संतु न छाडै संतई

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

मेरे मुहल्ले के एक घर में एक पालतू कुत्ता है। बहुत भोंकता है। जब मैं उस घर के आगे से गुज़रता हूँ, तो भोंकना शुरू हो जाता है। उस का भोंकना भी बे-वजह है। मैं चोर नहीं हूँ। मैं उस घर का, या उस घर के बाशिंदों का भला ही चाहता हूँ। फिर भी, वह कुत्ता मुझ पर भोंकता ही रहता है।

जब वह कुत्ता अपने घर में मुझ पर भोंकता है, तो मुझे क्या करना चाहिये?

जब कोई कुत्ता मुझ पर भोंके, तो क्या मुझे भी उस पर भोंकना शुरू कर देना चाहिये? क्या उस पर भोंक कर मुझे भी बदला लेकर यह दिखा देना चाहिये कि देखो, मैं कितना बहादुर हूँ?

कुत्ते पर भोंक रहा इन्सान, इन्सान ही कहाँ रहा? वह तो कुत्ता हो गया। दिखने में वह इन्सान ही है, biologically, शरीर विज्ञान के अनुसार भी वह इन्सान ही है, लेकिन काम तो कुत्ते वाला ही है।

कोई उसे पूछे, “भाई, कुत्ते पर क्यों भोंक रहे हो?”

क्या कहेगा वह? यह कि “यह कुत्ता मुझ पर भोंक रहा था, इसलिये अपनी बहादुरी बताने के लिये मैं भी इस पर भोंक रहा हूँ। मैं कुत्ते पर इस लिये भोंक रहा हूँ कि कोई इन्सान मुझे यह न कहे कि इन्सान हो कर कुत्ते से डर गये?”

क्या वह यह कहेगा कि मैं बहादुरों की क़ौम से हूँ और कुत्ते का भोंकना हरगिज़ बरदाश्त नहीं कर सकता?

कोई इन्सान कुत्ते पर भोंकेगा, तो उस इन्सान की ही हंसी उड़ाई जायेगी। बाक़ी इन्सान उस भोंकने वाले को ही बुरा कहेंगे।

“अरे भाई! कुत्ता को भोंकने दो। कुत्ता है वह, भोंकेगा ही। तुम तो इन्सान हो। तुम क्यों कुत्ते बनते हो?”

कुत्ता भोंके, तो उसको नज़रअंदाज़ कर दो। किसी का पालतू है। उसको रखा ही गया है भोंकने के लिये। ज़्यादा प्रेशानी है, तो उसके मालिक से बात करो। उस का मालिक है, तभी तो वह कुत्ता बहादुर बना फिरता है। उसको लगता है कि वह अपने मालिक की हिफ़ाज़त में है, इसलिये भोंकता है।

अगर हम कुत्ते के भोंकने पर वापिस कुत्ते पर नहीं भोंकते, तो फिर उस आदमी के religion को, पंथ या धर्म को क्यों गाली देना शुरू कर देते हैं, जो हमारे पंथ या धर्म को गाली दे रहा है?

कोई मेरे धर्म के लिये बुरे लफ़्ज़ बोल रहा है, तो क्या यह ज़रूरी है कि मैं भी उसके धर्म के लिये बुरे लफ़्ज़ बोलूँ? कोई मेरे इष्ट को गाली दे रहा है, तो क्या मुझे भी उसके इष्ट को गाली देनी चाहिये? क्योंकि कोई कुत्ता भोंक रहा है, तो क्या मुझे भी भोंकना ही चाहिये?

कोई क्या कर रहा है, यह उस का कर्म है। अपने उस काम के लिये वह ही ज़िम्मेदार है। मेरे अपने काम के लिये मैं ही ज़िम्मेदार हूँ।

मेरे लिये महत्वपूर्ण मेरा धर्म होना चाहिये। मेरा कर्म, मेरा काम मेरे धर्म के अनुसार होना चाहिये। मेरा कर्म, मेरा काम मेरा धर्म ही निर्धारित करेगा। किसी की गाली मेरा कर्म निर्धारित नहीं कर सकती। अपने कर्म के लिये मुझे निर्देश अपने धर्म से लेना है। किसी बुरे इन्सान की गाली से मैं अपने लिये कोई निर्देश क्यों लूँ? मुझे वही करना चाहिये, जो मेरा धर्म मुझे कहता है। मेरा रहबर मेरा धर्म है, किसी की गाली मेरा रहबर नहीं है।

किसी के मूंह में ज़हर भरा है, तो मैं भी अपने मूंह में ज़हर क्यों भर लूँ? किसी बुरे इन्सान को जिंदगी ने ज़हर ही दिया है। उसके काम ऐसे रहे होंगे कि उसको ज़हर ही मिला। उस का परिवार ऐसा रहा होगा कि उसको ज़हर ही मिला। उसके हालात ऐसे रहे होंगे कि उसको ज़हर ही मिला। या फिर उसकी क़िस्मत को ही इल्ज़ाम दे लीजिये कि उसको सिर्फ़ ज़हर ही मिला है। उसको सच्चा गुरु न मिला होगा, उसको सही मुरशिद न मिला होगा, इस लिये उसको ज़हर ही मिला। बस, उसने ज़हर ही संभाल लिया है अपने मूंह में।

