Nem Ton Prem (Punjabi Video) ਨੇਮ ਤੋਂ ਪ੍ਰੇਮ
Nem Ton Prem (Punjabi Video) ਨੇਮ ਤੋਂ ਪ੍ਰੇਮ
अमीर अय्याश और ग़रीब भक्त। गुरुवाणी के आधार पर विचार-चर्चा।
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(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
‘तरनापो’ कहते हैं तरुण अवस्था को। जवानी की उम्र को, यौवन को। गुरु तेग़ बहादुर साहिब महाराज कह रहे हैं कि यौवन तो ऐसे ही बीत गया।
‘लीओ जरा तनु जीति’॥ ‘जरा’, बूढ़ापा। अब तन को, अब शरीर को बूढ़ापे ने जीत लिया। अब शरीर पे बूढ़ापा आ गया है।
‘तरनापो इउ ही गइओ’, ऐसे ही चला गया। कैसे चला गया? इस से पहले वाले शलोक में गुरु साहिब ने कहा, ‘बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥’ वह जो विषय हैं, ‘बिखिअन’, विषय, उनमें लग कर यौवन चला गया। तरुण अवस्था चली गयी। पाँच प्रकार के विषय हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध। हमने पहले कहा कि अपने आप में ये पाँच विषय विकार नहीं हैं। लेकिन जब इन्सान इन पाँच विषयों में लग कर अपने जीवन का असल मक़सद भगवान की भक्ति करना, प्रभु की बंदगी करना भूल जाये, तो ये पाँच विषय ही इन्सान के मन में विकार पैदा कर देते हैं। ये पाँच विषय यौवन अवस्था में, जवानी में सब से ज़्यादा ताक़तवर होते हैं। वैसे तो जब इन्सान पैदा होता है, पैदा होते समय ही उसको आप-पास की वस्तुओं से, आस-पास के लोगों से मोह होने लगता है।
बच्चा पैदा होते समय ही दूध की इच्छा करता है। दूध की चाहना करता है।
‘पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥’ (137, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी) गुरवानी में आता है। सबसे पहला प्यार बच्चे को दूध से ही होता है। दूध रस है। पाँच विषयों में एक विषय है रस। आहिस्ता-आहिस्ता उसका और विषयों के प्रति भी मोह बढ़ता जाता है। लेकिन, सबसे ज़्यादा उसका मोह इन पाँच विषयों की तरफ़ तब होता है, जब वह यौवन अवस्था में होता है, जब वह जवानी की उम्र में होता है। पहले विषयों के प्रति उसका लगाव कम होता है। वह आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता जाता है जवानी में वह सब से ज़्यादा होता है। और जैसे-जैसे जवानी ढलने लगती है, विषयों के प्रति उसका लगाव भी कम होता जाता है। सब-से ज़्यादा ज़ोर जवानी के समय में होता है। यौवन, तरुण अवस्था के समय में होता है।
‘तरनापो इउ ही गइओ’। जवानी की अवस्था ऐसे ही चली गयी विषयों में। जो जीव के अंदर, इन्सान के अंदर विकार बन के चिपटे रहे। अब, जबकि जवानी विषयों में लग कर बीत गयी, शरीर को अब बूढ़ापे ने जीत लिया। अब वृद्धावस्था आ गयी। अब वह बूढ़ा हो गया। जीव जब पैदा होता है, तो उसका शरीर कमज़ोर होता है। उसके अंग पूरी तरह से विकसित भी नहीं हुये होते। लेकिन जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती जाती है, उसके शरीर में ताक़त आती जाती है। उसका शरीर ताक़तवर होता जाता है। लेकिन, जैसे-जैसे जवानी ढलने लगती है, जैसे-जैसे वह बूढ़ापे की तरफ़ क़दम बढ़ता जाता है, वह ताक़तवर शरीर कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। उसके अंग श्थिल होने शुरू हो जाते हैं। कानों से कम सुनाई देने लगता है। शरीर की चमड़ी ढीली पड़ने लगती है। आँखों से कम दिखाई देने लगता है। शरीर के सभी अंग कमज़ोर होने लगते हैं। यहाँ तक कि उसका दिमाग़ भी कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। उसकी याददाश्त कम होनी शुरू हो जाती है। दिमाग़ भी तो आख़िर