मैं ये विडियो-सीरीज़ क्यों बना रहा हूँ? । पाकिस्तान की स्थापना ।

#ख़ून_से_लेंगे_पाकिस्तान ।
#पाकिस्तान_की_स्थापना ।
#हिन्दू_सिख_क़त्लेआम ।

इस विडियो के ख़ास नुक्ते इस प्रकार हैं: –

* मुझे यह सवाल पूछा गया है कि क़याम-ए-पाकिस्तान पर, पाकिस्तान की स्थापना पर मैं वीडिओज़ क्यों बना रहा हूँ, जबकि मैं तो सिर्फ़ धर्म की बात करने वाला आदमी हूँ।

* पाकिस्तान की बुनियाद ही मज़हब के नाम पर रखी गई थी। धर्म जोड़ता है। सियासत तोड़ती है। लेकिन लोगों को एक-दूसरे से तोड़ने वाली सियासत ख़ुद मज़हब का या धर्म का नक़ाब पहन लेती है। अपने ही बाप को किले में क़ैद कर के, अपने ही भाइयों के क़त्ल करके तख़्त पर बैठा औरंगज़ेब सियासत है। अपने उसूलों पर क़ायम रहते हुये अपना सिर भी कटा देने वाला सरमद धर्म है।

* ऐसा क्यों है कि भारत में भी और पाकिस्तान में भी 1947 के क़त्लेआम के ज़िम्मेदार लोगों की निशानदेही करने से बचा जाता रहा है? आख़िर वो लोग कौन थे, जो बेगुनाहों के क़त्ल कर रहे थे? वो लोग कौन थे, जो अग़वा और बलात्कार कर रहे थे? जो लुटेरे थे, वो आख़िर कौन लोग थे? और सबसे ज़रूरी बात, आख़िर यह क़त्लेआम किये ही क्यों गये थे?

* तवारीख़ को इस लिये नहीं लिखा जाता कि दूसरों को इलज़ाम दिया जाये, बल्कि तवारीख़ तो इसलिये लिखी जाती है कि हम उससे कुछ सबक़ हासिल कर सकें। अगर तवारीख़ को ग़लत तरीके से लिखा जायेगा, तो ऐसी तवारीख़ से हासिल सबक़ भी ग़लत ही होंगे। ये ग़लत सबक़ हमें फिर से ग़लत राहों पर डाल देंगे।

* तवारीख़ के उस दौर में न नेहरू जी का कोई मरा, न जिन्नाह साहिब का। लेकिन जो तवारीख़ लिखी गई, वो या तो नेहरू वालों ने लिखी, या जिन्नाह वालों ने। जो मरे, जो लुटे, जो उजड़े, जो यतीम हुये, उनकी तवारीख़ तो अलग है। मैं तो इन्हीं मज़लूमों के नुक़्तानिगाह से बात करता हूँ। सियासत को दरकिनार करके, मज़हबी चश्मे को अपनी आँखों से हटा कर, कोई उन लाखों मज़लूमों को इन्सानियत के नज़रिये से भी तो समझे।

* जो लोग उस दौर में मुसलमानों को चुन-चुन कर मार रहे थे, उनके वारिसों में से अब किसी को हिन्दू अच्छे नहीं लगते, किसी को सिख अच्छे नहीं लगते। उस दौर में जो सिखों का क़त्लेआम कर रहे थे, उनके वारिस आज के सिख को समझा रहे हैं कि हिन्दू तुम पर ज़ुल्म कर रहा है। हिन्दू को कहा जा रहा है कि हर सिख खालिस्तानी है, हिन्दुओं का दुश्मन है। हिन्दुओं में कई और जोगिन्दर नाथ मण्डल पैदा करने की कोशिशें हो रही हैं।

* उन्हीं लोगों के वारिस ही तो हैं ये सब, जो ऐसा कर रहे हैं। नसल ही बदली है। उनकी रगों में बहती नफ़रत वही है। इनके पास भी मज़हबी जनून की वही आँखें हैं, जो इनके बड़ों के पास थीं। इनके लहू में बहती नफ़रत इन्हें ऐसा बना चुकी है कि यह मुहब्बत कर ही नहीं सकते। जिनको ज़हर अच्छा लगता है, उनको अमृत बुरा ही लगेगा।

उनका जो फ़र्ज़ है, वो अहल-ए-सियासत जानें,
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।