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अमेरिका में भारतियों पर नसलवादी हमले

संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) में 22 फ़रवरी, 2017 को नस्लवादी हमले में भारतीय मूल के एक और व्यक्ति श्रीनिवास कुचीभोतला का एडम पुरिन्टन नाम के एक शख़्स ने क़त्ल कर दिया। दो आदमी ज़ख़्मी भी हुए हैं। इन ज़ख़्मी लोगों में भी एक भारतीय मूल का आलोक मदसानी है। दूसरा ज़ख़्मी व्यक्ति इयान ग्रिलट है।

अमेरिका में ही सन २००१ में एक नस्लवादी हमले में भारतीय मूल के ही वासुदेव पटेल की हत्या हुई थी। उस हत्या के लिये जुलाई २०, २०११ को टैक्सास की एक जेल में मार्क स्ट्रोमन को ज़हर का टीका लगा कर मौत की सज़ा दी गई थी। मार्क स्ट्रोमन की मौत के अगले ही दिन मैंने एक लेख लिख कर अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित किया था। उसी लेख को मैं यहाँ पढ़ कर सुना रहा हूँ।

वह लेख इस प्रकार है:-

मार्क स्ट्रोमन को सज़ा-ए-मौत

मार्क स्ट्रोमन को सज़ा-ए-मौत

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

अमरीका में मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने जब अक्टूबर ०४, सन २००१ में वासुदेव पटेल के सीने में अपनी पिस्तोल से गोली मार कर उसकी हत्या की, वह (स्ट्रोमन) इस कत्ल को देश-भक्ति का कारनामा समझ रहा था.

इस हत्या से लगभग एक साल बाद तक भी उस का विचार बदला नहीं था. अपने ब्लॉग पर उसने कुछ ऐसा लिखा, “यह कोई नफ़रत का अपराध नहीं, बल्कि भावना और देशभक्ति का कार्य था, देश और समर्पण का कार्य, बदला लेने, सज़ा देने का कार्य था. यह शान्ति के समय नहीं, बल्कि युद्ध के वक्त किया गया था.”

परन्तु, जब उस को मौत की सज़ा सुनाई गई, उस के बाद उस ने फ़रमाया, “मैं अफ़सोस के साथ कहता हूँ कि मेरे गुस्से, दुःख और हानि की कीमत निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ी. मैंने अपने और मेरे शिकार बने लोगों के परिवारों को नष्ट कर डाला है. निरोल गुस्से और मूर्खता से, मैंने पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और सउदी अरब के कुछ लोगों के साथ कुछ किया. और अब मैं सज़ा-ए-मौत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. और, किसी तरह से भी मुझे उस पर गर्व नहीं हैं, जो मैंने किया.”

वासुदेव पटेल की हत्या से पहले मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने सतंबर १५ को पाकिस्तानी मूल के वकार हसन के सिर में गोली मार कर उसका कत्ल कर डाला था. महज़ छः दिन बाद ही मार्क स्ट्रोमन ने रईसउद्दीन के चेहरे पर गोली दाग दी. रईसउद्दीन की जान तो बच गई, मगर उस की एक आँख सदा-सदा के लिये नकारा हो गई.

सतंबर ११, २००१ को संयुक्त राज्य अमरीका के भीतर हुए हमलों की वजह से मार्क स्ट्रोमन बहुत गुस्से में था. उसे लगता था कि अमरीकी सरकार ने इन हमलों का बदला लेने के लिये कुछ नहीं किया और उसे ही कुछ करना होगा. उसने तीन लोगों को मध्य-पूर्व के लोग (अरब मुस्लिम) समझ कर उन पर हमले किये. इन में से दो लोग (पटेल और वकार हसन) की मौत हो गई.

पटेल और वकार हसन का अमरीका के भीतर हुए उन हमलों में किसी प्रकार का कोई हाथ नहीं था. गुस्से में पागल एक व्यक्ति के फतूर का शिकार बने इन मज़लूमों को तो यह भी नहीं पता था कि उन पर हमला आखिर किया क्यों गया.

हैरानी की बात तो यह है कि वासुदेव पटेल न तो मुसलमान था, न ही किसी अरब देश का नागरिक. वह भारतीय मूल का हिंदू था. वह तो सिर्फ इसीलिए मारा गया, क्योंकि कोई सिर-फिरा कातिल उसे मुस्लिम समझ रहा था.

अमरीका में वासुदेव पटेल अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो किसी सिर-फिरे की गलतफहमी का शिकार बना. बहुत से सिख भी सिर्फ इस लिये निशाना बने, क्योंकि हमलावर उन्हें मुसलमान समझ रहे थे.

कुछ देर की नफ़रत ने विश्व भर में कितने ही लोगों की हत्याएँ करवाईं है ! नफ़रत की आंधी में कितनी ही स्त्यवंती नारियों के साथ दुराचार हुआ है ! चाहे १९४७ के अगस्त महीने में भारत के विभाजन की बात हो, १९८४ में सिक्खों का कत्लेआम हो, पंजाब में बसों से उतार कर हिंदुओं की हत्याएँ करना हो, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार हो या कश्मीर में पंडितों का दमन, इन्सान के भीतर रहते शैतान के बुरे कामों की सूची बहुत लम्बी है.

मौत की सज़ा का इंतज़ार करते हुए मार्क स्ट्रोमन ने कहा था, “मैं आपको यह नहीं कह सकता कि मैं एक बेगुनाह व्यक्ति हूँ. मैं आपको यह नहीं कह रहा कि मेरे लिये अफ़सोस करो, और मैं सच्चाई नहीं छुपाऊँगा. मैं एक इन्सान हूँ और मैंने प्यार, दुःख और गुस्से में एक भयन्कर भूल की. और मेरा विश्वास करो कि मैं दिन के एक-एक मिनट में इस की कीमत चूका रहा हूँ.”

कुछ भी हो, मार्क स्ट्रोमन ने अपना गुनाह कबूल किया और अपने पछतावे का इज़हार भी किया. अपने गुनाह को मान लेने से गुनाहगार का गुनाह माफ़ तो नहीं होता, मगर इस से कुछ और लोगों को गुनाहगार न बनने की प्रेरणा ज़रूर मिलती है. गुनाहगार का पछतावा कुछ हद तक कुछ लोगों को वही गुनाह करने से रोकता है.

१९८४ में सिक्खों का कत्लेआम, पंजाब में हिन्दुओं की हत्याएँ, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार या कश्मीर में पंडितों का दमन करने के किसी भी तरह के दोषी क्या मार्क स्ट्रोमन का अनुसरण करेंगे? क्या वे अपने गुनाह कबूल करेंगे? गुनाह कबूल करना भी कुछ हद तक बहादुरी ही है. क्या निर्दोषों की हत्याएँ करने वाले अपना गुनाह कबूल कर के कुछ बहादुरी दिखायेंगे?

जुलाई २०, २०११ को टैक्सास की एक जेल में मार्क स्ट्रोमन को ज़हर का टीका लगा कर मौत की सज़ा दे दी गई।

यह एक कथा है । पाकिस्तान की स्थापना

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#शरणार्थी_मुद्दे । #पाकिस्तान_की_स्थापना

यह एक कथा है, जो मज़हब के नाम पर रची गई। इसमें ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु की बन्दगी की बात नहीं होने वाली थी। राम वाले, अल्लाह वाले, वाहेगुरु वाले बस बेचारे-से बन के रह गये थे। हुक्मरान बनने की भूख से तड़प रहे ख़ुदग़रज़ सियासतदानों की चालों की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है, जो बहुतों के लिए बहुत पुरानी है। जो इस कथा के पात्र हैं, उनके लिए यह अभी कल की ही बात है। कहते हैं कि वक़्त रुकता नहीं, लेकिन कभी-कभी किसी-किसी के साथ ऐसा भी हो जाता है कि उसके लिये वक़्त थम-सा जाता है। जैसे बर्फ़-सी जम गयी हो ज़िन्दगी। जैसे किसी ब्लैक-होल में गिर पड़ी हो एक पूरी की पूरी नस्ल। रुक गये किसी वक़्त की ही तो कथा है यह।