शरीर का एक अंग है न। वह बाहर से नहीं दिखता। शरीर के भीतर है। वह भी कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। जो काम वह जवानी में कर सकता था, अब वह बूढ़ापे में नहीं कर सकता। जवानी में जैसे वह बहुत दूर दूर तक चला जाता था, बूढ़ापे में वह नहीं जा सकता। जवानी में वह बिलकुल हल्की सी आवाज़ भी सुन सकता था, बूढ़ापे में अब उसको ऊंचा सुनाई देने लगता है। जवानी में वह ज़्यादा भार उठा सकता था, बूढ़ापे में अब वह ख़ुद भार बन गया है। अपने सहारे चल भी नहीं सकता। अपने सहारे उठ भी नहीं सकता। जवानी में उसे कितनी बातें याद थीं। बूढ़ापे में अब वह बातें भूल रही हैं उसको। अब कुछ नयी चीज़ याद करने की कोशिश करता है, तो उस तरह से याद नहीं होती, जैसे जवानी में याद हो जाती थी। जो जवानी में कर सकता था, अब बूढ़ापे में नहीं कर पाता। ऐसे ही, जवानी में वह प्रभु की भक्ति ज़्यादा अच्छे तरीके से कर सकता था। अब वह बूढ़ापे में नहीं कर पाएगा।
फ़रीद साहिब का श्लोक है, ‘फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ ॥’ (१३७८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)। जब बाल काले थे, यानि जवानी की उम्र थी, तब जिसने प्रभु की बन्दगी नहीं की। तो कोई विरला ही होगा, जो बूढ़ापे में जा कर बन्दगी करना शुरू कर दे। जवानी में जिन्होने ने बन्दगी नहीं की, उनमें से कोई विरला होगा, जो बूढ़ापे में जाकर बन्दगी करना शुरू कर दे। ऐसा नहीं कि कोई नियम है कि जिसने जवानी में बन्दगी नहीं की, वह बूढ़ापे में बन्दगी कर ही नहीं सकता। ऐसा नहीं है।
गुरु अमरदास जी महाराज ने बाबा फ़रीद जी के इस श्लोक पर कि ‘फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ’, इस पर अपना विचार देते हुये आगे कहा कि
मः ३ ॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है जे को चिति करे ॥ (१३७८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)
कि बाल चाहे काले हों, बाल चाहे सफ़ेद हों, यानि चाहे कोई जवानी की अवस्था में हो, चाहे वह बूढ़ापे की अवस्था में हो, भगवान हमेशा मौजूद है। उसको महसूस किया जा सकता है। उसको पाया जा सकता है। ‘जे को चिति करे’। शर्त क्या है कि वह अपने चित में भगवान बसा ले। जवानी विषयों में गंवा दी। अब वृद्धावस्था आ गयी। अब बूढ़ापा आ गया। लेकिन अभी भी उम्मीद है। जवानी में बन्दगी नहीं की। बूढ़ापा आ गया। बहुत कम लोग होते हैं, जो जवानी में बन्दगी नहीं करते, लेकिन बूढ़ापे में जा कर लेते हैं। बहुत कम लोग होते हैं। फिर भी उम्मीद है। प्रभु की कृपा हो, तो वह बन्दगी की तरफ़ बूढ़ापे में जाकर भी लग सकता है।
तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी महाराज गुरु नानक के नाम का इस्तेमाल करते हैं, ‘कहु नानक’, हे नानक कहो। ‘भजु हरि मना’। हे मेरे मन! भज हरि को। प्रभु को याद कर। परमात्मा का सुमिरन कर। ‘अउध जातु है बीति’। तुम्हारी उम्र व्यतीत होती जाती है। तुम्हारी उम्र बीतती जाती है। जवानी तुमने विषयों में गवा दी। अब बूढ़ापे आ गया। लेकिन उम्मीद है अब भी। अब भी उम्मीद है कि गुरु की कृपा हो। अब भी उम्मीद है कि भगवान तुम पर रहम करे। अब भी वक़्त है कि तुम हरि का सुमिरन करो। ख़ुदा की बन्दगी करो। तुम्हारी यह उम्र बीतती जा रही है।
तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
(यह लेख हमारी विडियो का लिपियान्तर है। विडियो देखने के लिए, कृपा इस पेज पर जाइए: https://www.youtube.com/watch?v=jbAhWs2mwEI )
