भाग 1 – पोठोहार में हिन्दू-सिख क़त्लेआम । पाकिस्तान की स्थापना

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मेहरबानी करके पूरी विडियो देखें/सुनें। इस विडियो के कुछ नुक्ते इस प्रकार हैं: –

* ब्रिटिश पंजाब के तीन ज़िलों, रावलपिण्डी, झेलम, और कैम्पबेलपुर (अट्टक) का इलाक़ा ही पोठोहार कहा जाता है।

* ज़िला रावलपिण्डी में मुस्लिम आबादी 80 फ़ीसद थी और हिन्दुओं और सिखों की आबादी 18.67 फ़ीसद थी। कैम्पबेलपुर (अट्टक) में मुस्लिम आबादी 90.42 फ़ीसद और हिन्दू-सिख आबादी 9.36 फ़ीसद थी। झेलम में मुस्लिम आबादी 89.42 फ़ीसद और हिन्दू-सिख आबादी 10.41 फ़ीसद थी।

* मार्च 1947 में हिन्दुओं और सिखों का सबसे खूंखार, सबसे बड़ा क़त्लेआम पोठोहार में ही हुआ था। 5 मार्च से शुरू हुये उस क़त्लेआम में अगले कुछ दिनों में ही 7000 से ज़्यादा हिन्दू और सिखों को क़त्ल कर दिया गया था। इन कुछ दिनों में ही 4000 से भी ज़्यादा हिन्दू और सिख औरतों को गुंडों की भीड़ें उठा कर ले गईं थीं।

* इस वक़्त मेरे परदादा जी, मेरे दादा जी और पिता जी परिवार के साथ रावलपिण्डी में ही थे। दिसम्बर, 1946 में नार्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स की हज़ारा डिवीज़न में हुये क़त्लेआम से बच निकले हमारे खानदान के सामने अब पोठोहार का क़त्लेआम अपना ख़ूनी मूँह खोलकर खड़ा था।

* 1947 ने मेरे ख़ानदान के सिर्फ़ दो लोगों की जान ली। वो दो भी रिफ्यूजी कैम्प में उस वक़्त फैली महामारी की वजह से मौत का शिकार हुये। इनमें एक मेरी परदादी जी थी और दूसरी मेरी बुआ जी, जो एक बहुत ख़ूबसूरत छोटी-सी बच्ची थी। वो दिसम्बर, 1946 के हज़ारा के क़त्लेआम में से बच निकले। वो मार्च, 1947 के पोठोहार के क़त्लेआम से बच निकले। लेकिन पाकिस्तान की स्थापना ने उनका पीछा रिफ्यूजी कैम्प तक किया और उनकी जान लेकर ही रही।

* जिनकी आंखों के सामने जिनके प्यारे बुरी तरह से तड़पा-तड़पा कर क़त्ल कर दिये गये, जिनकी बहन-बेटियाँ-बहुएं बेइज़्ज़त कर दी गईं, जिनकी फूल-सी बच्चियाँ उनके देखते-देखते अग़वा कर लीं गयीं, उनके दुःखों को बयान करने के लिये मैं किस डिक्शनरी से अल्फ़ाज़ ढूँढ कर लाऊँ?

* 1971 में अपने ही मुसलमान पाकिस्तानी भाइयों का क़त्लेआम करते हुये जिनके हाथ नहीं कांपे, उन्होंने 1947 में दूसरे मज़हब के लोगों, हिन्दुओं और सिखों के साथ कितना ज़ुल्म किया होगा, इसका अन्दाज़ा लगाना कोई मुश्किल नहीं है।

* 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान किये गये बेरहम और भयंकर जेनोसाइड के जुर्म में 45-46 साल बाद अब जब कुछ मुजरिमों को फाँसी पर लटकाया गया है, तो 1947 के क़त्लेआम को लेकर मेरी बेचैनी और बढ़ गयी है। क्या 1947 के क़त्लेआम का कोई मुजरिम ही नहीं था? अगर था, तो 70 साल बाद भी हम उसकी निशानदेही करने में क्यों डर रहे हैं?

* 1947 के हालात, 1947 के क़त्लेआम, उस क़त्लेआम के शहीद, उस क़त्लेआम के ज़िम्मेदार घिनौने चेहरे, उस क़त्लेआम से हासिल हुये सबक़। कौन करेगा इन सबका ज़िक्र?

* दंगाइयों की भीड़ ढोल बजाते हुये आती और किसी एक गाँव को चारों तरफ़ से घेर लेती। आते ही फायरिंग करके कुछ हिन्दू, सिखों को शहीद कर दिया जाता, ताकि बाक़ी के हिन्दुओं, सिखों में दहशत फैल जाये। उसके बाद उनको मुसलमान बनने के लिये कहा जाता। जो मुसलमान बन जाते, उनको छोड़ दिया जाता, बाकियों को क़त्ल कर दिया जाता। किसी को गोली मारकर, किसी को ज़िन्दा जला कर, किसी को चाकू-छुरों से काटकर शहीद कर दिया जाता।

* औरतों और लड़किओं का खुलेआम रेप किया जाता। हज़ारों की भीड़ के सामने किसी मासूम हिन्दू या सिख औरत की इज़्ज़त लूटी जा रही होती और दंगाइयों की भीड़ ख़ुशी में चिल्ला रही होती।