कोई अटका हुआ है पल शायद।
वक़्त में पड़ गया है बल शायद।
(गुलज़ार)।

यह एक कथा है उन लोगों की, जो जैसे मुजरिम-से करार दे दिए गए हों। जिनका जुर्म था कि वे किसी अलग मज़हब से ताल्लुक रखते थे। जिनका जुर्म था कि वे हिन्दू थे। जिनका जुर्म था कि वे सिख थे। यही उनकी इकलौती पहचान थी। यही पहचान तो उनकी बर्बादी की वजह बन गयी थी। कभी-कभी हो जाता है ऐसा भी कि लापरवाह होना भी गुनाह हो जाता है। वक़्त के मिज़ाज को न समझने की लापरवाही की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है, ख़ैबर पख्तूनख्वा की। बलूचिस्तान की। सिन्ध की। पश्चिमी पंजाब की। और कश्मीर की। लहू की नदी के किनारे एक नये मुल्क की बुनियाद रखने की। अपने बुज़ुर्गों की धरती से बेदखल किये जाने की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है क़त्लेआम की, लूट की, आगज़नी की, अपहरणों की, दर-बदर होने की, और, ………… बलात्कारों की। क़ातिलों, लुटेरों, आगज़नों, अग़वाकारों, और बलात्कारियों की शिनाख़्त तक भी न होने की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है बहुत-से रावणों की, जिस में कहीं कोई राम न थे, जिस में कहीं कोई लक्ष्मण न थे। कितनी ही सीता जैसी सतवंती औरतें यहाँ अग़वा कर ली गयीं। कितनी ही द्रौपदियां अपमानित हुईं। कृष्ण की ग़ैर-मौजूदगी में हुई एक महाभारत की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है बहुत शिक्षाप्रद। अक़्ल की बहुत बातें छिपी हैं इसमें। कथा में शिक्षा हो, यह अलग बात है। कथा में दी गयी शिक्षा से कोई सचमुच ही शिक्षा प्राप्त कर ले, यह अलग बात है। भयंकर ख़ून-ख़राबे से भी शिक्षा न लेने वाले लोगों की ही तो कथा है यह।

यह एक कथा है धरती के एक हिस्से के बटवारे की। मज़हब के नाम पर लोगों को बांटने का अन्जाम है इसमें। बहकावे में आये सियासतदानों की गाथा है। यह ब्रिटिश इण्डिया के टुकड़े होने की कहानी है। 1947 में पाकिस्तान बनने की ही तो कथा है यह।

हिन्दू और सिख शरणार्थियों की मदद कीजिये

#शरणार्थी_मुद्दे

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

पाकिस्तान में मज़हबी कट्टरवादियों की वजह से सैंकड़ों हिन्दू परिवार पिछले कुछ सालों में भारत में आकर शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं, जिनको भारतीय नागरिकता (हिंदोस्तानी शहरियत) प्राप्त हो चुकी है। लेकिन बहुत परिवार ऐसे भी हैं, जिनके मेम्बरान को, सदस्यों को अभी तक भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं हुई है।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की हुकूमत आने के बाद अफ़ग़ान हिन्दूओं और सिक्खों ने भारत में शरण ली। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान हुकुमत ख़त्म होने के बाद भी वहां दहशतगर्दी की स्थिति में कुछ ख़ास फ़र्क़ ना आने की वजह से भारत में रहने वाले अफ़ग़ान हिन्दू और सिख वापस नहीं जा सके। अब तो अफ़ग़ानिस्तान मेँ तालिबान दुबारा ज़ोर पकड़ते जा रहे हैं, इसलिये इन अफ़ग़ान हिन्दू और सिख शरणार्थियों के वापस अफ़ग़ानिस्तान जाने की उम्मीद भी नज़र नहीं आती। अफ़ग़ानिस्तान के हालात को ले कर रूस, अमेरिका, चाइना, पाकिस्तान, और अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमतों ने कई बार मीटिंग्स की हैं, पर इन अफ़ग़ान हिन्दुओं और सिखों के बारे मेँ कभी भी कोई सलाह-मशविरा नहीं हुआ है।

उधर बांग्लादेश में हिन्दूओं के लिए स्थिति पिछले कुछ सालों से लगातार ख़राब होती जा रही है। हिन्दूओं के क़त्ल, हिन्दूओं के घरों और धार्मिक स्थानों पर हमले एक आम बात हो गई है। इस वजह से हज़ारों हिन्दू बांग्लादेश में अपने घर छोड़कर भारत में आकर शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। उनमें से कई ऐसे हैं, जिनको नागरिकता दी गई है, लेकिन फिर भी बहुत लोग ऐसे हैं, जिनको अभी तक नागरिकता नहीं मिली। असम जैसे कुछ राज्यों में कुछ लोग बांग्लादेशी हिन्दूओं को भारतीय नागरिकता देने का विरोध भी कर रहे हैं।

मेरा यह मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, और पाकिस्तान से आए इन हिन्दू शरणार्थियों को छानबीन के बाद जितनी जल्दी हो सके, भारतीय नागरिकता मिलनी चाहिए। साथ ही साथ, मेरा यह भी मानना है कि सिर्फ़ नागरिकता देने से इन शरणार्थियों की समस्याएँ हल नहीं होने वालीं। उनको यहां पूरी तरह से स्थापित करने के लिए बहुत कोशिशें करनी पड़ेंगी। नागरिकता देना सिर्फ़ एक क़दम है। उनके लिए यहां रोज़गार के भी प्रबंध करने होंगे। उनके लिए सस्ते घरों का भी इंतज़ाम करना होगा।

एक बहुत महत्वपूर्ण क़दम और है, जो भारत में रहने वाले हिन्दूओं और सिखों को उठाना चाहिए।
पाकिस्तान, बांग्लादेश, और अफ़ग़ानिस्तान से आए इन हिन्दू शरणार्थियों में बहुत लड़के और लड़कियां अविवाहित हैं। भारत में रहने वाले हिन्दूओं को चाहिए कि वह इन लड़कों और लड़कियों को अपने लड़कों और लड़कियों के रिश्ते दें और उनकी शादियाँ कराएँ। इससे शरणार्थियों को यहां के समाज में घुल मिल जाने में बहुत आसानी होगी। साथ ही साथ उनको नागरिकता प्राप्त करने में कुछ सुविधा भी हासिल हो जाएगी, क्योंकि शादी करके भारत में नागरिकता लेने शायद आसान होगा। एक शरणार्थी परिवार के लिए एक अविवाहित लड़की की ज़िम्मेदारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। अगर उनकी अविवाहित लड़की की शादी भारत के ही किसी सथापित परिवार में हो जाए, तो उनको एक बड़ी चिंता से छुटकारा भी मिलता है और बाकी के परिवार को यहां मदद भी मिलती है।

भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच शादियाँ शुरू से ही हो रही हैं, लेकिन यह शादियाँ ज़्यादातर भारतीय मुस्लिम परिवारों और उन पाकिस्तानी मुस्लिम परिवारों में हो रही है, जो भारत से हिजरत करके पाकिस्तान चले गए थे। पाकिस्तान में इनको अक्सर मुहाजिर के नाम से जाना जाता है। मुहाजिर का शाब्दिक अर्थ होता है हिजरत करने वाला। यह उर्दू बोलने वाले वह लोग हैं, जो 1947 में या उसके बाद भारत से हिजरत कर के पाकिस्तान चले गए थे। इन मुहाजिरों का भारत में पीछे रह गए अपने रिश्तेदारों से संपर्क बना रहा। पाकिस्तान में जाकर बसने के बावजूद पाकिस्तान के अलग अलग सूबों के लोगों से उनके उतने गहरे सम्बन्ध नहीं बन पाए, जितने गहरे सम्बन्ध उनके भारत में रहने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों से हैं। इसकी साफ़ वजह यह है कि उनकी ज़ुबान, तहज़ीब, और रस्मो-रिवाज भारत के मुसलमानों से ज़्यादा मिलते हैं।