(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
एक आम इंसान को, एक संसारी व्यक्ति को बहुत-सी संसारी चीज़ें पसन्द होती हैं। वह संसार के जिन सुखों को भोगना चाहता है, जिन सुखों को वह भोगता है, उनको अपने पाँच ज्ञान इंद्रियों के ज़रिये भोगता है। और यह जितनी भी वस्तुएँ हैं, जिनको वह भोगता है, उनको पाँच समूहों में हम रख सकते हैं। ये पाँच समूह ही पाँच विषय हैं। ये पाँच विषय हैं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध।
जैसे, किसी को कुछ सुनना अच्छा लगता है। हो सकता है उसको किसी ख़ास तरह का संगीत पसन्द हो। हो सकता है, उस को किसी ख़ास गायक की आवाज़ पसन्द हो। वह बार-बार अपनी पसन्द का संगीत सुनना चाहेगा। वह बार-बार अपने पसन्द के गायक को सुनना चाहेगा। यह जो सुनना है, यह विषय है ‘शब्द’। किसी को किसी भी प्रकार की कोई चीज़ सुनने में अच्छी लगे, चाहे वह संगीत हो, चाहे वह किसी व्यक्ति की आवाज़ हो, वह इस एक विषय में आ जाती है। वह विषय है, ‘शब्द’। ‘शब्द’ का अर्थ ही है आवाज़। इंग्लिश में sound ।
दूसरा विषय है, ‘स्पर्श’। कुछ छूना अच्छा लगे। किसी को क्या छूना अच्छा लगता है, किसी को क्या छूना अच्छा लगता है। माँ को अपने बच्चे को छूना बहुत लगता है। वह बार-बार अपने बच्चे को छूह लेना चाहती है। बार-बार अपने बच्चे को छूने से उसको अच्छा लगता है। किसी को ख़ास तरह के कपड़े पहनना पसन्द है। किसी को मख़मली, रेशमी कपड़े पहनना पसन्द है, क्योंकि कपड़ों की भी आखिर छोह होती है न। कपड़े भी छूते हैं हमारे शरीर को, टच (touch) करते हैं हमारे शरीर को। ऐसी कोई भी वस्तु, जो छूने में अच्छी लगती है, वह दूसरे तरह के विषय में आ जाती है, जिसको हम कहते हैं स्पर्श, छूना, टच।
इसके बाद आगे विषय है तीसरा, ‘रूप’। कुछ देखना सुन्दर लगता है। कुछ देखना अच्छा लगता है। फूल देखें, तो अच्छा लगता है। जी करता है बार-बार फूल देखें। कोई चेहरा पसन्द आता है। कोई चेहरा बहुत अच्छा लगता है। जी करता है उसको बार-बार देखें। जी करता है वह चेहरा बस हमारे सामने रहे हमेशा। जी करता है वह चेहरा हम से दूर न जाये। किसी को क्या चीज़ देखना पसन्द है, किसी को क्या चीज़ देखना पसन्द है। लेकिन, जो पसन्द है, वह है ‘रूप’। कोई रूप है, जो अच्छा लगता है। चाहे वह किसी फूल का रूप है, चाहे वह किसी इंसान का रूप है। हो सकता है, क़ुदरत के नज़ारे, वे किसी को देखना अच्छा लगे। क़ुदरत के नज़ारे भी हैं तो रूप। किसी को पहाड़ देखना अच्छा लगता है, किसी को नदियां देखना अच्छा लगता है। रूप है। फूल भी रूप है। किसी का चेहरा भी, पहाड़ भी रूप है, नदियां भी रूप हैं। चाँद, तारे, कुछ भी देखना अच्छा लगता है, तो वह रूप है। यह विषय है ‘रूप’।
चौथा विषय है ‘रस’। रस का यहाँ अर्थ है, स्वाद। टेस्ट (taste)। जो, रसना को अच्छा लगे, जो जीभ को अच्छा लगे। जो खाने में, जो पीने में अच्छा लगे, वह रस है। कितने इन्सान हैं, कितने जीव हैं। किसी को क्या अच्छा लगता है खाने में, पीने में; किसी को क्या अच्छा लगता है खाने में, पीने में। किसी एक को जो खाने में अच्छा लगता है, किसी दूसरे को वह अच्छा नहीं भी लग सकता। किसी को एक चीज़ पीने में अच्छी लगती है, किसी दुसरे को वही चीज़ पीने में अच्छी नहीं भी लग सकती। किसी को क्या खाना पसन्द है, किसी को क्या खाना पसन्द है। किसी को मीठा खाना पसन्द है, किसी को खट्टा खाना पसन्द है। मीठे की भी आगे अलग-अलग केटेगरीज़ (categories) हैं। किसी को किसी प्रकार का मीठा पसन्द है, किसी को किसी और प्रकार का मीठा पसन्द