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स्वामी निगमानंद जी का बलिदान

आम जनता के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ बहुत रोष है. यही वजह थी कि गाँधीवादी अन्ना हजारे की अगुवाई वाले आन्दोलन को इसके शुरूआती पड़ाव में भारी स्मर्थन मिला. बाद में, जल्द ही यह ‘अहिंसक’ संघर्ष अपनी तेज़ धार गंवाता-सा लगने लगा.

जब इस संघर्ष ने अभी अपने शीर्ष की तरफ़ बढ़ना शुरू किया ही था, योगाचारिया रामदेव को इस विशाल दृश्य में प्रवेश करते देखा गया. कुछ विचारवानों ने रामदेव जी के इस प्रवेश को अन्ना हजारे के समाजिक कद्द को छोटा करने की सरकारी चाल का हिस्सा समझा. कुछ भी था, एक बार तो सारे मीडिया की नज़र का केन्द्र-बिंदु हजारे न हो कर रामदेव बन गए. जैसे ही रामदेव जी ने सरकार को टरकाने का यत्न किया, सरकार ने उस गुप्त पत्र को ज़ाहिर कर दिया, जिस से स्पष्ट हो रहा था कि रामदेव अपने आमरण अन्नशन के आरम्भ से पहले ही सरकार से समझौता कर चुके थे. तैश में आये रामदेव जी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में अपना आमरण अन्नशन शुरू कर दिया. कई लोगों ने सोचा कि ‘क्रान्तिकारी-सा’ लगने का प्रयत्न करता हुआ यह सन्यासी अपनी मांगें पूरी होने तक आमरण अन्नशन जारी रखेगा.

वक्त की सरकार से टक्कर लेना हर किसी के बस का खेल नहीं होता. आधी रात को जब पुलिस रामदेव जी के आमरण अन्नशन वाले पंडाल में दाखिल हुई, तो रामदेव जी ने स्टेज से छलाँग लगाने में देरी न की. विश्व ने ‘क्रान्तिकारी’ विचारों का प्रचार करने वाले रामदेव जी को अपनी किसी चेली की सलवार कमीज़ पहन एक औरत का भेष धारण कर के भागने की कोशिश करते हुए देखा. हालाँकि रामदेव जी की यह कोशिश निष्फल ही रही और पुलिस ने लोक-संघर्ष के इस भगौड़े को हरिद्वार स्थित उस के आश्रम में पहुंचा दिया.

रामदेव जी ने वहाँ पहुँच कर भी आमरण अन्नशन जारी रखने का ऐलान कर डाला. शीघ्र ही, संसार ने आमरण अन्नशन पर बैठे रामदेव जी को निम्बू-पानी पीते हुए देखा. यह भी ज़्यादा देर तक न चला और रामदेव जी ने ऋषिकेश के नज़दीक एक हस्पताल में ‘श्री श्री’ रविशंकर के हाथों फलों का रस पी कर आखिर इस अधकचरे-से आमरण अन्नशन से भी किनारा कर लिया.

जब ऋषिकेश के नज़दीक एक हस्पताल में रामदेव जी अपना कथित आमरण अन्नशन तोड़ रहे थे, उसी हस्पताल में स्वामी निगमानंद जी एक मर्द की भान्ति अपने वचन पर कायम रहते हुए अपना आमरण अन्नशन जारी रख रहे थे. वह गंगा नदी में जारी गैर-क़ानूनी खुदाई और प्रदूषण के खिलाफ़ फ़रवरी १८, २०११ से आमरण अन्नशन पर बैठे थे. स्वामी निगमानंद जी ने पहले भी जनवरी २०, २०११ से अप्रैल २००८ तक गंगा में जारी गैर-क़ानूनी खुदाई और प्रदूषण के खिलाफ़ आमरण अन्नशन किया था, जिसके फलस्वरूप इस खुदाई पर पाबंदी लग गयी थी. कुछ ही समय बाद यह पाबन्दी फिर हटा ली गयी थी.

रामदेव तो फलों का रस पी कर हस्पताल से चले गए, परन्तु कुछ ही घन्टों के बाद स्वामी निगामानंद जी ने ११५ दिन तक आमरण अन्नशन जारी रखते हुए जून १३, २०११ को अन्तत उसी हस्पताल में शहाद्द्त का जाम पी लिया. (http://www.tribuneindia.com/2011/20110614/main7.htm)

बस, यही मौका था जब मुझे भाई दर्शन सिंघ फेरुमान याद आये. स्टेज पर बैठ कर लोगों को भाषण सुना देना और बात है, और भाई दर्शन सिंघ फेरुमान की (http://www.sikh-history.com/sikhhist/personalities/sewadars/pheruman.html) तरह आमरण अन्नशन पर बैठे-बैठे बलिदान दे देना और बात है.

स्वामी निगमानंद जी के बलिदान ने यह सिद्ध कर के दिखा दिया है कि भारत-भूमि पर अभी भी वचन के बली शूरवीर साधू और धार्मिक जीव मौजूद हैं, जिन के लिये अपने प्राणों को बचाने से ज़्यादा ज़रूरी अपना वचन पूरा करना है.

– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

भाई मती दास का स्मरण करते हुए…

दाँत का दर्द भी बहुत दुखदायक होता है, यह मुझे बस कुछ-ही दिन पहले अच्छी तरह से समझ में आया. कुछ सप्ताह पहले मुझे अपनी नीचे वाली बांयी दाढ़ में दर्द महसूस होना शुरू हुआ. कुछ ही दिनों में यह दर्द तेज़ होने लगा. फिर, एक दिन जब मैं गुरुवाणी का सहज पाठ कर रहा था, तो यह दर्द सहन करना मुश्किल हो गया. सिर्फ २० मिनटों बाद ही मैंने गुरुवाणी की पोथी सुखासन कर के रख दी. दर्द बहुत ज़्यादा था.

शाम को जब मैं दाँतों के चिकित्सक के पास चेक-अप के लिये गया, तो मैंने उन्हें कहा, “न जाने कैसे, भाई मती दास जी ने आरे से चीरे जाने का दर्द सहन करते हुए श्री जपुजी साहिब का पाठ सम्पूर्ण किया होगा?”

भाई मती दास जी का बलिदान

खैर, चिकित्सक ने मुआयना करने के बाद बताया कि १० दाँतों कि फिलिंग करने की आवश्यकता है, पर इस से बड़ी बात यह थी कि दो अक्ल-दाढ़ों को भी निकालने की ज़रूरत थी. यह अक्ल-दाढ़ें अलग-अलग दिन निकली जानी थी और ऐसा करने के लिये एक चीरा लगाया जाना था.

दाँतों की फिलिंग करा कर और पहली अक्ल-दाढ़ को निकलने का दिन और वक्त मुकर्रर कर के मैं घर तो लौट आया, परन्तु भाई मती दास द्वारा आरे से चीरे जाने का दर्द सहते हुए श्री जपुजी साहिब का पाठ सम्पूर्ण करना मेरे ख्याल में वैसे ही छाया रहा.

निर्धारित समय पर मैं अपने घर से १२-१३ किलोमीटर दूर स्थित इस डेन्टल-क्लिनिक पर अपने मोटर-साईकिल से पहुंचा, क्योंकि मेरे घर के नज़दीक रास्ता खराब होने की वजह से कार नहीं निकल सकती थी. दो चिकित्सकों ने लगभग सवा घंटा लगा कर बड़ी मेहनत से मेरी दर्द करने वाली अक्ल-दाढ़ को एक छोटे से आप्रेशन से निकाल कर टाँके लगा दिए.

दाढ़ तो निकलवा ली थी, परन्तु अब खुद मोटर-साईकिल चला कर वापस १२-१३ किलोमीटर दूर घर भी पहुंचना था. अभी चिकित्सक की लिखी दवा भी खरीदनी थी और पीने के लिये फलों आदि का रस भी, क्योंकि दाढ़ निकलवाने के बाद कुछ दिनों तक कुछ सख्त चीज़ खाना तो नामुमकिन ही था. जैसा कि पहले भी कई बार हुआ, मैंने इस संसार में अकेले रहने का कष्ट फिर महसूस किया.

डेन्टल-क्लिनिक से बाहर आ कर मैंने एक बार फिर भाई मती दास जी का स्मरण किया. मुझे कुछ हौसला महसूस हुआ. मैंने नज़दीक ही एक कैमिस्ट से चिकित्सक की लिखी दवा खरीदी. याद आया कि मोटरसाईकिल में पैट्रोल भी डलवाना है. पैट्रोल डलवा कर, पीने के लिये फलों का रस आदि ले कर मैं लगभग एक घंटे बाद अपने घर जा पहुंचा. जैसा कि पंजाबी की एक कहावत है, ‘जो सुख छज्जू दे चौबारे, वह बलख न बुखारे’.

घर पहुँचने तक निकाली गयी दाढ़ वाली जगह पर दर्द बहुत ही तेज़ हो गया. भाई मती दास जी के बलिदान की घटना मेरे ख्यालों में और गहरी उतरने लगी. बड़ी मुश्किल से मैंने दर्द-निवारक दवा ली और बिस्तर पर पसर गया.

चाहे मैं बिस्तर पर आँखें बंद कर के पड़ा हुआ था, पर मुझे ऐसे लग रहा था, जैसे मैं भाई मती दास जी को आरे से चीरे जाते श्री जपुजी साहिब का पाठ करते देख रहा था. ख्यालों का भी अजब नज़ारा होता है. ख्यालों की भी अपनी ही शक्ति होती है.

मैं आहिस्ता-आहिस्ता उठ कर बैठ गया और मन ही मन श्री जपुजी साहिब का पाठ शुरू कर दिया. पाठ करते भी गुरु के उस महान शिष्य का ख्याल दिमाग में रहा, जो श्री सद्गुरु तेग बहादुर साहिब जी की तरफ चेहरा कर के बलिदान करने की अपनी इच्छा को पूरी करवा कर गुरु की नगरी में जा विराजमान हुआ. आरे के नीचे बैठ कर उस ने जपुजी साहिब का पाठ कर वह आनन्द प्राप्त कर लिया, जो मेरे जैसे इन्सान एयर-कंडीशनड कमरे में भी पाठ कर के नहीं प्राप्त कर सकते.

धन्य धन्य सद्गुरु तेग बहादुर साहिब जी के इस शिष्य का स्मरण करते हुए मुँह से सिर्फ यही निकलता है, “धन्य धन्य भाई मती दास जी, धन्य धन्य भाई मती दास जी.”

– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’