* पोठोहारी हिन्दू, सिख लड़कियाँ अक्सर बहुत ख़ूबसूरत होती थीं। 4000 से ज़्यादा हिन्दू, सिख औरतों को अग़वा किया गया। बेटों, भाइयों, पिताओं, शौहरों को बांध कर उनके सामने उनकी माँओं, बहनों, बेटियों, और बीवियों से रेप किये गये। कितनी ही औरतों के अंगों को काट दिया गया। उनके प्राइवेट पार्ट्स में डंडे और लोहे की छड़ें डाल दी गईं। अग़वा की गई बहुत-सी औरतों और लड़किओ को कबाइली इलाक़ों में भी ले जाया गया, जिसके बाद उनको कभी भी ट्रेस नहीं किया जा सका।

* छोटे-छोटे बच्चों को छुरों से काट डाला गया। दूध-मुँहे बच्चों को उनकी माँओं से छीन कर जलते हुये घरों में फेंक दिया गया। छोटे बच्चों की लाशों को बरछों पर टांग कर गांवों में अपनी बहादुरी की नुमाइश करते हुये घुमाया गया।

* सूखे कूँयों में लकड़ियां डाल कर आग लगा देना और फिर एक-एक कर के हिन्दुओं और सिखों को उस आग में फेंकते जाना पाकिस्तान की मांग करने वाले उन नापाक इख़लाक़ वाले दरिन्दों के लिये महज़ दिल ख़ुश करने का एक ज़रीया था।

* मेरा मक़सद उन शहीदों की तादाद बताना नहीं है। उनकी तादाद बताई ही नहीं जा सकती। मेरे तो बस दो ही मक़सद हैं। पहला यह कि आज के लोगों को और आगे आने वाली नस्लों को पता चले कि हमारे बुज़ुर्गों ने कैसे-कैसे ज़ुल्म सहे। दूसरा यह कि इस तरह मैं उन सभी शहीदों को श्रद्धांजलि दे देता हूँ। उनको मैं और दे भी क्या सकता हूँ? उनको कुछ देने की मेरी औक़ात ही नहीं है। जुड़े हाथों से, आँखों में आँसू भर के उनकी कोई बात ही सुना सकता हूँ बस।

* ओ धर्म के शहीदो! आप ही मेरे देव-देवियों हो। आप ही मेरे पित्र हो। आपको अर्पण करने के लिये मेरे पास इन दो गुनाहगार आँखों से छलकते आँसू ही हैं बस। ये आँसू ही कबूल करके मुझे देवऋण और पित्रऋण से मुक्त करो।

* मार्च के क़त्लेआम के बाद भी पोठोहार में ही रुके रहे सभी बचे हुये हिन्दुओं और सिखों को वहां से निकालकर महफ़ूज़ इलाके में लाया जा सकता था। लेकिन इन लोगों को यही कहा जाता रहा कि पाकिस्तान नहीं बनेगा। इनको यही सलाह दी जाती रही कि उनको अपने घर-जायदाद छोड़कर कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है।

* भारत में रिफ्यूजी कैम्प्स में पहुँचे लोगों के बयान लिखे तो गये, लेकिन सँभाले नहीं गये। भारत सरकार ने 1948 में जो फैक्ट फाइंडिंग आर्गेनाईजेशन बनाई, उसने हिन्दू, सिख रिफ्यूजीज़ की आंखों देखी बहुत बातों को भी यह कह कर रिजेक्ट कर दिया था कि यह बढ़ा चढ़ा कर बताई गई बातें हैं या इनके कोई सबूत नहीं हैं। भारत सरकार को सबूत कौन देता? पाकिस्तान सरकार? पाकिस्तान की उस वक़्त की सरकार के मुताबिक तो 1947 में हिन्दुओं सिखों का क़त्लेआम हुआ ही नहीं था।

* मिंटगोमरी ज़िले से उजड़ कर भारत आये रिफ्यूजी मदन लाल पाहवा के ख़ानदान के 20 लोग भारत पहुँचने से पहले ही रास्ते में क़त्ल कर दिये गये। कांग्रेसी बाप का बेटा था मदनलाल। ग़ुस्से में भरा मदन लाल पाहवा 20 जनवरी, 1948 को दिल्ली में गान्धीजी को क़त्ल करने पहुँच गया था। गान्धीजी के नज़दीक नहीं पहुँच पाया। कुछ मीटर की दूरी पर ही बम्ब फोड़ डाला। कोई नहीं मरा। 10 दिन बाद नाथूराम गोडसे ने गान्धीजी को क़त्ल किया। पाहवा को जेल हुई। 14 नवम्बर, 1964 को वो जेल से छूटा। मरते दम तक उसको अफ़सोस रहा कि वो गान्धीजी का क़त्ल नहीं कर सका।

* क्या भारत सरकार पाहवा जैसे रिफ्यूजीज़ के बयानों को झूठा साबित करने के लिये ही हिन्दू, सिख रिफ्यूजीज़ की आंखों देखी बातों को भी यह कह कर रिजेक्ट कर रही थी कि यह बढ़ा चढ़ा कर बताई गई बातें हैं या इनके कोई सबूत नहीं हैं? या सिर्फ़ इसलिये कि गान्धीजी के क़त्ल की वजह से सरकार हिन्दू, सिख रिफ्यूजीज़ पर ग़ुस्सा उतार रही थी? क्या सरकार की सारी कोशिश इसी बात को साबित करने पर थी कि हिन्दू-सिख क़त्लेआम के लिये गान्धीजी या नेहरू जी या कांग्रेस पार्टी ज़िम्मेदार नहीं थी, और इसीलिए हिन्दू-सिख क़त्लेआम की बातों को दबाने की काफ़ी हद तक कामयाब कोशिश की गई?

* जिसके ख़ानदान के 20 बेगुनाह लोग क़त्ल कर दिये गये, उससे सबूत मांगोगे? मांगो। वो बम फोड़ेगा। बम फोड़ना ग़लत है। उसी तरह, उन हालात में रिफ्यूजी से सबूत माँगना भी ग़लत है।