है। लेकिन यह जितना भी खाना है, जितना भी पीना है, वह एक विषय है, रस। किसी को फल खाने पसन्द हैं, किसी को सेब ज़्यादा अच्छा लगता है, केले नहीं अछे लगते। किसी को अनार अच्छे लगते हैं, ख़रबूज़ा अच्छा नहीं लगता। अपना-अपना टेस्ट डिवलप (develop) हो गया। किसी को कौन-सा रस पसन्द है, किसी को कौन-सा रस पसन्द है। बहुत लोग हैं, जो अमरूद नहीं खाना चाहते। उनको अमरूद न-पसन्द हैं। उनको लगता है कि अमरूद सख्त है। अमरूद का जो रस है, अमरूद का जो स्वाद है, वह उनको पसन्द नहीं। पर, बहुत ऐसे भी हैं, जिनको अमरूद का स्वाद ही अच्छा लगता है। किसी को खट्टी वस्तुएँ, खट्टी चीज़ें, चटनी वग़ैरह अच्छी लगती हैं। बहुत लोग हैं, जो खाना खाते समय अचार ज़रूर चाहते हैं, आचार की खटास उनको पसन्द है। किसी को मिर्च का तीखापन पसन्द है। यह जो जीतने भी स्वाद हैं, यह जीतने भी टेस्ट हैं, ये सभी एक विषय में आ जाते हैं। वह विषय है रस।
पाँचवाँ विषय है, ‘गन्ध’। गन्ध है: बू, smell । जो सूंघने में अच्छा लगे, जिसको सूंघें, तो मन खुश हो। जिसको सूंघें, तो अच्छा लगे। देखो, कितनी तरह के पर्फ्यूम आते हैं। क्यूँ आते हैं? कौन लोग खरीदते हैं? वे लोग, जिनको उस ख़ास तरह की smell, वह ख़ास तरह की सुगंध पसन्द है। कितने किस्में आती हैं परफ्यूमज़ (perfumes) की, अतर, फुलेल की। किसी को क्या पसन्द है, किसी को क्या पसन्द है। अलग-अलग खुशबुएँ हैं। रसोई में खाना बनता है। किसी को भूख नहीं लगती, लेकिन उस खाने की खुशबू से उसके अंदर भूख जाग पड़ती है। आम पड़े होते हैं, आम। आम की ख़ास तरह की खुशबू है, आम का अपना स्वाद है। आम की अपनी खुशबू है। वह आम की खुशबू आम इन्सान के अंदर ललक पैदा कर देती है उसको खाने के लिये।
जितनी भी वस्तुएं अच्छी लगती हैं, वे विषय हैं। और ये विषय पाँच समूहों में बांटे जाते हैं:- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। ये विषय अपने-आप में विकार नहीं हैं। आम तौर जब हम बात करते हैं, तो विषय-विकार, ऐसा इकट्ठा बोलते हैं। विषय विकार। अपने आप में वे विकार नहीं हैं। लेकिन इन्सान का उनके प्रति ज़रूरत से ज़्यादा लगाव हो जाना इन्सान के अंदर विकार बन जाता है। किसको अच्छा नहीं लगता रात में आकाश में चाँद को देखना, तारों को देखना। वह रूप है।
ओइ जु दीसहि अम्मबरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
(वाणी भक्त श्री कबीर जी, ३२९, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
अच्छा लगता है। आकाश में देखते हैं, अच्छा लगता है। चाँद अच्छा लगता है। तारे अच्छे लगते हैं। अपने आप में वे विकार नहीं है, रूप है। अपने आप में कोई विकार नहीं, लेकिन अगर कोई आदमी बस उसी रूप में ही फँस जाये, अपने जीवन का मक़सद उसको भूल जये, और बस चाँद देखने में लगा रहे, बस तारे देखने में लगा रहे, तो वह रूप जो बाहर अपने आप में विकार नहीं, इन्सान के अंदर विकार पैदा कर देता है। वह विकार पैदा होने से इन्सान्द अपने जीवन का असल मक़सद भूल जाता है।
मक़सद क्या था? इस संसार में आ कर भगवान की बन्दगी करना, भक्ति करना, प्रभु के नाम का सुमिरन करना। उस मक़सद को भूल जाता है। अपने आप मे विकार नहीं है रूप।
