हर भाषा की अपनी संस्कृति है

कल अपनी निजी डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ रहा था। ख़्याल आया कि जब कभी मेरे बाद कोई इन्हें पढ़ेगा, तो ज़्यादातर हिस्सा उसको समझ ही नहीं आएगा। मैंने बातें इशारों में लिखी हैं, जिन के मायने समझने किसी के लिये आसान नहीं होंगे। बल्कि, ग़लत समझे जाने की गुंजाइश ज़्यादा है।

जब मैं पंजाबी में मास्टर्स की पढ़ाई कर रहा था, तो एक बार एक प्रोफ़ैसर साहिब ने पढ़ाते हुये कहा था कि एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में बिल्कुल परफ़ैक्ट अनुवाद सम्भव ही नहीं है।

डॉक्टर एच. के. लअल चण्डीगढ़ में हमें उर्दू पढ़ाया करते थे। वे कहते थे कि भाषा सिर्फ़ शब्दों का संग्रह और ग्रामर की बन्दिश ही नहीं होती, बल्कि उस का अपना अलग कल्चर भी होता है। उस कल्चर को जाने-समझे बिना उस भाषा के साहित्य को ठीक से समझा नहीं जा सकता।

यह जो कल्चर है, इस का दूसरे कल्चर में अनुवाद करना बहुत मुश्किल है। साहित्य की किसी रचना का अक्सर भाषाई अनुवाद ही किया जाता है। भाषाई अनुवाद में मूल साहित्यिक रचना का एक अंदाज़ा-सा ही लगता है, पूर्ण रूप से दर्शन नहीं होते।

मैंने ख़ुद कई रचनाओं के मूल को भी पढ़ा है और उनके किसी भाषाई अनुवाद को भी। दोनों में स्पष्ट फ़र्क़ दिखाई पड़ता है।

ऐसा मैंने गुरुवाणी के अनुवाद में तो बहुत ज़्यादा शिद्दत से महसूस किया है। गुरुवाणी का भाषाई अनुवाद बुद्धिजीवी और पेशेवर कथावाचक करते तो हैं, पर गुरुवाणी का भीतरी भाव उन की पकड़ से बाहर रह जाता है। दूसरे धर्मों के ग्रन्थों के अनुवाद के बारे में भी बिल्कुल यही बात कही जा सकती है।

कोई व्यक्ति हमारी ही भाषा में, हमारे ही सामने, हमें ही मुख़ातिब होते हुये कुछ कहे, तो भी सम्भव है कि उस की बात को हम अन्यथा ले लें। फिर दूसरे कल्चर की भाषा के अनुवाद की तो बात ही क्या!

बहुत लम्बे अरसे से उर्दू शायरों ने सरकारी लाठी की मार से बचने के लिये #शायरी, ख़ास तौर पर #ग़ज़ल का इस्तेमाल अपनी बात पोशीदा ढंग से कहने के लिये किया है। हर भाषा की तरह उर्दू की भी अपनी अलग संस्कृति है। किसी भी भाषा को उसकी संस्कृति से अलग कर के नहीं समझा जा सकता। उर्दू के बारे में भी यही बात है।

बहुत भारतीय लोग उर्दू की शायरी पसन्द करते हैं। उन में से कई उर्दू के ग्रुप्स भी चला रहे हैं। लेकिन, ये ग्रुप्स चलाने वाले मुख्यतः देवनागरी लिपि में उर्दू पढ़ने वाले लोग हैं, वह भी कुछ प्रसिद्ध उर्दू शायरी के शौक़ीन। उनको उर्दू की गहरी शायरी की शायद समझ नहीं है। उन के लिये उर्दू शायरी का मतलब बस इश्किया शायरी से है।

मैं भी ऐसे ग्रुप्स में कभी बहुत ऐक्टिव रहता था। तब मैं अपनी फेसबुक वॉल पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ ग्रुप्स में ही उर्दू की शायरी शेयर (share) करता था।

एक बार मैंने शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ का यह शेअर उन्हीं कुछ ग्रुपों में शेयर किया था:-

बाक़ी है दिल में शैख़ के हसरत गुनाह की।
काला करेगा मुँह भी जो दाढ़ी सियाह की।

– शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

(शैख़ [धार्मिक रहनुमा] के दिल में गुनाह करने की इच्छा अभी बाक़ी है। अगर इस ने अपनी दाढ़ी काली की, तो यह अपना मूँह भी काला करेगा)।

باقی ہے دل میں شیخ کے حسرت گناہ کی
کالا کرے گا منہ بھی جو داڑھی سیاہ کی

شیخ ابراہیم ذوقؔ

अब हुआ यह कि ग्रुप एडमिन्स (group admins) इस शेअर से घबरा गये। उन को लगा कि यह शेअर किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकता है। सभी ने मेरी वह पोस्ट हटा दी।

ऐसा उन की उर्दू संस्कृति के प्रति अज्ञानता की वजह से हुआ।

दाढ़ी सियाह करना, अर्थात, अपनी दाढ़ी के बाल काले करना इस्लाम में मना है। सिख पन्थ में भी यही स्थिति है। ‘शैख़’, यानि धार्मिक रहनुमा होकर भी अगर कोई अपनी दाढ़ी काली कर रहा है, तो इसका मतलब उस के मन में गुनाह करने की इच्छा है। गुनाह करेगा, तो अपना मूँह भी काला करेगा।

यह शेअर लिख कौन रहा है? ‘शेख़ इब्राहीम ज़ौक़’, जो जाति से ख़ुद ‘शेख़’ भी हैं और मुसलमान भी।

तो, एक बहुत गहरे शेअर को इस लिये समझा नहीं जा सका, क्योंकि उस शेअर की भाषा की संस्कृति से वे लोग अनजान थे।

(यही वजह थी कि मैंने वे ग्रुप्स छोड़ दिये थे। उनके बार-बार पूछने पर भी मैंने उन एडमिन्स को वजह नहीं बताई थी। अब यहाँ पर वह वजह लिख दी है)।

आज अपनी ही डायरी की पुरानी एंट्रीज़ (entries) पढ़ते हुये यह पुरानी बात याद आ गई और यहाँ लिख दी है।

ख़ैर, छोड़िये। ????

अब इक़बाल असलम का एक शेअर पेश करता हूँ।

Swami Amrit Pal Singh 'Amrit'पुष्कर, राजस्थान की एक याद

‘जुब्बा’ कहते हैं, लम्बे-से कुर्ते को, जो शेख़ पहनते हैं। जुब्बे जैसा ही लम्बा चोला कुछ भारतीय साधु भी पहनते हैं, जिसे ‘अल्फ़ी’ बोलते हैं। ‘अल्फ़ी’ को ही ‘खफ़नी’ भी कह देते हैं। ‘दस्तार’ कहते हैं पगड़ी को। ‘रियाकारी’ का अर्थ है, ‘मक्कारी’, ‘पाखण्ड’, ‘झूठा दिखावा’।

अरे ओ जुब्बा-ओ-दस्तार वालो!
रिया-कारी हुई है बंदगी क्या?

~ इक़बाल असलम

रियाकारी: – मक्कारी, पाखण्ड, झूठा दिखावा।

(ओ लम्बा चोला और दस्तार पहनने वालो! क्या अब पाखण्ड ही भक्ति हो गई है?)

ارے او جبہ و دستار والو
ریا کاری ہوئی ہے بندگی کیا

اقبال اسلم

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’

25 अगस्त, 2023