तरनापो इउ ही गइओ (लेख)

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(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

‘तरनापो’ कहते हैं तरुण अवस्था को। जवानी की उम्र को, यौवन को। गुरु तेग़ बहादुर साहिब महाराज कह रहे हैं कि यौवन तो ऐसे ही बीत गया।

‘लीओ जरा तनु जीति’॥ ‘जरा’, बूढ़ापा। अब तन को, अब शरीर को बूढ़ापे ने जीत लिया। अब शरीर पे बूढ़ापा आ गया है।

‘तरनापो इउ ही गइओ’, ऐसे ही चला गया। कैसे चला गया? इस से पहले वाले शलोक में गुरु साहिब ने कहा, ‘बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥’ वह जो विषय हैं, ‘बिखिअन’, विषय, उनमें लग कर यौवन चला गया। तरुण अवस्था चली गयी। पाँच प्रकार के विषय हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध। हमने पहले कहा कि अपने आप में ये पाँच विषय विकार नहीं हैं। लेकिन जब इन्सान इन पाँच विषयों में लग कर अपने जीवन का असल मक़सद भगवान की भक्ति करना, प्रभु की बंदगी करना भूल जाये, तो ये पाँच विषय ही इन्सान के मन में विकार पैदा कर देते हैं। ये पाँच विषय यौवन अवस्था में, जवानी में सब से ज़्यादा ताक़तवर होते हैं। वैसे तो जब इन्सान पैदा होता है, पैदा होते समय ही उसको आप-पास की वस्तुओं से, आस-पास के लोगों से मोह होने लगता है।

बच्चा पैदा होते समय ही दूध की इच्छा करता है। दूध की चाहना करता है।

‘पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥’ (137, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी) गुरवानी में आता है। सबसे पहला प्यार बच्चे को दूध से ही होता है। दूध रस है। पाँच विषयों में एक विषय है रस। आहिस्ता-आहिस्ता उसका और विषयों के प्रति भी मोह बढ़ता जाता है। लेकिन, सबसे ज़्यादा उसका मोह इन पाँच विषयों की तरफ़ तब होता है, जब वह यौवन अवस्था में होता है, जब वह जवानी की उम्र में होता है। पहले विषयों के प्रति उसका लगाव कम होता है। वह आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता जाता है जवानी में वह सब से ज़्यादा होता है। और जैसे-जैसे जवानी ढलने लगती है, विषयों के प्रति उसका लगाव भी कम होता जाता है। सब-से ज़्यादा ज़ोर जवानी के समय में होता है। यौवन, तरुण अवस्था के समय में होता है।

‘तरनापो इउ ही गइओ’। जवानी की अवस्था ऐसे ही चली गयी विषयों में। जो जीव के अंदर, इन्सान के अंदर विकार बन के चिपटे रहे। अब, जबकि जवानी विषयों में लग कर बीत गयी, शरीर को अब बूढ़ापे ने जीत लिया। अब वृद्धावस्था आ गयी। अब वह बूढ़ा हो गया। जीव जब पैदा होता है, तो उसका शरीर कमज़ोर होता है। उसके अंग पूरी तरह से विकसित भी नहीं हुये होते। लेकिन जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती जाती है, उसके शरीर में ताक़त आती जाती है। उसका शरीर ताक़तवर होता जाता है। लेकिन, जैसे-जैसे जवानी ढलने लगती है, जैसे-जैसे वह बूढ़ापे की तरफ़ क़दम बढ़ता जाता है, वह ताक़तवर शरीर कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। उसके अंग श्थिल होने शुरू हो जाते हैं। कानों से कम सुनाई देने लगता है। शरीर की चमड़ी ढीली पड़ने लगती है। आँखों से कम दिखाई देने लगता है। शरीर के सभी अंग कमज़ोर होने लगते हैं। यहाँ तक कि उसका दिमाग़ भी कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। उसकी याददाश्त कम होनी शुरू हो जाती है। दिमाग़ भी तो आख़िर शरीर का एक अंग है न। वह बाहर से नहीं दिखता। शरीर के भीतर है। वह भी कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। जो काम वह जवानी में कर सकता था, अब वह बूढ़ापे में नहीं कर सकता। जवानी में जैसे वह बहुत दूर दूर तक चला जाता था, बूढ़ापे में वह नहीं जा सकता। जवानी में वह बिलकुल हल्की सी आवाज़ भी सुन सकता था, बूढ़ापे में अब उसको ऊंचा सुनाई देने लगता है। जवानी में वह ज़्यादा भार उठा सकता था, बूढ़ापे में अब वह ख़ुद भार बन गया है। अपने सहारे चल भी नहीं सकता। अपने सहारे उठ भी नहीं सकता। जवानी में उसे कितनी बातें याद थीं। बूढ़ापे में अब वह बातें भूल रही हैं उसको। अब कुछ नयी चीज़ याद करने की कोशिश करता है, तो उस तरह से याद नहीं होती, जैसे जवानी में याद हो जाती थी। जो जवानी में कर सकता था, अब बूढ़ापे में नहीं कर पाता। ऐसे ही, जवानी में वह प्रभु की भक्ति ज़्यादा अच्छे तरीके से कर सकता था। अब वह बूढ़ापे में नहीं कर पाएगा।

