना ने मुझे उन लोगों से भी दूर कर दिया, जिनको उनके परेशानी के क्षणों में मेरी हमदर्दी और गाइडेन्स की ज़रूरत थी। लोगों के दुःखों और परेशानियों को मुझे उनके ही नज़रिए से देखकर उनकी मदद करनी चाहिए, न कि सबकी समस्याओं को अपनी विरक्तता की ऐनक से देखना चाहिए।

मेरे एक प्रियजन की आत्महत्या ने मुझे कुछ हद तक खा लिया था। जब वह बहुत परेशान था, तब वह मुझे बार-बार फ़ोन करता था। मेरी साधना में विघ्न पड़ता था। उसको हौसला देने के लिये मैं मौनव्रत तोड़ देता था। फिर मौनव्रत तोड़ने की खीझ भी उसी पर उतार देता था। 

विरक्तता की मेरी ऐनक से देखने पर उस की समस्या कुछ गम्भीर नहीं थी। बस ‘माया’ थी। दो-तीन श्लोक, थोड़ी-सी फ़िलॉसफ़ी, बस, और मेरे नज़रिए से वह समस्या नदारद। 

पर, उसके नज़रिए से वह जीवन-मृत्यु का प्रश्न था। कितना फ़र्क़ था उसके नज़रिए और मेरे विरक्तता के नज़रिए से! 

जब उसने पहली बार आत्महत्या की कोशिश की, तो उसे हस्पताल में भर्ती किया गया। मैंने उसे ‘माया’ की व्यर्थता पर प्रवचन पिलाया। यह सब ‘माया’ है। जब ‘ज्ञान’ प्रकट होगा, तो ‘माया’ ख़ुद-ब-ख़ुद नष्ट हो जाएगी। यह। वह। फलाना। ढिमका।

अपने-अपने ‘सत्य’ हैं सब के। लोगों के ‘सत्य’ मेरे लिये ‘दृष्टिभ्रम’ (illusion) हैं। मेरा ‘सत्य’ लोगों के लिये ‘साइकोसिस’  (Psychosis) है। आज मेरे लिये जो ‘दृष्टिभ्रम’ या ‘माया’ है, वह कभी मेरे लिये भी ‘सत्य’ था। 

मैं जिसे ‘माया’ कह रहा था, उसके लिये वह ‘सत्य’ था, जिसको नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता था। उसका वह ‘सत्य’ उसके पूरे जीवन पर भारी पड़ रहा था।

उसे मैंने यही कहा था कि सब ठीक हो जाएगा, बस ‘थोड़ा वक़्त’ लगेगा। 

‘थोड़ा वक़्त’ कितना होता है? पता नहीं। ‘थोड़ा वक़्त’ कभी-कभी बहुत ज़्यादा होता है। उस वक़्त में व्यक्ति को कोई हौसला देने वाला चाहिये। बार-बार हौसला देने वाला चाहिये। कोई राह दिखाने वाला चाहिये। बार-बार राह दिखाने वाला चाहिये। विरक्तता की गहन गुफ़ा में बन्द हुये बैठे योगी का मौन वहाँ मददगार नहीं होता। उस मौनी का होना या न होना कोई अर्थ ही नहीं रखता। जब शब्दों की ज़रूरत हो, तब मौन एक अपराध है।

मुझे अपनी एक बात याद आ गई है। मेरे पिता जी की मौत के बाद मैं अकेला हो गया। कुछ लोग मेरी शादी की बात चलाने लगे।

मोहाली के एक गुरुद्वारे में देखने-दिखाने की बात हुई। लड़की वाले लड़की को लेकर वहाँ आये। कुल चार लोग थे वे। एक बिचौला था। और मेरी ओर से मैं था, बिल्कुल अकेला।

जब गुरुद्वारे के अन्दर बैठे, तो उन्होंने लड़की को मेरी बाईं ओर बिठा दिया। मैंने एक बार भी लड़की की ओर नहीं देखा। जैसा कि होता है, उन्होंने मुझसे कई सवाल पूछे। मेरा रोज़गार। मेरी इनकम। मेरा घर। मेरा परिवार। मेरे रिश्तेदार। 