भारतीय मुस्लिम लड़की का शादी करके पाकिस्तान में बस जाना या पाकिस्तानी मुस्लिम लड़की का शादी करके भारत में बस जाना कुछ आम-सी बात है।

इसके मुक़ाबले में पाकिस्तानी हिन्दू परिवारों की शादियाँ भारतीय हिन्दू परिवारों में कम ही हुई हैं। वैसे, कई पाकिस्तानी और भारतीय हिन्दू परिवार हैं, जिनकी आपस में रिश्तेदारियां हैं। कुछ मामलों में यह रिश्तेदारियां 1947 के बंटवारे के पहले से बनी हुई हैं। कुछ रिश्तेदारियां 1947 के बाद भी बनी हैं। लेकिन इतनी बात तो ज़रूर है कि हिन्दू परिवारों में यह रिश्तेदारियां कम और मुस्लिम परिवारों में यह रिश्तेदारियां ज़्यादा बनी हैं।

पाकिस्तान के सिंध के इलाक़े में ऐसे हिन्दू परिवार हैं, जिनके कुछ रिश्तेदार भारत में रहते हैं। इन परिवारों में कभी-कभार शादी होने की ख़बरें भी सुनने में आती हैं।

भारत में जो सियासी हालात हैं, जो राजनैतिक स्थिति है, उसे देखते हुए यह सोचना ग़लत है कि बांग्लादेश, पाकिस्तान, और अफ़ग़ानिस्तान से आए शरणार्थी परिवार सिर्फ़ सरकारी सहायता से ही यहां भारत में जल्दी स्थापित हो जाएंगे। बाहर से आए ये शरणार्थी यहां के लोगों की खुले दिल से की गई सहायता के बिना यहां जल्दी स्थापित ना हो पाएंगे। बिना सहायता के ये यहाँ स्थापित हो जाएंगे, परन्तु जल्दी स्थापित नहीं हो पाएंगे।

1947 मेँ पाकिस्तान बनने के बाद भी भारत के अन्दर कई रियासतें थी, जिनके राजा हिन्दू या सिख थे। उनमेँ से कुछ राजाओं ने पाकिस्तान से आने वाले बहुत हिन्दू और सिख शरणार्थियों की मदद की थी। उदाहरण के तौर पर पटियाला के महाराजा यादविंदर सिंह ने पाकिस्तान से आए हिन्दू और सिख शरणार्थियों के लिए दिल खोलकर सहायता की थी। उन हिन्दू और सिख राजाओं को कोई सियासी मजबूरियां ना थीं।

आज भारत के सियासी रहनुमाओं को, राजनेताओं को कुछ सियासी मजबूरियां हो सकती हैं। लेकिन क्या भारत में रहने वाले आम हिन्दूओं और सिखों को भी कोई सियासी मजबूरी है कि वह बांग्लादेशी, पाकिस्तानी, अफ़ग़ानिस्तानी हिन्दू और सिख शरणार्थियों की सहायता ना कर सकें?

बांग्लादेश, पाकिस्तान, और अफ़ग़ानिस्तान में हमारे लोगों की मुसीबतों पर हमारे चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं होने वाला, अगर हम ख़ुद हमारे ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे इन लोगों की अपने-अपने तरीक़े से कोई सहायता ना कर पाए, तो।

एक बात और है। अगर आप लोग इन शरणार्थियों की मदद नहीं भी करेंगे, तो भी ये यहां आपकी सहायता के बिना ही स्थापित हो जाएंगे। हां, आपकी आने वाली पीढ़ियां कभी यह नहीं कह पाएँगी कि उनके बुज़ुर्गों ने इन शरणार्थियों की कभी मदद की थी। याद रहे कि 1947 के वे शरणार्थी भी, जो अपने तन और मन पर ज़ख़्म ही ज़ख़्म ले कर ख़ाली हाथ यहाँ पहुँचे थे, और जिनकी यहाँ कुछ ख़ास सहायता नहीं की गई थी, आज यहाँ स्थापित परिवारों मेँ गिने जाते हैं।

माँ की महानता का सच । हल्की-फुल्की बातें

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

हर-एक उपदेश या हर-एक बात हर किसी के लिये हो, ऐसा हरगिज़ नहीं है। ऐसा मुमकिन नहीं है कि कोई ख़ास उपदेश या कोई ख़ास बात सुना कर हम हर किसी को कायल कर सकें। कुछ-एक बातें ऐसी भी होती हैं, जो कुछ लोगों के लिये बेमायनी होती हैं, अर्थहीन होती हैं।

मां की महानता का जिक्र बहुत सारे विद्वानों, संतो, महापुरुषों, और लेखकों ने किया है। इसमें कोई शक भी नहीं कि इस संसार में मां का दर्जा बहुत ऊंचा है। यही वजह है कि बहुत सारे लेखकों ने कवियों ने शायरों ने मां के बारे में बहुत ही खूबसूरती से लिखा है।

कौन है, जो माँ की तारीफ़ न करता हो? माँ की महानता का ज़िक्र करते हुए बहुत से मैसेजस सोशल मीडिया पर भी बहुत भेजे जाते हैं। मैं ख़ुद भी ऐसे कई मैसेज औरों को भेजता रहा हूँ।

माँ की महानता का यह सच हम सभी जानते हैं। लेकिन, यह भी एक ग़मगीन हक़ीक़त है कि हमारा यह सच किसी और के लिये सच नहीं भी होता।

ऐसे भी कुछ बदनसीब हैं, जिनके लिये माँ की महानता का सच बिलकुल भी सच नहीं है। ये वे बच्चे हैं, जिनकी माँ उनको पालने में ही छोड़ कर चली गयी, और किसी और मर्द के साथ अपना नया घर बसा लिया। माँ के ज़िन्दा होने के बावजूद जो बच्चा यतीम की तरह पला-बढ़ा, उसके आगे मैं माँ की महानता का व्याख्यान कैसे करूँ? हाँ, यह सच है कि ऐसे भी कुछ बदनसीब हैं, जिनके आगे किसी की भी जुबान बंद हो सकती है।

27-28 साल पहले 3-4 महीने की एक बच्ची को उसकी माँ छोड़कर चली गई और दूसरी जगह किसी और मर्द के साथ ग़ैर-कानूनी तौर पर शादी करके अपना घर बसा बैठी। वक़्त बीता। जब वह बच्ची थोड़ी बड़ी हुई, तो उसका बाप भी दिमाग़ी परेशानी की वजह से घर छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चला गया। उस बच्ची को उसके दादा-दादी ने जैसे-तैसे पाल-पोस कर बड़ा किया। फिर उसकी शादी भी करा दी।

फिर वह मेरे सम्पर्क में आई। उसकी कहानी का तो मुझे पता था, लेकिन कभी उसके मुंह से नहीं सुना कि उसने माँ के बिना और फिर बाप के बिना ज़िन्दगी कैसे बिताई।

अब, मैंने कई बार उसकी बातें सुनी। बहुत बार लम्बी बातचीत हुई। अब मेरे पास पूरी समझ है कि उसने अपनी माँ के बिना और फिर अपने पिता के बिना अब तक की ज़िन्दगी कैसे बिताई।

वह अब मुझे ‘पापा’ कहती है। माँ-बाप के बिना गुज़रे उसके दिन तो मैं नहीं लौटा सकता। हाँ, कुछ कोशिश कर सकता हूँ कि उसकी ज़िन्दगी की यह कमी आने वाले वक़्त में कुछ कम हो जाये।

जब कभी मेरे पास व्हाट्सएप्प (Whatsapp) जैसे किसी ऐप पर माँ या पिता की महानता का कोई मैसेज आता है, तो मेरी हिम्मत नहीं होती कि वह मैसेज मैं अपनी उस बेटी को भेज सकूँ, फॉरवर्ड कर सकूँ।

गर्व या शर्मिंदगी? । हल्की-फुल्की बातें

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

एक सवाल अक्सर मेरे ज़ेहन में आता है कि जिनको अपने बुज़ुर्गों के अच्छे काम पर फ़ख़्र होता है, गर्व होता है, क्या उनको अपने बुज़ुर्गों के या अपने ही समाज के आजकल के लोगों के बुरे काम पर शर्मिंदगी भी होती है कि नहीं?

