भाई मती दास का स्मरण करते हुए…

दाँत का दर्द भी बहुत दुखदायक होता है, यह मुझे बस कुछ-ही दिन पहले अच्छी तरह से समझ में आया. कुछ सप्ताह पहले मुझे अपनी नीचे वाली बांयी दाढ़ में दर्द महसूस होना शुरू हुआ. कुछ ही दिनों में यह दर्द तेज़ होने लगा. फिर, एक दिन जब मैं गुरुवाणी का सहज पाठ कर रहा था, तो यह दर्द सहन करना मुश्किल हो गया. सिर्फ २० मिनटों बाद ही मैंने गुरुवाणी की पोथी सुखासन कर के रख दी. दर्द बहुत ज़्यादा था.

शाम को जब मैं दाँतों के चिकित्सक के पास चेक-अप के लिये गया, तो मैंने उन्हें कहा, “न जाने कैसे, भाई मती दास जी ने आरे से चीरे जाने का दर्द सहन करते हुए श्री जपुजी साहिब का पाठ सम्पूर्ण किया होगा?”

भाई मती दास जी का बलिदान

खैर, चिकित्सक ने मुआयना करने के बाद बताया कि १० दाँतों कि फिलिंग करने की आवश्यकता है, पर इस से बड़ी बात यह थी कि दो अक्ल-दाढ़ों को भी निकालने की ज़रूरत थी. यह अक्ल-दाढ़ें अलग-अलग दिन निकली जानी थी और ऐसा करने के लिये एक चीरा लगाया जाना था.

दाँतों की फिलिंग करा कर और पहली अक्ल-दाढ़ को निकलने का दिन और वक्त मुकर्रर कर के मैं घर तो लौट आया, परन्तु भाई मती दास द्वारा आरे से चीरे जाने का दर्द सहते हुए श्री जपुजी साहिब का पाठ सम्पूर्ण करना मेरे ख्याल में वैसे ही छाया रहा.

निर्धारित समय पर मैं अपने घर से १२-१३ किलोमीटर दूर स्थित इस डेन्टल-क्लिनिक पर अपने मोटर-साईकिल से पहुंचा, क्योंकि मेरे घर के नज़दीक रास्ता खराब होने की वजह से कार नहीं निकल सकती थी. दो चिकित्सकों ने लगभग सवा घंटा लगा कर बड़ी मेहनत से मेरी दर्द करने वाली अक्ल-दाढ़ को एक छोटे से आप्रेशन से निकाल कर टाँके लगा दिए.

दाढ़ तो निकलवा ली थी, परन्तु अब खुद मोटर-साईकिल चला कर वापस १२-१३ किलोमीटर दूर घर भी पहुंचना था. अभी चिकित्सक की लिखी दवा भी खरीदनी थी और पीने के लिये फलों आदि का रस भी, क्योंकि दाढ़ निकलवाने के बाद कुछ दिनों तक कुछ सख्त चीज़ खाना तो नामुमकिन ही था. जैसा कि पहले भी कई बार हुआ, मैंने इस संसार में अकेले रहने का कष्ट फिर महसूस किया.

डेन्टल-क्लिनिक से बाहर आ कर मैंने एक बार फिर भाई मती दास जी का स्मरण किया. मुझे कुछ हौसला महसूस हुआ. मैंने नज़दीक ही एक कैमिस्ट से चिकित्सक की लिखी दवा खरीदी. याद आया कि मोटरसाईकिल में पैट्रोल भी डलवाना है. पैट्रोल डलवा कर, पीने के लिये फलों का रस आदि ले कर मैं लगभग एक घंटे बाद अपने घर जा पहुंचा. जैसा कि पंजाबी की एक कहावत है, ‘जो सुख छज्जू दे चौबारे, वह बलख न बुखारे’.

घर पहुँचने तक निकाली गयी दाढ़ वाली जगह पर दर्द बहुत ही तेज़ हो गया. भाई मती दास जी के बलिदान की घटना मेरे ख्यालों में और गहरी उतरने लगी. बड़ी मुश्किल से मैंने दर्द-निवारक दवा ली और बिस्तर पर पसर गया.

चाहे मैं बिस्तर पर आँखें बंद कर के पड़ा हुआ था, पर मुझे ऐसे लग रहा था, जैसे मैं भाई मती दास जी को आरे से चीरे जाते श्री जपुजी साहिब का पाठ करते देख रहा था. ख्यालों का भी अजब नज़ारा होता है. ख्यालों की भी अपनी ही शक्ति होती है.

मैं आहिस्ता-आहिस्ता उठ कर बैठ गया और मन ही मन श्री जपुजी साहिब का पाठ शुरू कर दिया. पाठ करते भी गुरु के उस महान शिष्य का ख्याल दिमाग में रहा, जो श्री सद्गुरु तेग बहादुर साहिब जी की तरफ चेहरा कर के बलिदान करने की अपनी इच्छा को पूरी करवा कर गुरु की नगरी में जा विराजमान हुआ. आरे के नीचे बैठ कर उस ने जपुजी साहिब का पाठ कर वह आनन्द प्राप्त कर लिया, जो मेरे जैसे इन्सान एयर-कंडीशनड कमरे में भी पाठ कर के नहीं प्राप्त कर सकते.

धन्य धन्य सद्गुरु तेग बहादुर साहिब जी के इस शिष्य का स्मरण करते हुए मुँह से सिर्फ यही निकलता है, “धन्य धन्य भाई मती दास जी, धन्य धन्य भाई मती दास जी.”

– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’