फिर वह मुझे कहने लगे कि आप भी कुछ पूछो लड़की के बारे में। मैंने कहा कि मुझे कुछ नहीं पूछना है।

क्या पूछते हैं लड़की से? यही न, कि कितना पढ़े हैं, खाना बना लेते हैं, ब्लाह ब्लाह ब्लाह। बिचौलिए ने पहले ही बता दिया था कि लड़की ग्रैजुएट है। पिता की मौत हो चुकी है। उसकी माँ है, भाई है, बहन है। शादी की बात चला रहे हैं, तो खाना बनाना तो आता ही होगा। पूछने वाली कोई बात है ही नहीं।

फिर वे कहने लगे कि अकेले में लड़की से बात करनी हो, तो कर लीजिये। मैंने कहा कि मुझे तो कोई ज़रूरत नहीं, अगर आपकी लड़की मुझसे अकेले में बात करना चाहे, तो कर सकती है।

वह लड़की घर से सोचकर भी आई हो कि अकेले में कुछ प्रश्न पूछूँगी, तो मेरी ठण्डी बातें सुनकर उसने मन बना लिया होगा कि इस खड़ूस से शादी नहीं करनी।

शादी तो ज़िन्दगी का प्रश्न है। वहाँ भी मैं कुछ पूछना नहीं चाहता था। क्या लापरवाही थी वह मेरी! कुछ पूछने का, कुछ बात करने का मतलब यह होता है कि मैं तुम्हारी परवाह करता हूँ। बोलने से मेरे परहेज़ ने यह सन्देश दिया कि मैं उस लड़की की परवाह नहीं करता। उसने मुझसे शादी करनी है, तो करे, नहीं तो न करे।

ज़ाहिर है कि मेरा रिश्ता वहाँ नहीं हुआ।

किसी की बात सुनने का मतलब है कि हमें उस की परवाह है। छोटा बच्चा आसमान में से अपने लिये चांद चाहता है। हम जानते हैं कि यह असम्भव है, पर बच्चे के मन को बहलाते हैं, क्योंकि हम उस बच्चे की परवाह करते हैं।

कोई आत्महत्या की कोशिश करके हस्पताल में भर्ती है। उससे बात करने का मतलब यही है कि हम उसकी परवाह करते हैं। यह नहीं कि हम उसे ज्ञान पिलाने बैठ जायें। बस हौसला दें कि ज़िन्दगी यूँ ही गंवा देने के लिये नहीं है। उसे बताएं कि तेरे मर जाने से हमें कितना दर्द होगा। हमें दर्द होगा, क्योंकि हम तेरी परवाह करते हैं। यही सार है एक दुःखी व्यक्ति से बात करने का कि हम उसे जताएं कि कोई है, जो उसकी परवाह करता है। 

परवाह जताई जाती है बोलकर। मौन रहकर नहीं। मैंने अभी लिखा है कि जब शब्दों की ज़रूरत हो, तब मौन एक अपराध है।

जब उसने दूसरी बार आत्महत्या की कोशिश की, तो वह उस में सफल रहा; और मैं असफल हुआ। मेरी तरह वह घर में अकेला ही रहता था। कुछ दिन उसकी लाश ऐसे ही घर में पड़ी रही और बदबू फैलने लगी। फिर पुलिस ने दरवाज़ा तोड़कर लाश बाहर निकाली। 

दृष्टा-भाव। माया। मौन। निवृत्ति। मोक्ष। ये मेरे प्रिय शब्द हैं। प्रियतर शब्द हैं। प्रियतम शब्द हैं। इन शब्दों के फ़िलॉसफ़ी में गहरे अर्थ हैं। पर, दुःखी व्यक्ति के लिये ये सब बे-मायनी हैं। 

जब अर्थपूर्ण शब्दों की ज़रूरत हो, जो बता सकें कि हाँ, हम तुम्हारी परवाह करते हैं, तब फ़िलॉसफ़ी से ‘थोड़े वक़्त’ के लिये छुट्टी ले लेनी चाहिए। 

‘थोड़ा वक़्त’ कितना होता है? पता नहीं।

(स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’