#पाकिस्तान_की_स्थापना । #हिन्दू_मुसलमान_सिख ।
इस विडियो के मुख्य नुक्ते इस प्रकार हैं: –
* 1937 में हुये लेजिस्लेटिव assemblies के इलेक्शन्स में इण्डियन नेशनल कांग्रेस ने अलग-अलग प्रोविंसेज़ में 1585 में से 707 सीटें हासिल कीं। आल इण्डिया मुस्लिम लीग को सिर्फ़ 106 सीटें मिलीं।
* कांग्रेस 8 प्रोविंसेज़ में कामयाब रही। बंगाल, पंजाब, और सिन्ध ही ऐसे तीन सूबे थे, जहां कांग्रेस को अपनी मिनिस्ट्री बनाने में कामयाबी नहीं मिली थी। लेकिन, मुस्लिम लीग तो किसी भी प्रोविन्स में अपनी मिनिस्ट्री बनाने में नाकामयाब रही थी।
* 1937 में मुस्लिम लीग की टिकट पर जीतने वाले मुसलमानों से ज़्यादा तादाद उन मुसलमानों की थी, जो दूसरी पार्टीज़ की टिकट पर जीते या जो इंडिपेंडेंट canditates के तौर पर जीते थे।
* नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स में इण्डियन नेशनल कांग्रेस ने 50 में से 19 सीटें जीतीं थी। नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स की लेजिस्लेटिव असेम्बली में मुस्लिम लीग का कोई मेम्बर नहीं थी। वहां कांग्रेस ने ही अपनी मिनिस्ट्री बनाई।
* सिन्ध में 72 फ़ीसद आबादी मुसलमानों की थी। सिन्ध की 60 सीटों में से मुस्लिम लीग एक भी सीट नहीं जीत पाई। सिन्ध यूनाइटेड पार्टी को 22 और कांग्रेस को 8 सीटें मिलीं।
* यूनियनिस्ट पार्टी के सर सिकन्दर हयात खान 1937 से 1942 तक संयुक्त पंजाब के चीफ़ मिनिस्टर रहे।
* कांग्रेस ने पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी की मिनिस्ट्री की सख़्त मुख़ालफ़त करनी शुरू की। अपने भाषणों में पण्डित नेहरू अक्सर सर सिकन्दर हयात खान को ब्रिटिश हुकूमत का दरबारी कहते। मुहम्मद अली जिन्नाह और आल इण्डिया मुस्लिम लीग की रहनुमाई पर भी वो सवाल खड़े करते रहते।
* नेहरु के इस तरह सिकन्दर हयात खान और जिन्नाह के ख़िलाफ़ बोलते रहने से सिकन्दर हयात खान और जिन्नाह ने एक-दूसरे के क़रीब आने का फ़ैसला किया, ताकि नेहरू की चालों का मुक़ाबला किया जा सके। इसका नतीजा था कि मुस्लिम लीग के 1937 में हुये लखनऊ सैशन में सिकन्दर-जिन्नाह पैक्ट हुआ। फिर पंजाब का सियासी सीन बदलना शुरू हुआ।
* बाद में, पंजाब की मुस्लिम लीग ने महसूस किया कि सिकन्दर हयात खान मुस्लिम लीग की पंजाब में तरक़्क़ी को रोक रहे हैं। उन्होंने इसके ख़िलाफ़ जिन्नाह के पास शिकायत की। जिन्नाह बहुत दूर-अंदेश थे। उन्होंने सिकन्दर हयात खान के लिये मुश्किलें खड़ी करने की पण्डित नेहरू की ग़लती नहीं दुहराई। उन्होंने धीरज से काम लिया और मुस्लिम लीग के लोगों से कहा कि सिकन्दर हयात के साथ co-operation ही करते रहो। सिकन्दर हयात खान पंजाब में बहुत पॉपुलर थे। पण्डित नेहरू उनकी पॉपुलैरिटी को कम करके उनकी सरकार गिराना चाहते थे और जिन्नाह सिकन्दर की पॉपुलरटी को बचाये रखते हुये उससे मुस्लिम लीग के लिये फ़ायदा लेना चाहते थे।