ऐसे ही शब्द अपने आप मे विकार नहीं है। संगीत अपने आप में क्या विकार है? कुछ भी नहीं। भक्त हुये, गुरु साहिबान हुये, उन्होने संगीत का इस्तेमाल किया। संगीत के साथ उन्होने गुरुवाणी गायी। और गुरुवाणी को संगीत के साथ गाना ही तो कीर्तन होता है। उसी को कीर्तन कहते हैं। और कीर्तन ज़रीया बनता है भगवान को पाने को, भगवान की तरफ़ जाने का। अपने आप मे संगीत विकार नहीं। लेकिन उन लोगों का क्या, जो दुनियावी संगीत में ही उलझ कर रह गये? और उनको लगता है की बस यह संगीत यही मक़सद है ज़िन्दगी का। उस संगीत में उन्होने ऐसे-ऐसे गीत गाये, जो गीत उनको भगवान से दूर ले जाने वाले हैं। संगीत अपने आप में विकार नहीं, लेकिन वह इन्सान के लिये विकार बन गया। शब्द विकार बन गया। आवाज़ विकार बन गयी।
ऐसे ही रस है। शरीर है, तो कुछ खाना पड़ेगा। शरीर को चलाने के लिये कुछ खाना पड़ेगा। खाना का मक़सद कि शरीर चलता रहे। शरीर का मक़सद है कि प्रभु की बन्दगी होती रहे। शरीर का मक़सद है कि लोगों की सेवा होती रहे। औरों का, दूसरों का भला होता रहे।
लेकिन, उनका क्या, जो रस में उलझ कर रह गये? उनके जीवन के मक़सद यह हो गया कि खाना है बस। कुछ ख़ास तरह के स्वाद उनको अच्छे लगते हैं, वह खाना है। बहुत सी चीज़ें बाज़ार में मिलती हैं। टेलिविज़न पर उनकी बहुत एडवरटाईज़मेण्टज़ आती हैं। लोग उनको खाते हैं। और ऐसा बहुत बार पढ़ने में, सुनने में आता है कि वे चीज़ें खाने से सेहत का नुक़सान होता है। फिर भी लोग खाते हैं। ऐसी चीज़ें बहुत बिकती हैं। क्यों? उस रस की वजह से, उस स्वाद की वजह से जो लोगों को अच्छा लगता है, चाहे वह सेहत के लिये हानिकारक है। चाहे वह शरीर को नुक़सान देता है। वह रस विकार बन गया। परफ़्यूम (perfume) बिकते हैं, और बहुत से परफ़्यूम नुक़सान करते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा परफ़्यूम लगाया हो, तो नुक़सान करता है। अस्थमा भी करता है। दमे की बीमारी। लेकिन वह परफ़्यूम अच्छा लगता है, वह खुशबू अच्छी लगती है। वह रस, वह गन्ध, वह स्पर्श, वह रूप, ये विकार बन गये। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध अपने आप में बुरे नहीं, लेकिन इन्सान उन्हीं में उलझ कर रह गया। उन्हीं में रच कर रह गया। उस से वह अपने जीवन का असल मक़सद भूल गया। अपने असल मक़सद से वह दूर हो गया। इसलिये ये पाँच विषय पाँच विकार बन गये।
गुरु तेग़ बहादुर जी महाराज कहते हैं: –
बिखिअन सिउ काहे रचिओ
किस लिये इन विषयों में तुम रचे पड़े हो? फंसे पड़े हो? उलझे पड़े हो?
निमख न होहि उदासु ॥
निमख कहते हैं निमेष को। आँख की पलक झपकने का जितना समय होता है, वह है निमेष। गुरुवाणी में उसको निमख कहा है। पुरानी पञ्जाबी का लफ़्ज़।
निमख न होहि उदासु ॥ तुम एक निमख के लिये, एक निमेष मात्र के लिये, पलक झपकने जितने समय के लिये भी तुम उदास नहीं होते।
उदास का यहाँ अर्थ है, उपराम हो जाना। उनके प्रति, उन विषयों के प्रति मोह नहीं रहना। उन विषयों के प्रति कोई attraction मन में न रहे। वह है उदास हो जाना। वे हों भी, तो भी कोई फ़र्क नहीं। वे न भी हों, तो भी कोई फ़र्क नहीं। आँख की पलक झपकने जितना समय, उतनी देर के लिये भी इन पाँच विषयों से मन उपराम नहीं होता। इन पाँच विषयों से मन दूर नहीं होता। इन पाँच विषयों को मन बार-बार, बार-बार हासिल करने की कोशिश करता है। किस लिये रचे पड़े हो पाँच विषयों में? एक पल के लिये भी, आँख झपकने जितना, आँख की पलक झपकने जितना समय, उतनी देर के लिये भी इनसे अपने मन को दूर नहीं करते हो।
कहु नानक भजु हरि मना
गुरु नानक पहले गुरु हुये हैं। उन्ही का नाम बाक़ी के गुरु साहिबान ने गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल किया। कहु नानक: नानक कहो। भजु हरि मना, हरि को भजो, हे मेरे मन! उस परमात्मा का सुमिरन करो। उस ख़ुदा की बन्दगी करो।
इस से क्या होगा?
