आशा रखना ही सबसे बड़ा दुख है

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

अवधूत दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को उपदेश करते हुये कहा था: –

आशा हि परमं दु:खं
नैराश्यम परमं सुखम।।

आशा रखना ही सबसे बड़ा दुख है और आशा-रहित होना ही सबसे बड़ा सुख है।

बात बड़ी गहरी है।

किसी वस्तु आदि की आशा करते करते, यदि वह मिल भी जाये, तो मन कहता है कि इसमें ख़ास क्या? यह तो मिलनी ही थी। इस की तो पहले से ही पूरी-पूरी आशा थी। कथित सुख मिलने पर भी भीतर से ख़ुशी न-हुई-सी ही हुई।

किसी वस्तु आदि की आशा करते करते, यदि वह न मिली, तो दुख ही दुख महसूस होता है। मन कहता है कि मैं इतनी आशा लगा कर बैठा था। यह तो मेरा अधिकार था। दुख है, बहुत दुख है कि यह मुझे नही मिली।

यदि किसी वस्तु आदि की आशा की ही न गई हो, और वस्तु न मिले, तो दुख कैसा? और, यदि किसी वस्तु आदि की आशा की ही न गई हो, फिर भी वह मिल जाये, तो क्या कहना ! आशा न की थी, नैराश्य रहे, और दुख से बचे रहे।