* 1942 को गांधी जी ने Quit India Movement, भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने गांधीजी समेत कांग्रेस के लगभग सभी बड़े leaders को क़ैद कर लिया। ये सभी 1944 तक जेलों में ही बन्द रहे। जिन्नाह और मुस्लिम लीग के लिये मैदान ख़ाली था। अपना base बढ़ाने के लिये उनके पास यह बहुत बड़ा मौक़ा था। और, उन्होंने यह मौक़ा नहीं गवाया। बस फिर देखते ही देखते पाकिस्तान मूवमेंट ने ज़ोर पकड़ने लगी।
* सिकन्दर हयात खान की मौत के बाद 1942 में सर ख़िज़्र हयात टिवाणा पंजाब के चीफ मिनिस्टर बने। अब तक पंजाब असेम्बली के कई मुसलमान मेम्बरज़ मुस्लिम लीग के साथ हो चुके थे। मुस्लिम लीग ने टिवाणा पर दबाव बनाये रखा।
* यूनियनिस्ट पार्टी ऑफिशियली पाकिस्तान की मांग के ख़िलाफ़ थी। असेम्बली के सिख और हिन्दू यूनियनिस्ट मेम्बरज़ पाकिस्तान के ख़िलाफ़ खुल कर बोल रहे थे। ऐसे में मुस्लिम लीग चाहती थी कि पंजाब सरकार ऑफिशियली पाकिस्तान की स्थापना की हिमायत करे। टिवाणा ने ऐसा नहीँ किया, तो जिन्नाह ने यूनियनिस्ट मुस्लिम लीडरान को ग़द्दार कहना शुरू कर दिया। इससे यूनियनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग के सम्बन्ध बिगड़ गये।
* 1944 में सी राजगोपालाचार्य के फ़ॉर्मूले पर गांधी जी ने जिन्नाह से बॉम्बे में बातचीत शुरू कर दी। राजगोपालाचार्य का फ़ॉर्मूला बुनियादी तौर पर पाकिस्तान बनाये जाने की मांग को क़बूल करता था, लेकिन इसमें इस मुद्दे पर राय शुमारी कराये जाने की बात थी। रायशुमारी जिन्नाह को मन्ज़ूर नहीं थी, और इसी वजह से गांधी-जिन्नाह बातचीत ख़त्म हो गयी।
* पाकिस्तान बनने से सबसे ज़्यादा मुश्किलें सिखों को ही आनी थीं, क्योंकि उनकी आबादी का एक हिस्सा उस इलाके में रहता था, जहां पाकिस्तान बनने वाला था। सिखों के कितने ही इतिहासिक पवित्र गुरुद्वारे भी वहां थे। राजगोपालाचार्य फ़ॉर्मूले को एक्सेप्ट करके गांधी जी के जिन्नाह से बातचीत करने को अकाली दल के रहनुमा मास्टर तारा सिंघ ने कांग्रेस द्वारा सिखों से धोखा क़रार दिया।
* कोई कितनी भी सफाई देता फिरे, लेकिन 1944 में गांधी जी और जिन्नाह साहिब की मीटिंग के बाद यह साफ़ हो चुका था कि कांग्रेस पार्टी भी अब अलग पाकिस्तान की मांग के हक़ में थी।
* 1946 में हुये इलेक्शन्स में अलग-अलग सूबों में इण्डियन नेशनल कांग्रेस ने 1585 सीटों में से कुल 923 सीटें जीतीं। आल इण्डिया मुस्लिम लीग को 425 सीटें मिलीं, जबकि 1937 में उसे 106 सीटें ही मिलीं थीं। 9 साल में मुस्लिम लीग ने ऐसी सियासत खेली कि उसकी सीटों की गिनती चार गुना बढ़ गयी।
* सिन्ध में मुस्लिम लीग ने 27 सीटें हासिल कीं और 4 इंडिपेंडेंट मुस्लिम मेम्बरज़ की सपोर्ट से अपनी मिनिस्ट्री बनाई।
* 1946 के पंजाब में हुये elections में मुस्लिम लीग ने 75 seats पर जीत हासिल की और पंजाब लेजिस्लेटिव असेम्बली में सबसे बड़ी पार्टी बनी। कांग्रेस दूसरे नम्बर पर थी और अकाली दल तीसरे नम्बर पर था। यूनियनिस्ट पार्टी चौथे नम्बर पर रही।