एक बार कुछ भाइयों से बात हो रही थी। वे कह रहे थे कि उन्हें फ़ख़्र है कि उन्होंने यह किया, उन्होंने वह किया।

मैंने कहा, “वे जो काम हुए, वे आप लोगों ने नहीं किये, बल्कि हमारे बुज़ुर्गों ने, हमारे पूर्वजों ने किये थे। आपने क्या किया, यह बताईये, सिवाए इसके कि गुरद्वारों के अन्दर तलवारें चलाईं और एक-दूसरे की पगड़ियां उतारीं? आप जो आज कर रहे हैं, उस पर शर्मिन्दगी होती है कि नहीं?”

1947 के बंटवारे में सैकड़ों हिन्दू और सिख औरतों ने सामूहिक आत्महत्याएं की। अभी तक फ़ख़्र करते हैं लोग। मैं जब वह सब सोचता हूँ, तो दर्द से भर जाता हूँ। फ़ख़्र कैसा, भाई? बहुत ग़म की बात है कि हम उनकी हिफ़ाज़त नहीं कर पाये।

देवी दुर्गा और माई भागो की वीरता की गाथाओं पर फ़ख़्र करने वाले लोग अपनी उन हज़ारों निरापराध असहाय औरतों पर फ़ख़्र करते हैं, जिन्होंने अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये सामुहिक ख़ुदकुशी कर ली थी, ताकि वे गुण्डों के हाथ न आ जाएं। वे इस बात पर दुःख या शर्मिंदगी क्यों नहीं महसूस करते कि इन औरतों की हिफ़ाज़त नहीं की जा सकी?

अपने अन्दर के खोखलेपन को गर्व की घास-फूस से, फ़ख़्र की चादर से ढांकने की कोशिश करते हैं बहुत लोग।

भूल गये राग-रंग । हल्की-फुल्की बातें (Hindi)

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

#हल्की_फुल्की_बातें

लगभग 25-26 साल पुरानी बात है। देहरादून की। स्टूडेंट लाइफ थी। एक सज्जन मेरे होस्टल के पास दुकान करते थे। पंजाबी थे। इसलिये मेरा स्वाभाविक ही उनसे दोस्ताना हो गया।

उन्होंने एक बार मुझे यह पंजाबी में सुनाया:-

भुल्ल गये राग-रंग, भुल्ल गयी चौकड़ी।
तिन्न गल्लां याद रहियां, आटा, लूण, लकड़ी।

हिन्दी में यह कुछ ऐसे होगा:-

भूल गये राग-रंग, भूल गयी चौकड़ी।
तीन बातें याद रहीं, आटा, नमक, लकड़ी।

कुछ दिन बाद मैंने उन्हें यही पंक्तियां सुनाई, पर ‘लूण’ (नमक) की जगह ‘तेल’ बोल गया:-

भुल्ल गये राग-रंग, भुल्ल गयी चौकड़ी।
तिन्न गल्लां याद रहियां, आटा, तेल, लकड़ी।

वह बोले, “तेल नहीं, लूण। ज़िन्दगी जब सबक सिखाने पर आती है, तो आदमी तेल भी भूल जाता है।”

वक़्त बीता। मैंने देहरादून छोड़ दिया और वापिस पंजाब आ गया। बहुत बरसों बाद जब फिर देहरादून गया, तो पता चला कि उनकी मौत हो चुकी थी।

अब जब कोई सब्ज़ी या दाल वगैरह बनाता हूँ, तो सेहत की वजह से तेल या घी बिलकुल नहीं डालता। पर उनकी वह बात बहुत याद आती है, “तेल नहीं, लूण। ज़िन्दगी जब सबक सिखाने पर आती है, तो आदमी तेल भी भूल जाता है।”

भाई, वक़्त ने तो ऐसे-ऐसे सबक़ सिखाये हैं कि मैं नमक भी भूलता जा रहा हूँ।

तरनापो इउ ही गइओ (लेख)

(यह लेख हमारी विडियो का लिपियंत्रण है। विडियो देखने के लिए, कृपा इस पेज पर जाइए: https://www.youtube.com/watch?v=Im7fm_VtIMk )

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

‘तरनापो’ कहते हैं तरुण अवस्था को। जवानी की उम्र को, यौवन को। गुरु तेग़ बहादुर साहिब महाराज कह रहे हैं कि यौवन तो ऐसे ही बीत गया।

‘लीओ जरा तनु जीति’॥ ‘जरा’, बूढ़ापा। अब तन को, अब शरीर को बूढ़ापे ने जीत लिया। अब शरीर पे बूढ़ापा आ गया है।

‘तरनापो इउ ही गइओ’, ऐसे ही चला गया। कैसे चला गया? इस से पहले वाले शलोक में गुरु साहिब ने कहा, ‘बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥’ वह जो विषय हैं, ‘बिखिअन’, विषय, उनमें लग कर यौवन चला गया। तरुण अवस्था चली गयी। पाँच प्रकार के विषय हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध। हमने पहले कहा कि अपने आप में ये पाँच विषय विकार नहीं हैं। लेकिन जब इन्सान इन पाँच विषयों में लग कर अपने जीवन का असल मक़सद भगवान की भक्ति करना, प्रभु की बंदगी करना भूल जाये, तो ये पाँच विषय ही इन्सान के मन में विकार पैदा कर देते हैं। ये पाँच विषय यौवन अवस्था में, जवानी में सब से ज़्यादा ताक़तवर होते हैं। वैसे तो जब इन्सान पैदा होता है, पैदा होते समय ही उसको आप-पास की वस्तुओं से, आस-पास के लोगों से मोह होने लगता है।

बच्चा पैदा होते समय ही दूध की इच्छा करता है। दूध की चाहना करता है।

‘पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥’ (137, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी) गुरवानी में आता है। सबसे पहला प्यार बच्चे को दूध से ही होता है। दूध रस है। पाँच विषयों में एक विषय है रस। आहिस्ता-आहिस्ता उसका और विषयों के प्रति भी मोह बढ़ता जाता है। लेकिन, सबसे ज़्यादा उसका मोह इन पाँच विषयों की तरफ़ तब होता है, जब वह यौवन अवस्था में होता है, जब वह जवानी की उम्र में होता है। पहले विषयों के प्रति उसका लगाव कम होता है। वह आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता जाता है जवानी में वह सब से ज़्यादा होता है। और जैसे-जैसे जवानी ढलने लगती है, विषयों के प्रति उसका लगाव भी कम होता जाता है। सब-से ज़्यादा ज़ोर जवानी के समय में होता है। यौवन, तरुण अवस्था के समय में होता है।

‘तरनापो इउ ही गइओ’। जवानी की अवस्था ऐसे ही चली गयी विषयों में। जो जीव के अंदर, इन्सान के अंदर विकार बन के चिपटे रहे। अब, जबकि जवानी विषयों में लग कर बीत गयी, शरीर को अब बूढ़ापे ने जीत लिया। अब वृद्धावस्था आ गयी। अब वह बूढ़ा हो गया। जीव जब पैदा होता है, तो उसका शरीर कमज़ोर होता है। उसके अंग पूरी तरह से विकसित भी नहीं हुये होते। लेकिन जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती जाती है, उसके शरीर में ताक़त आती जाती है। उसका शरीर ताक़तवर होता जाता है। लेकिन, जैसे-जैसे जवानी ढलने लगती है, जैसे-जैसे वह बूढ़ापे की तरफ़ क़दम बढ़ता जाता है, वह ताक़तवर शरीर कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। उसके अंग श्थिल होने शुरू हो जाते हैं। कानों से कम सुनाई देने लगता है। शरीर की चमड़ी ढीली पड़ने लगती है। आँखों से कम दिखाई देने लगता है। शरीर के सभी अंग कमज़ोर होने लगते हैं। यहाँ तक कि उसका दिमाग़ भी कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। उसकी याददाश्त कम होनी शुरू हो जाती है। दिमाग़ भी तो आख़िर शरीर का एक अंग है न। वह बाहर से नहीं दिखता। शरीर के भीतर है। वह भी कमज़ोर होना शुरू हो जाता है। जो काम वह जवानी में कर सकता था, अब वह बूढ़ापे में नहीं कर सकता। जवानी में जैसे वह बहुत दूर दूर तक चला जाता था, बूढ़ापे में वह नहीं जा सकता। जवानी में वह बिलकुल हल्की सी आवाज़ भी सुन सकता था, बूढ़ापे में अब उसको ऊंचा सुनाई देने लगता है। जवानी में वह ज़्यादा भार उठा सकता था, बूढ़ापे में अब वह ख़ुद भार बन गया है। अपने सहारे चल भी नहीं सकता। अपने सहारे उठ भी नहीं सकता। जवानी में उसे कितनी बातें याद थीं। बूढ़ापे में अब वह बातें भूल रही हैं उसको। अब कुछ नयी चीज़ याद करने की कोशिश करता है, तो उस तरह से याद नहीं होती, जैसे जवानी में याद हो जाती थी। जो जवानी में कर सकता था, अब बूढ़ापे में नहीं कर पाता। ऐसे ही, जवानी में वह प्रभु की भक्ति ज़्यादा अच्छे तरीके से कर सकता था। अब वह बूढ़ापे में नहीं कर पाएगा।

