गोपाल पान्धा जी

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

पान्धा गोपाल जी ‘राय भोए दी तलवंडी’ (अब इसका नाम श्री ननकाना साहिब है) नामक गाँव में शिक्षक थे. गुरु नानक देव जी के पिता, मेहता कालू जी चाहते थे कि उनका पुत्र बही-खाता लिखने का काम सीखे, क्योंकि यही उनका अपना व्यवसाय था. इसलिये, उन्होंने गुरु जी को साथ लिया और पान्धा गोपाल जी के पास गये.

पान्धा गोपाल जी ने गुरु जी को शिक्षा देना प्रारम्भ किया. उन्होंने गणना से शुरू किया. परन्तु, गुरु जी तो इस विश्व में शिक्षा देने के लिये आये थे, न कि शिक्षा लेने. पान्धा गोपाल जी गणना से बाहर रहने वाले गुरु जी को गणना करना सिखाने का प्रयत्न कर रहे थे. पान्धा जी गुरु जी से अति प्रसन्न थे, क्योंकि वह समझ रहे थे कि गुरु जी बहुत शीघ्र सीख रहे थे. उन्होंने मेहता कालू जी के आगे गुरु जी की प्रशंशा की. जब कालू जी विद्यालय में आये, तो पान्धा जी ने गुरु जी को बुलाया और पहाढ़े (गुणक) सुनाने को कहा. गुरु जी ने एक शब्द भी नही कहा. पान्धा जी बोले, “क्यों नहीं सुनाते? कल तो तुम बहुत अच्छे-से सुना रहे थे. आज तुम्हे क्या हुआ? तुम अपने मित्रों के साथ खेलना चाहते हो? अभी तुम पढ़ने की इच्छा नहीं रखते.”

गुरु जी बोले, “आचार्य! आप क्या जानते हैं? आप ने क्या सीखा? बही-खाता सीखने का क्या लाभ है? पहले आप मुझे इसका उत्तर दें. उस उपरान्त ही मुझे शिक्षा दें.”

पान्धा जी हैरान हुए और बोले, “मैं गणना जानता हूँ, लेखा जानता हूँ. तुम पढ़ते क्यों नहीं?”

गुरु जी ने कहा, “पान्धा जी, आत्मा बंधन में है. जब आत्मा को दुःख सहन करना पड़ेगा, तब यह विद्या सहायता न देगी. यह बही-खाता की विद्या तब कोई सहायता न कर पायेगी, जब हम मृत्यु को प्राप्त होंगे. कुछ ऐसी विद्या ग्रहण करें, जो मृत्यु के बाद भी सहायता करे.”

गुरु जी ने तब राग श्री में एक शब्द का उच्चारण किया:

सिरीरागु महलु १ ॥ जालि मोहु घसि मसु करि मति कागदु करि सारु ॥ भाउ कलम करि चितु लेखारी गुर पुछि लिखु बीचारु ॥ लिखु नामु सालाह लिखु लिखु अंतु न पारावारु ॥१॥ बाबा एहु लेखा लिखि जाणु ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै होइ सचा नीसाणु ॥१॥ रहाउ ॥ जिथै मिलहि वडिआईआ सद खुसीआ सद चाउ ॥ तिन मुखि टिके निकलहि जिन मनि सचा नाउ ॥ करमि मिलै ता पाईऐ नाही गली  वाउ दुआउ ॥२॥ इकि आवहि इकि जाहि उठि रखीअहि नाव सलार ॥ इकि उपाए मंगते इकना वडे दरवार ॥ अगै गइआ जाणीऐ विणु नावै वेकार ॥३॥ भै तेरै डरु अगला खपि खपि छिजै देह ॥ नाव जिना सुलतान खान होदे डिठे खेह ॥ नानक उठी चलिआ सभि कूड़े तुटे नेह ॥४॥६॥

गुरु जी ने कहा, “मोह को जला कर उसकी घिसाई कर के सिआही बना लो. अपनी मति को, अक्ल को श्रेष्ठ कागज़ बना लो. प्रभु के भय को लेखनी बनाओ, चित को लिखारी बना कर गुरु से पूछ कर विचार लिखो. प्रभु का नाम लिखो, प्रभु की उसतति लिखो और लिखो कि प्रभु का कोई अन्त नहीं, कोई पारावार नहीं.”

पान्धा जी ने गुरु जी के शब्दों का मनन किया. पान्धा जी ने जान लिया कि यह कोई साधारण शिष्य नहीं है.

पान्धा जी ने गुरु जी के चरण छूए. वह गुरु जी के सच्चे शिष्य बन गये.