मेरे गुरु की कृपा हुई मुझ पर, मेरे रहबर की रहमत हुई मुझ नाचीज़ पर कि मुझे अमृत मिला, आब-ए-हयात मिला, मैं उस को क्यों न अपने मूंह में संभाल-संभाल के रखूँ? कोई भले ही अपने मूंह से ज़हर उगलता रहे, मुझे तो अमृत-बोल ही बोलने हैं।

अरे भाई, मैं करूँ भी क्या? मेरा गुरु मुझे ज़हरीले बोल बोलने सिखाता ही नहीं।

भक्त कबीर साहिब महान क्रांतिकारी हुये हैं। उनसे पूछो, तो वह फ़ुरमाते है कि संत अपनी संतताई, संत वाला अपना स्वभाव नहीं छोड़ता, चाहे उसको करोड़ों असंत मिल जायें। मल्य पहाड़ पर होने वाले चन्दन के पेड़ को साँप भी घेरे रहें, तो भी चन्दन का वह पेड़ अपनी शीतलता, अपनी ठंडक को छोड़ता नहीं है।

कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥
मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥
(१३७३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

असंत लफ़्ज़ उनके लिए है, जो संत नहीं हैं। संत का मन शान्त है, असंत का मन बिलकुल ही शान्त नहीं है। संत दूसरों का भला करता है, असंत दूसरों का बुरा करता है। संत मीठे बोल बोलता है, असंत कड़वे बोल बोलता है। संत की वाणी से अमृत झरता है, असंत ज़हर उगलता है।

अगर कोई संत है, तो वह दूसरों का भला ही करेगा। जो बुरे हैं, संत उनका भी भला करेगा। जो उस संत का बुरा करेगा, संत उस का भी भला ही करेगा।

ऐसा नहीं है कि संत कोई प्लानिंग बनाता है कि उसने किसी का भला करना है। बस, उससे दूसरों का भला हो जाता है। ऐसा नहीं कि सूरज यह सोचता है कि मैं रौशनी बाँटूँ। बस, सूरज के होने से रौशनी हो जाती है। सूरज है, तो रौशनी बंटेगी ही।

चन्दन क्या यह सोचता है कि आज मैं ख़ुशबू बांटुंगा? ख़ुशबू चन्दन का अपना सहज गुण है। चन्दन है, तो ख़ुशबू होगी ही। ख़ुशबू चन्दन का धर्म है। ख़ुशबू और चन्दन एक दूसरे से घुले-मिले हैं। चन्दन होगा, तो ख़ुशबू होगी ही। कितने भी ज़हरीले नाग चन्दन के पेड़ को लिपटे रहें, चन्दन फिर भी ख़ुशबू ही देता है, ज़हर बांटना नहीं शुरू कर देता।

ऐसे ही, संत है, तो दूसरों का भला होगा ही। संत का सहज स्वभाव है दूसरों का भला करना। कोई उसका भी बुरा कर जाये, संत उस बुरे का भी भला ही चाहता है। चन्दन है, तो ख़ुशबू होगी ही। संत है, तो दूसरों की भलाई होगी ही।

सूरज के आस-पास अँधेरा है। गहरा अँधेरा है। गहरे अंधेरे के बीच रहते-रहते भी सूरज रौशनी देने का अपना स्वभाव छोड़ नही देता है। संत भी अगर करोड़ों असंतों, करोड़ों बुरे लोगों के बीच रहे, तो भी वह असंत नहीं हो जाता है। करोड़ों बुरे लोगों के बीच रहते भी वह अपना संत-स्वभाव छोड़ता नहीं है।

अँधेरा है, तभी तो पता है कि रौशनी क्या है। अँधेरा है, तभी तो सूरज की क़ीमत पता चलती है। अँधेरे की ग़ैर-मौजूदगी हो, तो सूरज को भी कौन जानेगा? अँधेरा न हो, तो सूरज की भी क्या ज़रूरत?

बुरे लोग हैं, तभी तो अच्छे इन्सान की क़ीमत है। बुरे लोग न हों, तो कौन किस को अच्छा इन्सान कहेगा? बुरे लोग हैं, तभी तो अच्छे लोगों की ज़रूरत महसूस होती है।

कुछ लोग होते तो अच्छे हैं, लेकिन कभी कुछ बुरे लोगों के साथ रह-रह कर उनके असर में बुरे ही बन जाते हैं। किसी बुरे इन्सान के बुरे काम देख कर वे भी बुरे काम करने लग जाते हैं। कभी किसी ने उनके साथ बुरा किया, तो बदले में अब वे भी बुरा ही करने लग गये हैं। ऐसे लोग कुछ भी हों, लेकिन संत तो नही हैं, क्योंकि संत बुरे लोगों की संगत में अपना संत वाला स्वभाव छोड़ नहीं देता। हमें संत बनना है। हमें गुरु की शिक्षा को अमल में लाना है। बुरे लोगों के साथ रह-रह कर, बुरे लोगों के प्रभाव में आ कर बुरा नहीं बनना है। हमने अच्छा बनना है। गुरु ने हमें अच्छा बनने की शिक्षा दी है।