फ़रीद साहिब का श्लोक है, ‘फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ ॥’ (१३७८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)। जब बाल काले थे, यानि जवानी की उम्र थी, तब जिसने प्रभु की बन्दगी नहीं की। तो कोई विरला ही होगा, जो बूढ़ापे में जा कर बन्दगी करना शुरू कर दे। जवानी में जिन्होने ने बन्दगी नहीं की, उनमें से कोई विरला होगा, जो बूढ़ापे में जाकर बन्दगी करना शुरू कर दे। ऐसा नहीं कि कोई नियम है कि जिसने जवानी में बन्दगी नहीं की, वह बूढ़ापे में बन्दगी कर ही नहीं सकता। ऐसा नहीं है।

गुरु अमरदास जी महाराज ने बाबा फ़रीद जी के इस श्लोक पर कि ‘फरीदा कालीं जिनी न राविआ धउली रावै कोइ’, इस पर अपना विचार देते हुये आगे कहा कि

मः ३ ॥ फरीदा काली धउली साहिबु सदा है जे को चिति करे ॥ (१३७८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)

कि बाल चाहे काले हों, बाल चाहे सफ़ेद हों, यानि चाहे कोई जवानी की अवस्था में हो, चाहे वह बूढ़ापे की अवस्था में हो, भगवान हमेशा मौजूद है। उसको महसूस किया जा सकता है। उसको पाया जा सकता है। ‘जे को चिति करे’। शर्त क्या है कि वह अपने चित में भगवान बसा ले। जवानी विषयों में गंवा दी। अब वृद्धावस्था आ गयी। अब बूढ़ापा आ गया। लेकिन अभी भी उम्मीद है। जवानी में बन्दगी नहीं की। बूढ़ापा आ गया। बहुत कम लोग होते हैं, जो जवानी में बन्दगी नहीं करते, लेकिन बूढ़ापे में जा कर लेते हैं। बहुत कम लोग होते हैं। फिर भी उम्मीद है। प्रभु की कृपा हो, तो वह बन्दगी की तरफ़ बूढ़ापे में जाकर भी लग सकता है।

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥

गुरु तेग़ बहादुर साहिब जी महाराज गुरु नानक के नाम का इस्तेमाल करते हैं, ‘कहु नानक’, हे नानक कहो। ‘भजु हरि मना’। हे मेरे मन! भज हरि को। प्रभु को याद कर। परमात्मा का सुमिरन कर। ‘अउध जातु है बीति’। तुम्हारी उम्र व्यतीत होती जाती है। तुम्हारी उम्र बीतती जाती है। जवानी तुमने विषयों में गवा दी। अब बूढ़ापे आ गया। लेकिन उम्मीद है अब भी। अब भी उम्मीद है कि गुरु की कृपा हो। अब भी उम्मीद है कि भगवान तुम पर रहम करे। अब भी वक़्त है कि तुम हरि का सुमिरन करो। ख़ुदा की बन्दगी करो। तुम्हारी यह उम्र बीतती जा रही है।

तरनापो इउ ही गइओ लीओ जरा तनु जीति ॥
कहु नानक भजु हरि मना अउध जातु है बीति ॥३॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

बिखिअन सिउ काहे रचिओ (लेख)

(यह लेख हमारी विडियो का लिपियान्तर है। विडियो देखने के लिए, कृपा इस पेज पर जाइए: https://www.youtube.com/watch?v=jbAhWs2mwEI )

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

एक आम इंसान को, एक संसारी व्यक्ति को बहुत-सी संसारी चीज़ें पसन्द होती हैं। वह संसार के जिन सुखों को भोगना चाहता है, जिन सुखों को वह भोगता है, उनको अपने पाँच ज्ञान इंद्रियों के ज़रिये भोगता है। और यह जितनी भी वस्तुएँ हैं, जिनको वह भोगता है, उनको पाँच समूहों में हम रख सकते हैं। ये पाँच समूह ही पाँच विषय हैं। ये पाँच विषय हैं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध।

जैसे, किसी को कुछ सुनना अच्छा लगता है। हो सकता है उसको किसी ख़ास तरह का संगीत पसन्द हो। हो सकता है, उस को किसी ख़ास गायक की आवाज़ पसन्द हो। वह बार-बार अपनी पसन्द का संगीत सुनना चाहेगा। वह बार-बार अपने पसन्द के गायक को सुनना चाहेगा। यह जो सुनना है, यह विषय है ‘शब्द’। किसी को किसी भी प्रकार की कोई चीज़ सुनने में अच्छी लगे, चाहे वह संगीत हो, चाहे वह किसी व्यक्ति की आवाज़ हो, वह इस एक विषय में आ जाती है। वह विषय है, ‘शब्द’। ‘शब्द’ का अर्थ ही है आवाज़। इंग्लिश में sound ।

दूसरा विषय है, ‘स्पर्श’। कुछ छूना अच्छा लगे। किसी को क्या छूना अच्छा लगता है, किसी को क्या छूना अच्छा लगता है। माँ को अपने बच्चे को छूना बहुत लगता है। वह बार-बार अपने बच्चे को छूह लेना चाहती है। बार-बार अपने बच्चे को छूने से उसको अच्छा लगता है। किसी को ख़ास तरह के कपड़े पहनना पसन्द है। किसी को मख़मली, रेशमी कपड़े पहनना पसन्द है, क्योंकि कपड़ों की भी आखिर छोह होती है न। कपड़े भी छूते हैं हमारे शरीर को, टच (touch) करते हैं हमारे शरीर को। ऐसी कोई भी वस्तु, जो छूने में अच्छी लगती है, वह दूसरे तरह के विषय में आ जाती है, जिसको हम कहते हैं स्पर्श, छूना, टच।

इसके बाद आगे विषय है तीसरा, ‘रूप’। कुछ देखना सुन्दर लगता है। कुछ देखना अच्छा लगता है। फूल देखें, तो अच्छा लगता है। जी करता है बार-बार फूल देखें। कोई चेहरा पसन्द आता है। कोई चेहरा बहुत अच्छा लगता है। जी करता है उसको बार-बार देखें। जी करता है वह चेहरा बस हमारे सामने रहे हमेशा। जी करता है वह चेहरा हम से दूर न जाये। किसी को क्या चीज़ देखना पसन्द है, किसी को क्या चीज़ देखना पसन्द है। लेकिन, जो पसन्द है, वह है ‘रूप’। कोई रूप है, जो अच्छा लगता है। चाहे वह किसी फूल का रूप है, चाहे वह किसी इंसान का रूप है। हो सकता है, क़ुदरत के नज़ारे, वे किसी को देखना अच्छा लगे। क़ुदरत के नज़ारे भी हैं तो रूप। किसी को पहाड़ देखना अच्छा लगता है, किसी को नदियां देखना अच्छा लगता है। रूप है। फूल भी रूप है। किसी का चेहरा भी, पहाड़ भी रूप है, नदियां भी रूप हैं। चाँद, तारे, कुछ भी देखना अच्छा लगता है, तो वह रूप है। यह विषय है ‘रूप’।