परै न जम की फास ॥२॥
यम है मौत। फास है पाश, जो फंदा होता है रस्सी का बना। किसी इन्सान के गले में
फंदा डाल दो, उसको गले में फंदा डल गया, उसको कहीं भी घसीटते हुये ले जाओ। चाहो तो उसको कहीं भी टांग दो। गले में पड़ा हुया फंदा जब कस जाये, उसको हटाना बहुत मुश्किल हो जाता है। जिसके हाथ में उस फंदे का दूसरा सिरा है, वह जहां भी चाहे उसके घसीटता हुया ले जा सकता है। वह चाहे, तो उसको कहीं लटका भी सकता है। काल भी ऐसा करता है। मौत भी ऐसा करती है। वह कभी भी, कहीं भी इन्सान को, जीव को, किसी भी जीव को गले में फंदा डाल कर कहीं भी घसीट कर ले कर जा सकती है। यह जीवन का और फिर मर जाने का; मरने के बाद फिर जीने का, और जीने के बाद फिर मरने का, यह जो जन्म-मरण का चक्कर है, इसी में उलझाई रखती है यह मौत। कि मरोगे, तो फिर जियोगे। फिर नया जीवन मिलेगा, किसी और शरीर में चले जाओगे। अगर प्रभु की भक्ति करोगे, ख़ुदा की बन्दगी करोगे, तो इस चक्कर से मुक्त हो जाओगे। इस चक्कर से बच जाओगे। फिर बार-बार पैदा होना, और बार-बार मरना, यह ख़त्म हो जायेगा। अगर हे मेरे मन! तुम हरि को भजोगे, हरि की भक्ति करोगे, प्रभु का सुमिरन करोगे, ख़ुदा की बन्दगी करोगे, तो तुम्हारे गले में यम का पाश नहीं पड़ेगा।
पाँच विषयों में मत उलझना। अपने जीवन का मक़सद याद रखना। इस संसार में तुम क्यों आये हो? जिस मक़सद के लिये आये हो, वह मक़सद पूरा करो। वह मक़सद है ख़ुदा को याद करना, भगवान की बन्दगी करना। अगर तुम ऐसा करोगे, तो तुम्हारे गले में ‘परै न जम की फास’। यम का पाश तुम्हारे गले में नहीं पड़ेगा।
बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)
(यह लेख हमारी विडियो का लिपियान्तर है। विडियो देखने के लिए, कृपा इस पेज पर जाइए: https://www.youtube.com/watch?v=hOXsBsx6gfs )
गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
हम कोई भी काम करें, उसके पीछे कोई न कोई मक़सद होता है। बिना मक़सद के हम कोई काम नहीं करते। अगर हम कोई मकान बनाते हैं, किसी इमारत की तामीर करते हैं, तो उसका यह मक़सद होता है कि हम उसको अपना घर बनाएँगे, उसमें रहेंगे। या, यह भी मक़सद हो सकता है कि हम उस को फ़ायदे पर आगे किसी और को बेच देंगे।
अगर हम कोई गाड़ी लेते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम ने अगर कहीं जाना हो, तो हमें आसानी रहेगी। घर में कोई भी चीज़ हम लेकर आते हैं, उसके पीछे कोई न कोई मक़सद होता है। घर में अगर हम टेलीविज़न लेकर आते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम टेलीविज़न पर आने वाले जो प्रोग्राम्स हैं, उनको देखेंगे। घर मे कम्प्युटर लेकर आते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम इस कम्प्युटर को इस्तेमाल करके अपने काम कर सकेंगे। अगर हम कोई किताब अपने घर लेकर आते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम उस किताब को पढ़ेंगे। बच्चों को हम अगर पढ़ाएँ, तो उसका मक़सद है कि ये अच्छी तालीम हासिल करके किसी अच्छे रोजगार पर लगेंगे। अगर हम कोई काम करें, और उसका वह मक़सद, जिसके लिए वो काम किया गया, वह पूरा न हो, तो वह काम करना फ़िज़ूल रहा। हमने अगर मकान बनाया, तो उसका मक़सद यह था कि हम उसको अपना घर बनाकर उसमे रहेंगे, या उसको फ़ायदे पर किसी को बेच देंगे। अगर हम ने मकान बना लिया, लेकिन उसमे रहे न, और न ही उसको कहीं फ़ायदे पर किसी और को बेचा, तो वह मकान बनाने का मक़सद पूरा न होने की वजह से