छत्री ब्रहमन रहा न कोई

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

जब भी किसी निर्दोष की हत्या होती है, वह एक गलत कार्य होता है। निर्दोष का अर्थ है, ‘जिस का दोष न हो’। ‘निर्दोष’ के अर्थ में यह शामिल नही होता कि वह हिन्दू है या मुस्लिम, सिख है या ईसाई। चाहे गोधरा की घटना हो, या पंजाब की घटनाएँ हो, दिल्ली, असम, कश्मीर, बांग्लादेश या पाकिस्तान हो, निर्दोष को हुआ कोई भी नुकसान निंदनीय ही होता है।

कोई एक गलत कार्य किसी दूसरे गलत कार्य को सही साबित नही कर सकता। गोधरा में निर्दोषों की हत्याएँ पूरे गुजरात में हुये मुसलमानों के कत्ल-ए-आम को जायज़ करार नही दे सकतीं।

निर्दोष, निहत्थे, मासूम बच्चों, औरतों और मर्दों की हत्या करना एक घृणित अपराध है। ‘यह गलत क्यों है?’, यह वही समझ सकता है, जिसने सच्चे ‘क्षत्रिय धर्म’ को जान लिया हो। ‘क्षत्रिय धर्म’ जानने वाले को पता था कि सीता जी के हर्ण का बदला किस से लेना है। क्या हनुमान जी के लिए यह मुश्किल था कि वह रावण के परिवार को एक कमरे में बंद कर के आग लगा देते? युद्ध करने की ज़रूरत ही न होती। ‘क्षत्रिय धर्म’ जानने वाले को पता था कि ऐसा करना एक घृणित अपराध है। भला, रावण के अपराध करने से मंदोदरी का दोषी होना कैसे सिद्ध होता है? भला, रावण के अपराध के लिए मंदोदरी को सज़ा कैसे दी जा सकती थी? सज़ा तो रावण को ही मिलनी चाहिए थी। यह बात ‘क्षत्रिय धर्म’ जानने वालों को पता थी। इसीलिए, उन्होने वही किया, जो ‘क्षत्रिय धर्म’ के अनुसार करना चाहिए था।

निर्दोष को नही, बल्कि अपराधी को ही सज़ा देना ‘क्षत्रिय धर्म’ के अनुसार है।

चलो छोड़ो, यह मान लेते हैं कि आज ‘क्षत्रिय धर्म’ भी ‘ब्राह्मण धर्म’ की भांति दुर्लभ हो गया है। गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने भी तो लिख ही दिया, “छत्री जगति न देखीऐ कोई” (कलकी अवतार, श्री दशम ग्रंथ जी)।

और,

“छत्री ब्रहमन रहा न कोई ॥” (कलकी अवतार, श्री दशम ग्रंथ जी)।

चलो, मान लेते हैं कि “एक एक ऐसे मत कै है।। जा ते प्रापति शूद्रता होए है॥” (कलकी अवतार, श्री दशम ग्रंथ जी)।

किन्तु, जो कार्य न तो ‘ब्राह्मण धर्मा’ हो और न ही ‘क्षत्रिय धर्मा’, (बल्कि इसके विपरीत ही हो), उसकी प्रशंसा तो ‘ब्राह्मण’ और ‘क्षत्रिय’ पुरुषों के वंशज न करें।