चौथा विषय है ‘रस’। रस का यहाँ अर्थ है, स्वाद। टेस्ट (taste)। जो, रसना को अच्छा लगे, जो जीभ को अच्छा लगे। जो खाने में, जो पीने में अच्छा लगे, वह रस है। कितने इन्सान हैं, कितने जीव हैं। किसी को क्या अच्छा लगता है खाने में, पीने में; किसी को क्या अच्छा लगता है खाने में, पीने में। किसी एक को जो खाने में अच्छा लगता है, किसी दूसरे को वह अच्छा नहीं भी लग सकता। किसी को एक चीज़ पीने में अच्छी लगती है, किसी दुसरे को वही चीज़ पीने में अच्छी नहीं भी लग सकती। किसी को क्या खाना पसन्द है, किसी को क्या खाना पसन्द है। किसी को मीठा खाना पसन्द है, किसी को खट्टा खाना पसन्द है। मीठे की भी आगे अलग-अलग केटेगरीज़ (categories) हैं। किसी को किसी प्रकार का मीठा पसन्द है, किसी को किसी और प्रकार का मीठा पसन्द है। लेकिन यह जितना भी खाना है, जितना भी पीना है, वह एक विषय है, रस। किसी को फल खाने पसन्द हैं, किसी को सेब ज़्यादा अच्छा लगता है, केले नहीं अछे लगते। किसी को अनार अच्छे लगते हैं, ख़रबूज़ा अच्छा नहीं लगता। अपना-अपना टेस्ट डिवलप (develop) हो गया। किसी को कौन-सा रस पसन्द है, किसी को कौन-सा रस पसन्द है। बहुत लोग हैं, जो अमरूद नहीं खाना चाहते। उनको अमरूद न-पसन्द हैं। उनको लगता है कि अमरूद सख्त है। अमरूद का जो रस है, अमरूद का जो स्वाद है, वह उनको पसन्द नहीं। पर, बहुत ऐसे भी हैं, जिनको अमरूद का स्वाद ही अच्छा लगता है। किसी को खट्टी वस्तुएँ, खट्टी चीज़ें, चटनी वग़ैरह अच्छी लगती हैं। बहुत लोग हैं, जो खाना खाते समय अचार ज़रूर चाहते हैं, आचार की खटास उनको पसन्द है। किसी को मिर्च का तीखापन पसन्द है। यह जो जीतने भी स्वाद हैं, यह जीतने भी टेस्ट हैं, ये सभी एक विषय में आ जाते हैं। वह विषय है रस।

पाँचवाँ विषय है, ‘गन्ध’। गन्ध है: बू, smell । जो सूंघने में अच्छा लगे, जिसको सूंघें, तो मन खुश हो। जिसको सूंघें, तो अच्छा लगे। देखो, कितनी तरह के पर्फ्यूम आते हैं। क्यूँ आते हैं? कौन लोग खरीदते हैं? वे लोग, जिनको उस ख़ास तरह की smell, वह ख़ास तरह की सुगंध पसन्द है। कितने किस्में आती हैं परफ्यूमज़ (perfumes) की, अतर, फुलेल की। किसी को क्या पसन्द है, किसी को क्या पसन्द है। अलग-अलग खुशबुएँ हैं। रसोई में खाना बनता है। किसी को भूख नहीं लगती, लेकिन उस खाने की खुशबू से उसके अंदर भूख जाग पड़ती है। आम पड़े होते हैं, आम। आम की ख़ास तरह की खुशबू है, आम का अपना स्वाद है। आम की अपनी खुशबू है। वह आम की खुशबू आम इन्सान के अंदर ललक पैदा कर देती है उसको खाने के लिये।

जितनी भी वस्तुएं अच्छी लगती हैं, वे विषय हैं। और ये विषय पाँच समूहों में बांटे जाते हैं:- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। ये विषय अपने-आप में विकार नहीं हैं। आम तौर जब हम बात करते हैं, तो विषय-विकार, ऐसा इकट्ठा बोलते हैं। विषय विकार। अपने आप में वे विकार नहीं हैं। लेकिन इन्सान का उनके प्रति ज़रूरत से ज़्यादा लगाव हो जाना इन्सान के अंदर विकार बन जाता है। किसको अच्छा नहीं लगता रात में आकाश में चाँद को देखना, तारों को देखना। वह रूप है।

ओइ जु दीसहि अम्मबरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
(वाणी भक्त श्री कबीर जी, ३२९, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

अच्छा लगता है। आकाश में देखते हैं, अच्छा लगता है। चाँद अच्छा लगता है। तारे अच्छे लगते हैं। अपने आप में वे विकार नहीं है, रूप है। अपने आप में कोई विकार नहीं, लेकिन अगर कोई आदमी बस उसी रूप में ही फँस जाये, अपने जीवन का मक़सद उसको भूल जये, और बस चाँद देखने में लगा रहे, बस तारे देखने में लगा रहे, तो वह रूप जो बाहर अपने आप में विकार नहीं, इन्सान के अंदर विकार पैदा कर देता है। वह विकार पैदा होने से इन्सान्द अपने जीवन का असल मक़सद भूल जाता है।

मक़सद क्या था? इस संसार में आ कर भगवान की बन्दगी करना, भक्ति करना, प्रभु के नाम का सुमिरन करना। उस मक़सद को भूल जाता है। अपने आप मे विकार नहीं है रूप।

ऐसे ही शब्द अपने आप मे विकार नहीं है। संगीत अपने आप में क्या विकार है? कुछ भी नहीं। भक्त हुये, गुरु साहिबान हुये, उन्होने संगीत का इस्तेमाल किया। संगीत के साथ उन्होने गुरुवाणी गायी। और गुरुवाणी को संगीत के साथ गाना ही तो कीर्तन होता है। उसी को कीर्तन कहते हैं। और कीर्तन ज़रीया बनता है भगवान को पाने को, भगवान की तरफ़ जाने का। अपने आप मे संगीत विकार नहीं। लेकिन उन लोगों का क्या, जो दुनियावी संगीत में ही उलझ कर रह गये? और उनको लगता है की बस यह संगीत यही मक़सद है ज़िन्दगी का। उस संगीत में उन्होने ऐसे-ऐसे गीत गाये, जो गीत उनको भगवान से दूर ले जाने वाले हैं। संगीत अपने आप में विकार नहीं, लेकिन वह इन्सान के लिये विकार बन गया। शब्द विकार बन गया। आवाज़ विकार बन गयी।

ऐसे ही रस है। शरीर है, तो कुछ खाना पड़ेगा। शरीर को चलाने के लिये कुछ खाना पड़ेगा। खाना का मक़सद कि शरीर चलता रहे। शरीर का मक़सद है कि प्रभु की बन्दगी होती रहे। शरीर का मक़सद है कि लोगों की सेवा होती रहे। औरों का, दूसरों का भला होता रहे।

लेकिन, उनका क्या, जो रस में उलझ कर रह गये? उनके जीवन के मक़सद यह हो गया कि खाना है बस। कुछ ख़ास तरह के स्वाद उनको अच्छे लगते हैं, वह खाना है। बहुत सी चीज़ें बाज़ार में मिलती हैं। टेलिविज़न पर उनकी बहुत एडवरटाईज़मेण्टज़ आती हैं। लोग उनको खाते हैं। और ऐसा बहुत बार पढ़ने में, सुनने में आता है कि वे चीज़ें खाने से सेहत का नुक़सान होता है। फिर भी लोग खाते हैं। ऐसी चीज़ें बहुत बिकती हैं। क्यों? उस रस की वजह से, उस स्वाद की वजह से जो लोगों को अच्छा लगता है, चाहे वह सेहत के लिये हानिकारक है। चाहे वह शरीर को नुक़सान देता है। वह रस विकार बन गया। परफ़्यूम (perfume) बिकते हैं, और बहुत से परफ़्यूम नुक़सान करते हैं। ज़रूरत से ज़्यादा परफ़्यूम लगाया हो, तो नुक़सान करता है। अस्थमा भी करता है। दमे की बीमारी। लेकिन वह परफ़्यूम अच्छा लगता है, वह खुशबू अच्छी लगती है। वह रस, वह गन्ध, वह स्पर्श, वह रूप, ये विकार बन गये। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध अपने आप में बुरे नहीं, लेकिन इन्सान उन्हीं में उलझ कर रह गया। उन्हीं में रच कर रह गया। उस से वह अपने जीवन का असल मक़सद भूल गया। अपने असल मक़सद से वह दूर हो गया। इसलिये ये पाँच विषय पाँच विकार बन गये।

गुरु तेग़ बहादुर जी महाराज कहते हैं: –

बिखिअन सिउ काहे रचिओ

किस लिये इन विषयों में तुम रचे पड़े हो? फंसे पड़े हो? उलझे पड़े हो?