वह मकान बनाना फ़िज़ूल रहा। मकान बनाया तो सही, मगर उसको इस्तेमाल न किया। मकान वीरान पड़ा-पड़ा ख़राब हो गया। मकान वीरान पड़ा पड़ा गिरने लगा। मकान बनाना फ़िज़ूल गया। हम कोई गाड़ी खरीद कर घर लाये। मक़सद था कि इसको इस्तेमाल करेंगे। और कहीं सफर पर जाना होगा, तो इसको इस्तेमाल कर के हमें सफ़र करना आसान रहेगा। लेकिन गाड़ी लाये, और घर में खड़ी कर दी। उसको कभी इस्तेमाल नहीं किया। तो गाड़ी खरीदने का जो मक़सद था, जो पूरा न होने की वजह से, गाड़ी ख़रीदना फ़िज़ूल रहा। हर काम का मक़सद है। मक़सद पूरा न हुआ, तो वह काम करना फ़िज़ूल रहा। अगर हम कोई काम करते हैं, तो यही देखने में आता है कि उसका कोई न कोई मक़सद है। तो फिर, इस दुनिया में आने के पीछे हमारा कोई मक़सद नहीं होगा क्या? जिसने हमें बनाया, क्या उसने हमारे बनाने के लिए कोई मक़सद न सोचा होगा? हम इस संसार में आये, तो यहाँ आने का हमारा कोई मक़सद नहीं है क्या?
तीन बातें हैं: एक तो, कि इस संसार में हम आये, क्या उसका कोई मक़सद है? दूसरा, कि अगर कोई मक़सद है, तो वह मक़सद क्या है? और तीसरा, कि क्या हमने वह मक़सद पा लिया?
इस दुनिया में हम आये, तो उसका क्या मक़सद है?
भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥
अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥
(वाणी गुरु अर्जुन देव जी, १२, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
तुम्हें यह इंसान का शरीर मिला है, तो यह भगवान को मिलने का, गोविंद को मिलने को, उस ख़ुदा को मिलने का तुम्हें मौका मिला है। इस काम के इलावा, इस काम के उलट जाकर अगर कोई और काम तुम कर रहे हो, वह तुम्हारे काम के नहीं हैं। वह तुम्हारे लिए फ़िज़ूल हैं।
अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥
साधु की संगत में जाकर उस प्रभु का नाम भजो। उस प्रभु के नाम का सुमिरन करो। यह है मक़सद हमारा इस दुनिया में आने का। अगर यह मक़सद हमने पूरा कर लिया, तो ठीक। अगर यह मक़सद हमने पूरा न किया, तो हमारा यहाँ आना फ़िज़ूल रहा।
इसी लिये गुरु तेग़ बहादुर साहिब महाराज कहते हैं:
गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
गुन गोबिंद: गोविंद के गुण। प्रभु के गुण। ख़ुदा की सिफ़त सलाह।
गुन गोबिंद गाइओ नही: तुमने गाये नहीं प्रभु के गुण, तुमने ख़ुदा की सिफ़्त-सलाह नही की।
इसलिये, जनमु अकारथ कीनु: यह जो तुम्हारा जन्म है, यह फ़िजूल हो गया। तुमने अपने जन्म को फ़िजूल कर दिया। अकारथ, जो किसी अर्थ में न हो। जो किसी अर्थ में न हुआ, वह अकारथ। जिस का कोई फ़ायदा न हुआ हो, वह अकारथ। जो व्यर्थ गया, वह अकारथ। जो निरर्थक हो गया, वह अकारथ। क्योंकि तुमने प्रभु के गुण नहीं गाये, ख़ुदा की सिफ़्त-सलाह नहीं की, इसलिये तुम्हारा यह जन्म, इस दुनिया में आना व्यर्थ हो गया, फ़िज़ूल हो गया।
गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥ जन्म को अकारथ कर दिया, व्यर्थ कर दिया। जैसे, मकान बनाया, लेकिन उसमें रहे नहीं, तो वह मकान बनाना अकारथ हो गया, व्यार्थ हो गया, फ़िजूल हो गया। इस संसार में आये, इस दुनिया में आये कि बंदगी करनी थी ख़ुदा की। वह नहीं की। सुमिरन करना था प्रभु का, वह नहीं किया, तो यहाँ आना निरर्थक हुआ। यहाँ आना फ़िज़ूल हुआ। यह जन्म फ़िज़ूल कर दिया।
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
कहू नानक। हे नानक, कहो। गुरु नानक पहले गुरु हुये। उन्ही का नाम ‘नानक’ लेकर जो बाक़ी गुरु साहिबान हुये, उन्होने वाणी उचारी है। अपना पाक-कलाम कहा।
