#पाकिस्तान_की_स्थापना । #हिन्दू_सिख_क़त्लेआम ।
मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* दिल चाहता है कि कोई मर्सिया लिखूँ। दूर किसी उजाड़ में बैठ कर अपना लिखा मर्सिया धीरे-धीरे से गाऊँ मैं। जब भी कभी मर्सिया लिखने बैठता हूँ, लिख नहीं पाता। लफ़्ज़ ही नहीं मिलते।
* कभी-कभी हो जाता है कि अल्फ़ाज़ हमसे बेवफ़ाई कर जाते हैं। हम कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन लफ़्ज़ साथ नहीं देते। कुछ बातें इतनी बड़ी होती हैं कि डिक्शनरी भी छोटी लगने लगती है। कुछ दर्द इतने भारी होते हैं कि सारे लफ़्ज़ मिलकर भी उन दर्दों का भार बर्दाश्त नहीं कर सकते।
* दर्द ने कितनों को गूँगा बना दिया। दर्द ने कितनों की आखों से इतने आँसू बहाये कि वो आँखें बन्जर ज़मीन की तरह हो गईं, जिसमें फिर कोई ख़्वाब नहीं उगा। दर्द ने कितनों की ज़िन्दगी को इतना बोझल बना दिया कि जीना भी एक लम्बी सज़ा हो गया।
* जब ज़ुबान साथ न दे, तो बस आँखों से ही बोलना सीखना पड़ता है। जब दूसरा अपना दर्द बयान न कर सके, तो उसके चेहरे से ही पढ़ लेने का हुनर सीखना पड़ता है। जानवर कहाँ बोल पाते हैं हमारी बोली? फिर भी हम कुछ न कुछ तो समझने की कोशिश करते ही हैं उनके दर्द को। फिर ऐसा क्यों कि हम अपने ही उन लोगों के दर्द को समझ नहीं पाते, जो 1947 में मज़हब का नक़ाब पहने बैठी सियासत के हाथों बर्बाद हो गये? वो गूंगे हो गये थे अपना दर्द बयान करते-करते। जिनकी खुशियों को सियासी ताक़त के भूखे भेड़िये खा गये थे, वो ख़ुद रोटी-रोटी को मोहताज हो गये थे। जिनकी नन्हीं नाज़ुक कलियों-सी बच्चियों को हैवान खा गये थे, उनमें इतनी हिम्मत ही कहाँ बची थी कि कुछ बता पाते। और उनके बिना बताये ही उनकी बात समझने वाले भी तब कहाँ मिलते?
* अब तो 70 साल हो गये। बहुत वक़्त बीत चुका। चलो, अब तो मैं उनका मर्सिया गा लूँ। चलो, अब तो मैं उनकी कथा कह लूँ। कोई पुराण लिख दूँ मैं उनका। बिना कृष्ण वाली कोई नई महाभारत लिख दूँ मैं। एक सीता जी के अग़वा पर हज़ारों रामायणें लिखीं ऋषियों ने। 1947 की हज़ारों सीता माताओं पर कोई आधी रामायण ही लिख दूँ मैं।
* लेकिन, लिख ही नहीं पाता हूँ मैं। कह ही नहीं पाता हूँ मैं। उन्नीस सौ सैंतालीस लिख कर ही रुक जाता हूँ। उन्नीस सौ सैंतालीस कह कर ही चुप हो जाता हूँ मैं।
* पोठोहार की एक-दो नहीं, बल्कि हज़ारों बेटियाँ बटवारे की बलि चढ़ा दी गईं। बहुत ख़ूबसूरत, मीठा बोलने वाली, बड़ी सलीक़े वाली, सुबह उठकर गुरुद्वारों और मन्दिरों में जाने वालीं, आँखों में ख़ाब बुनती रहने वाली वो लाडलिआँ नहीं जानती थीं कि उस दौर में उस जगह पर उनका हिन्दू और सिख होना ही बहुत बड़ा गुनाह हो गया था। पोठोहार के गांवों की वो चिड़ियाँ थीं। पोठोहार की वो कुड़ियाँ थीं। मेरी क़ौम की वो बेटियाँ थीं। हमारी पगड़ियाँ थीं वो।
* अपने ख़ानदान के लोगों को उन्होंने बहादुरों की तरह धर्म पर मरते देखा था। अपनी इज़्ज़त को बचाने की कोशिश में कूंओं में कूद कर जान दे देने वाली उन पोठोहारणों के आगे आज के हम लोग बहुत बौने हैं।
* मेरी आज की उदास शाम उन्हीं के नाम है। मेरी गुनाहगार आँखों में तैरते आँसू उन्हीं की याद को अर्पित हैं।