निमख न होहि उदासु ॥

निमख कहते हैं निमेष को। आँख की पलक झपकने का जितना समय होता है, वह है निमेष। गुरुवाणी में उसको निमख कहा है। पुरानी पञ्जाबी का लफ़्ज़।

निमख न होहि उदासु ॥ तुम एक निमख के लिये, एक निमेष मात्र के लिये, पलक झपकने जितने समय के लिये भी तुम उदास नहीं होते।

उदास का यहाँ अर्थ है, उपराम हो जाना। उनके प्रति, उन विषयों के प्रति मोह नहीं रहना। उन विषयों के प्रति कोई attraction मन में न रहे। वह है उदास हो जाना। वे हों भी, तो भी कोई फ़र्क नहीं। वे न भी हों, तो भी कोई फ़र्क नहीं। आँख की पलक झपकने जितना समय, उतनी देर के लिये भी इन पाँच विषयों से मन उपराम नहीं होता। इन पाँच विषयों से मन दूर नहीं होता। इन पाँच विषयों को मन बार-बार, बार-बार हासिल करने की कोशिश करता है। किस लिये रचे पड़े हो पाँच विषयों में? एक पल के लिये भी, आँख झपकने जितना, आँख की पलक झपकने जितना समय, उतनी देर के लिये भी इनसे अपने मन को दूर नहीं करते हो।

कहु नानक भजु हरि मना

गुरु नानक पहले गुरु हुये हैं। उन्ही का नाम बाक़ी के गुरु साहिबान ने गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल किया। कहु नानक: नानक कहो। भजु हरि मना, हरि को भजो, हे मेरे मन! उस परमात्मा का सुमिरन करो। उस ख़ुदा की बन्दगी करो।

इस से क्या होगा?

परै न जम की फास ॥२॥

यम है मौत। फास है पाश, जो फंदा होता है रस्सी का बना। किसी इन्सान के गले में
फंदा डाल दो, उसको गले में फंदा डल गया, उसको कहीं भी घसीटते हुये ले जाओ। चाहो तो उसको कहीं भी टांग दो। गले में पड़ा हुया फंदा जब कस जाये, उसको हटाना बहुत मुश्किल हो जाता है। जिसके हाथ में उस फंदे का दूसरा सिरा है, वह जहां भी चाहे उसके घसीटता हुया ले जा सकता है। वह चाहे, तो उसको कहीं लटका भी सकता है। काल भी ऐसा करता है। मौत भी ऐसा करती है। वह कभी भी, कहीं भी इन्सान को, जीव को, किसी भी जीव को गले में फंदा डाल कर कहीं भी घसीट कर ले कर जा सकती है। यह जीवन का और फिर मर जाने का; मरने के बाद फिर जीने का, और जीने के बाद फिर मरने का, यह जो जन्म-मरण का चक्कर है, इसी में उलझाई रखती है यह मौत। कि मरोगे, तो फिर जियोगे। फिर नया जीवन मिलेगा, किसी और शरीर में चले जाओगे। अगर प्रभु की भक्ति करोगे, ख़ुदा की बन्दगी करोगे, तो इस चक्कर से मुक्त हो जाओगे। इस चक्कर से बच जाओगे। फिर बार-बार पैदा होना, और बार-बार मरना, यह ख़त्म हो जायेगा। अगर हे मेरे मन! तुम हरि को भजोगे, हरि की भक्ति करोगे, प्रभु का सुमिरन करोगे, ख़ुदा की बन्दगी करोगे, तो तुम्हारे गले में यम का पाश नहीं पड़ेगा।

पाँच विषयों में मत उलझना। अपने जीवन का मक़सद याद रखना। इस संसार में तुम क्यों आये हो? जिस मक़सद के लिये आये हो, वह मक़सद पूरा करो। वह मक़सद है ख़ुदा को याद करना, भगवान की बन्दगी करना। अगर तुम ऐसा करोगे, तो तुम्हारे गले में ‘परै न जम की फास’। यम का पाश तुम्हारे गले में नहीं पड़ेगा।

बिखिअन सिउ काहे रचिओ निमख न होहि उदासु ॥
कहु नानक भजु हरि मना परै न जम की फास ॥२॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

गुन गोबिंद गाइओ नही (लेख)

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

(यह लेख हमारी विडियो का लिपियान्तर है। विडियो देखने के लिए, कृपा इस पेज पर जाइए: https://www.youtube.com/watch?v=hOXsBsx6gfs )

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

हम कोई भी काम करें, उसके पीछे कोई न कोई मक़सद होता है। बिना मक़सद के हम कोई काम नहीं करते। अगर हम कोई मकान बनाते हैं, किसी इमारत की तामीर करते हैं, तो उसका यह मक़सद होता है कि हम उसको अपना घर बनाएँगे, उसमें रहेंगे। या, यह भी मक़सद हो सकता है कि हम उस को फ़ायदे पर आगे किसी और को बेच देंगे।

अगर हम कोई गाड़ी लेते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम ने अगर कहीं जाना हो, तो हमें आसानी रहेगी। घर में कोई भी चीज़ हम लेकर आते हैं, उसके पीछे कोई न कोई मक़सद होता है। घर में अगर हम टेलीविज़न लेकर आते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम टेलीविज़न पर आने वाले जो प्रोग्राम्स हैं, उनको देखेंगे। घर मे कम्प्युटर लेकर आते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम इस कम्प्युटर को इस्तेमाल करके अपने काम कर सकेंगे। अगर हम कोई किताब अपने घर लेकर आते हैं, तो उसका मक़सद है कि हम उस किताब को पढ़ेंगे। बच्चों को हम अगर पढ़ाएँ, तो उसका मक़सद है कि ये अच्छी तालीम हासिल करके किसी अच्छे रोजगार पर लगेंगे। अगर हम कोई काम करें, और उसका वह मक़सद, जिसके लिए वो काम किया गया, वह पूरा न हो, तो वह काम करना फ़िज़ूल रहा। हमने अगर मकान बनाया, तो उसका मक़सद यह था कि हम उसको अपना घर बनाकर उसमे रहेंगे, या उसको फ़ायदे पर किसी को बेच देंगे। अगर हम ने मकान बना लिया, लेकिन उसमे रहे न, और न ही उसको कहीं फ़ायदे पर किसी और को बेचा, तो वह मकान बनाने का मक़सद पूरा न होने की वजह से वह मकान बनाना फ़िज़ूल रहा। मकान बनाया तो सही, मगर उसको इस्तेमाल न किया। मकान वीरान पड़ा-पड़ा ख़राब हो गया। मकान वीरान पड़ा पड़ा गिरने लगा। मकान बनाना फ़िज़ूल गया। हम कोई गाड़ी खरीद कर घर लाये। मक़सद था कि इसको इस्तेमाल करेंगे। और कहीं सफर पर जाना होगा, तो इसको इस्तेमाल कर के हमें सफ़र करना आसान रहेगा। लेकिन गाड़ी लाये, और घर में खड़ी कर दी। उसको कभी इस्तेमाल नहीं किया। तो गाड़ी खरीदने का जो मक़सद था, जो पूरा न होने की वजह से, गाड़ी ख़रीदना फ़िज़ूल रहा। हर काम का मक़सद है। मक़सद पूरा न हुआ, तो वह काम करना फ़िज़ूल रहा। अगर हम कोई काम करते हैं, तो यही देखने में आता है कि उसका कोई न कोई मक़सद है। तो फिर, इस दुनिया में आने के पीछे हमारा कोई मक़सद नहीं होगा क्या? जिसने हमें बनाया, क्या उसने हमारे बनाने के लिए कोई मक़सद न सोचा होगा? हम इस संसार में आये, तो यहाँ आने का हमारा कोई मक़सद नहीं है क्या?