कहु नानक हरि भजु मना। हे मन, हरी को भजो। हरि का सुमिरन करो। ख़ुदा की सिफ़त करो।
कैसे करो? जिह बिधि जल कउ मीनु ॥ जैसे पानी को मच्छी याद करती है। जैसे पानी के बिना मछली रह नहीं सकती। पानी के बिना मच्छी का ज़िंदा रहना सोचा भी नहीं जा सकता। पानी है, तो मच्छी की ज़िन्दगी है। ऐसे ही, प्रभु का सुमिरन हो, तो इंसान की ज़िन्दगी हो। प्रभु से बिछड़ कर जीवन भी कैसा? जो सच्चा भक्त हो, वह तो सोच भी नहीं सकता प्रभु के बिना, प्रभु की याद के बिना, प्रभु की बन्दगी के बिना ज़िंदा रहना।
राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥
(भक्त कबीर जी, १३६८, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
जो बिछड़ा हुआ महसूस करे अपने आप को प्रभु से, वह ज़िन्दा नहीं रह सकता। अगर ज़िन्दा रहे, तो वह बौरा हो जाएगा, पागल हो जायेगा। यह भक्त की स्थिति है। ऐसे उस प्रभु को याद करो, जैसे मच्छी पानी को याद करती है। जैसे पानी के बिना मछली नहीं रह सकती, पानी उसका जीवन बन गया। पानी उसकी ज़िन्दगी बन गयी। ऐसे प्रभु के भक्ति, ख़ुदा की बन्दगी तुम्हारा जीवन बन जाये। अगर ऐसे हो जाये कि तुम बन्दगी करने लगो, अगर ऐसा हो कि तुम बस सुमिरन ही करने लगो, फिर हम कह सकते हैं कि तुम्हारा जीवन का मक़सद पूरा हुया। तुम जिस काम के लिये आये थे यहाँ पर, वह काम तुमने पूरा कर दिया। नहीं तो, मकान बनाया, उसमे रहे नही। रहे बाहर, तो मकान बनाने का क्या फ़ायदा हुआ? गाड़ी ली, पर उस पर सफ़र नही किया, तो गाड़ी लेने का क्या फ़ायदा हुआ? मकान बनाना फ़िज़ूल गया। गाड़ी लेना फ़िज़ूल गया। ऐसे ही अगर ख़ुदा की बन्दगी नहीं की, प्रभु की भक्ति नहीं की, तो जन्म लेना व्यर्थ गया। जन्म लेना फ़िज़ूल गया। और फ़िज़ूल किसने किया? हमने खुद किया। अगर हमने सुमिरन नहीं किया, अगर हमने बन्दगी नहीं की, जनमु अकारथ कीनु॥ हमने ख़ुद ही अपना जन्म, अपनी ज़िन्दगी फ़िज़ूल गँवा दी। तो ज़रूरी होता है, मक़सद पूरा करना। यहाँ आने का मक़सद प्रभु की बन्दगी करना है। प्रभु के गुण गाने हैं। प्रभु की भक्ति करनी है। अगर वह नहीं की, तो जीवन व्यर्थ। जीवन फ़िज़ूल गया।
गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
धनु दारा स्मपति सगल जिनि अपुनी करि मानि ॥
इन मै कछु संगी नही नानक साची जानि ॥५॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी)।
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के इस शलोक की व्याख्या इस वीडियो में की गयी है…
बिरधि भइओ सूझै नही कालु पहूचिओ आनि ॥
कहु नानक नर बावरे किउ न भजै भगवानु ॥४॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी)।
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के इस शलोक की व्याख्या इस वीडियो में की गयी है…
अगर हमें गुरु से मुहब्बत है, तो हम गुरु की बात मानेंगे…
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तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(१४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के इस शलोक की व्याख्या इस वीडियो में की गयी है…
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बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(१४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।
श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी के इस शलोक की व्याख्या इस वीडियो में की गयी है…