फ़रीद साहिब का श्लोक है, ‘फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ ॥’ (१३७८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)। जब बाल काले थे, यानि जवानी की उम्र थी, तब जिसने प्रभु की बन्दगी नहीं की। तो कोई विरला ही होगा, जो बूढ़ापे में जा कर बन्दगी करना शुरू कर दे। जवानी में जिन्होने ने बन्दगी नहीं की, उनमें से कोई विरला होगा, जो बूढ़ापे में जाकर बन्दगी करना शुरू कर दे। ऐसा नहीं कि कोई नियम है कि जिसने जवानी में बन्दगी नहीं की, वह बूढ़ापे में बन्दगी कर ही नहीं सकता। ऐसा नहीं है।

गुरु अमरदास जी महाराज ने बाबा फ़रीद जी के इस श्लोक पर कि ‘फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ’, इस पर अपना विचार देते हुये आगे कहा कि

मः ३ ॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है जे को चिति करे ॥ (१३७८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)

कि बाल चाहे काले हों, बाल चाहे सफ़ेद हों, यानि चाहे कोई जवानी की अवस्था में हो, चाहे वह बूढ़ापे की अवस्था में हो, भगवान हमेशा मौजूद है। उसको महसूस किया जा सकता है। उसको पाया जा सकता है। ‘जे को चिति करे’। शर्त क्या है कि वह अपने चित में भगवान बसा ले। जवानी विषयों में गंवा दी। अब वृद्धावस्था आ गयी। अब बूढ़ापा आ गया। लेकिन अभी भी उम्मीद है। जवानी में बन्दगी नहीं की। बूढ़ापा आ गया। बहुत कम लोग होते हैं, जो जवानी में बन्दगी नहीं करते, लेकिन बूढ़ापे में जा कर लेते हैं। बहुत कम लोग होते हैं। फिर भी उम्मीद है। प्रभु की कृपा हो, तो वह बन्दगी की तरफ़ बूढ़ापे में जाकर भी लग सकता है।

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥

गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी महाराज गुरु नानक के नाम का इस्तेमाल करते हैं, ‘कहु नानक’, हे नानक कहो। ‘भजु हरि मना’। हे मेरे मन! भज हरि को। प्रभु को याद कर। परमात्मा का सुमिरन कर। ‘अउध जातु है बीति’। तुम्हारी उम्र व्यतीत होती जाती है। तुम्हारी उम्र बीतती जाती है। जवानी तुमने विषयों में गवा दी। अब बूढ़ापे आ गया। लेकिन उम्मीद है अब भी। अब भी उम्मीद है कि गुरु की कृपा हो। अब भी उम्मीद है कि भगवान तुम पर रहम करे। अब भी वक़्त है कि तुम हरि का सुमिरन करो। ख़ुदा की बन्दगी करो। तुम्हारी यह उम्र बीतती जा रही है।

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।