अनावश्यक बोलते रहना

अक्सर ऐसा होता है कि जिन को बोलना नहीं चाहिए, वे बहुत बोलते हैं। ऐसी जगह भी बोलने से रुकते नहीं, जहाँ उन्हें मौन होकर सिर्फ़ सुनना ही चाहिए। कोई सत्पुरुष कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा हो, वहाँ भी ऐसे लोग कुछ अनावश्यक बात कर के सत्पुरुष को ही चुप रहने पर मजबूर कर देते हैं।

एक दूसरी स्थिति भी है। जिनके पास बहुत कुछ है बताने के लिये, जो ज्ञानीजन हैं, जो प्रभु-प्रेमी हैं, जो सर्वहितैषी हैं; वे बोलते ही नहीं हैं। बोलें भी, तो बहुत कम बोलते हैं।

भाई गुरदास जी लिखते हैं:-

बिनु रस रसना बकत जी बहुत बातै
प्रेम रस बसि भए मोनि ब्रत लीन है।
(भाई गुरदास जी, कबित 65)।

(जब जीवन में प्रेम का) रस नहीं (था, तो) जीभ बहुत बातें कहती थी। (अब जीभ) प्रेम-रस के वश में होकर मौनव्रत में लीन हो गई है।

बोलना तभी चाहिए, जब हृदय में प्रेम हो। क्रोध में क्या बोलना? नफ़रत में क्या बोलना? ईर्ष्या में क्या बोलना? लालच में क्या बोलना? भाई, बोलना ही है, तो प्रेम में बोलिये, प्रेम से बोलिये।

पर होता यह है कि ज़बान में रस नहीं, अर्थात वाणी मधुर नहीं, फिर भी बहुत बोलता है, बहुत बातें करता है। बिना मतलब ही बोलता रहता है।

दूसरी ओर, जो प्रेम-रस के वशीभूत हो गये, वे तो मौन ही रहने लगे। उन को प्रेम-रस के आगे संसारी बातों का रस अत्यंत फीका लगने लगा। व्यर्थ की बातें करके प्रेम-रस से वंचित रहना ही क्यों?

~ (स्वामी) अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’