तीन बातें हैं: एक तो, कि इस संसार में हम आये, क्या उसका कोई मक़सद है? दूसरा, कि अगर कोई मक़सद है, तो वह मक़सद क्या है? और तीसरा, कि क्या हमने वह मक़सद पा लिया?

इस दुनिया में हम आये, तो उसका क्या मक़सद है?

भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥
अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥
(वाणी गुरु अर्जुन देव जी, १२, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

तुम्हें यह इंसान का शरीर मिला है, तो यह भगवान को मिलने का, गोविंद को मिलने को, उस ख़ुदा को मिलने का तुम्हें मौका मिला है। इस काम के इलावा, इस काम के उलट जाकर अगर कोई और काम तुम कर रहे हो, वह तुम्हारे काम के नहीं हैं। वह तुम्हारे लिए फ़िज़ूल हैं।

अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥

साधु की संगत में जाकर उस प्रभु का नाम भजो। उस प्रभु के नाम का सुमिरन करो। यह है मक़सद हमारा इस दुनिया में आने का। अगर यह मक़सद हमने पूरा कर लिया, तो ठीक। अगर यह मक़सद हमने पूरा न किया, तो हमारा यहाँ आना फ़िज़ूल रहा।

इसी लिये गुरु तेग़ बहादुर साहिब महाराज कहते हैं:

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥

गुन गोबिंद: गोविंद के गुण। प्रभु के गुण। ख़ुदा की सिफ़त सलाह।

गुन गोबिंद गाइओ नही: तुमने गाये नहीं प्रभु के गुण, तुमने ख़ुदा की सिफ़्त-सलाह नही की।
इसलिये, जनमु अकारथ कीनु: यह जो तुम्हारा जन्म है, यह फ़िजूल हो गया। तुमने अपने जन्म को फ़िजूल कर दिया। अकारथ, जो किसी अर्थ में न हो। जो किसी अर्थ में न हुआ, वह अकारथ। जिस का कोई फ़ायदा न हुआ हो, वह अकारथ। जो व्यर्थ गया, वह अकारथ। जो निरर्थक हो गया, वह अकारथ। क्योंकि तुमने प्रभु के गुण नहीं गाये, ख़ुदा की सिफ़्त-सलाह नहीं की, इसलिये तुम्हारा यह जन्म, इस दुनिया में आना व्यर्थ हो गया, फ़िज़ूल हो गया।

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥ जन्म को अकारथ कर दिया, व्यर्थ कर दिया। जैसे, मकान बनाया, लेकिन उसमें रहे नहीं, तो वह मकान बनाना अकारथ हो गया, व्यार्थ हो गया, फ़िजूल हो गया। इस संसार में आये, इस दुनिया में आये कि बंदगी करनी थी ख़ुदा की। वह नहीं की। सुमिरन करना था प्रभु का, वह नहीं किया, तो यहाँ आना निरर्थक हुआ। यहाँ आना फ़िज़ूल हुआ। यह जन्म फ़िज़ूल कर दिया।

कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥

कहू नानक। हे नानक, कहो। गुरु नानक पहले गुरु हुये। उन्ही का नाम ‘नानक’ लेकर जो बाक़ी गुरु साहिबान हुये, उन्होने वाणी उचारी है। अपना पाक-कलाम कहा।

कहु नानक हरि भजु मना। हे मन, हरी को भजो। हरि का सुमिरन करो। ख़ुदा की सिफ़त करो।
कैसे करो? जिह बिधि जल कउ मीनु ॥ जैसे पानी को मच्छी याद करती है। जैसे पानी के बिना मछली रह नहीं सकती। पानी के बिना मच्छी का ज़िंदा रहना सोचा भी नहीं जा सकता। पानी है, तो मच्छी की ज़िन्दगी है। ऐसे ही, प्रभु का सुमिरन हो, तो इंसान की ज़िन्दगी हो। प्रभु से बिछड़ कर जीवन भी कैसा? जो सच्चा भक्त हो, वह तो सोच भी नहीं सकता प्रभु के बिना, प्रभु की याद के बिना, प्रभु की बन्दगी के बिना ज़िंदा रहना।

राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥
(भक्त कबीर जी, १३६८, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

जो बिछड़ा हुआ महसूस करे अपने आप को प्रभु से, वह ज़िन्दा नहीं रह सकता। अगर ज़िन्दा रहे, तो वह बौरा हो जाएगा, पागल हो जायेगा। यह भक्त की स्थिति है। ऐसे उस प्रभु को याद करो, जैसे मच्छी पानी को याद करती है। जैसे पानी के बिना मछली नहीं रह सकती, पानी उसका जीवन बन गया। पानी उसकी ज़िन्दगी बन गयी। ऐसे प्रभु के भक्ति, ख़ुदा की बन्दगी तुम्हारा जीवन बन जाये। अगर ऐसे हो जाये कि तुम बन्दगी करने लगो, अगर ऐसा हो कि तुम बस सुमिरन ही करने लगो, फिर हम कह सकते हैं कि तुम्हारा जीवन का मक़सद पूरा हुया। तुम जिस काम के लिये आये थे यहाँ पर, वह काम तुमने पूरा कर दिया। नहीं तो, मकान बनाया, उसमे रहे नही। रहे बाहर, तो मकान बनाने का क्या फ़ायदा हुआ? गाड़ी ली, पर उस पर सफ़र नही किया, तो गाड़ी लेने का क्या फ़ायदा हुआ? मकान बनाना फ़िज़ूल गया। गाड़ी लेना फ़िज़ूल गया। ऐसे ही अगर ख़ुदा की बन्दगी नहीं की, प्रभु की भक्ति नहीं की, तो जन्म लेना व्यर्थ गया। जन्म लेना फ़िज़ूल गया। और फ़िज़ूल किसने किया? हमने खुद किया। अगर हमने सुमिरन नहीं किया, अगर हमने बन्दगी नहीं की, जनमु अकारथ कीनु॥ हमने ख़ुद ही अपना जन्म, अपनी ज़िन्दगी फ़िज़ूल गँवा दी। तो ज़रूरी होता है, मक़सद पूरा करना। यहाँ आने का मक़सद प्रभु की बन्दगी करना है। प्रभु के गुण गाने हैं। प्रभु की भक्ति करनी है। अगर वह नहीं की, तो जीवन व्यर्थ। जीवन फ़िज़ूल गया।

गुन गोबिंद गाइओ नही जनमु अकारथ कीनु ॥
कहु नानक हरि भजु मना जिह बिधि जल कउ मीनु ॥१॥
(वाणी श्री गुरु तेग़ बहादुर साहिब, १४२६, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी)।

दान करने वाले में अहंकार का भाव

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

दान देना शुभ कर्म है, परन्तु अक्सर ऐसा हो जाता है कि दान करने वाले में अहंकार का भाव पैदा हो जाता है। अहंकार का भाव पैदा हो जाना अशुभ कर्म है। शुभ कर्म होने के बावजूद दान व्यक्ति में अहंकार का अशुभ भाव पैदा कर सकता है। इस से सावधान रहने की बहुत ज़रूरत है। दान किया जाये, परन्तु अहंकार का भाव रखकर नहीं। दान किया जाये, तो मन में यह धारणा हो कि “दान करना मेरा धर्म है, मेरा कर्तव्य है। दान देकर मैं किसी पर अहसान नहीं कर रहा।”

यूद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को कहा था, “मैं कर्मों के फल की इच्छा रखकर उनका अनुष्ठान नहीं करता, अपितु “देना कर्तव्य है”, यह समझकर दान देता हूँ”। – वनपर्व, महाभारत।