* 1937 में जब यूनियनिस्ट पार्टी पंजाब में मैजोरिटी में थी, तो कांग्रेस यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार को गिराने की कोशिशें करती रही। अब, 1946 में जब यूनियनिस्ट पार्टी चौथे नम्बर पर थी, तो कांग्रेस इनकी सरकार बनाने की कोशिश में जुट गई। उधर मुस्लिम लीग असेम्बली में सबसे बड़ी पार्टी होने की वजह से अपनी मिनिस्ट्री बनाना चाहती थी। ऐसा उसका हक़ भी था।
* 2 अप्रैल, 1946 को जिन्नाह साहिब की एक मीटिंग सिख रहनुमाओं से रखी गई। सिखों की तरफ़ से इस में मास्टर तारा सिंघ, पटियाला के महाराजा याद्विंदर सिंघ, महाराजा याद्विंदर सिंघ के प्रधानमंत्री हरदित्त सिंघ मलिक, और ज्ञानी करतार सिंघ शामिल हुये थे। जिन्नाह साहिब ने सिखों को पाकिस्तान में शामिल होने के लिये राज़ी करने की कोशिश की। लेकिन, यह बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची।
* कांग्रेस, यूनियनिस्ट पार्टी और सिखों के बीच बातचीत होने के बाद ख़िज़्र हयात टिवाणा की रहनुमाई में यूनियनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और अकाली दल की मिनिस्ट्री बना दी गयी। इससे पंजाब में मुस्लिम लीग के हिमायती मुसलमानों में ज़बरदस्त ग़ुस्सा फैल गया। मुस्लिम लीग ने पंजाब की मिनिस्ट्री के ख़िलाफ़ मूवमेंट शुरू की। 1946 के आख़िर तक पंजाब में जगह-जगह पर दंगे होने शुरू हो गये। 1947 के शुरू तक हालात बहुत बिगड़ गये। आख़िर 2 मार्च, 1947 को ख़िज़्र हयात टिवाणा ने इस्तीफ़ा दे दिया।
* अगले दिन, 3 मार्च को लाहौर में असेम्बली हाल के बाहर अकाली रहनुमा मास्टर तारा सिंघ ने 400-500 सिखों के साथ हज़ारों पाकिस्तान के हिमायती मुसलमानों के सामने पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाये। उस दिन से लाहौर में मुसलमान दंगाबाज़ों और सिख दंगाबाज़ों के बीच ऐसे ख़ूनी दंगे शुरू हुये, जो पहले कभी नहीं हुये थे। यह दंगे पंजाब के और हिस्सों में भी फैल गये। रुक-रुक कर यह दंगे होते ही रहे। पाकिस्तान बनने तक और फिर उसके कुछ बाद तक दंगे और भयानक होते गये। इण्डिया में और जगहों पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो ही रहे थे। पंजाब में भी हिन्दू इन दंगों की गरिफ़्त में आ गये। मरने वालों की तादाद हज़ारों में नहीं, बल्कि लाखों में थी।
* हक़ीक़त यही है कि पंजाब के बिना पाकिस्तान नहीं बन सकता था। 1937 से 1947 तक का दस साल का वक़्त बड़ा ख़ास और नाज़ुक था। इस वक़्त में ही जिन्नाह की सियासत और डिप्लोमेसी की वजह से आल इण्डिया मुस्लिम लीग उस मुक़ाम तक पहुंची, जहां पाकिस्तान के क़याम से, पाकिस्तान की स्थापना से इस subcontinent का नक़्शा ही बदल गया। यह वो दौर था, जिसमें पण्डित नेहरू और गांधी जी ने वो सियासी ग़लतियाँ कीं, जिनके नतीजे में भारत को यूनाइटेड रखना, अखण्ड रखना नामुमकिन हो गया।