नानक इह बिधि हरि भजउ

नोट: यह लेख PDF फ़ारमैट में भी उपलब्ध है। डाउनलोड करने के लिये इस लिन्क पर जाएँ: –
http://www.amritworld.com/hindi/articles/nanak_eh_bidh_har_bhajau_hindi.pdf

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

किसी जीव मेँ अवगुण भी हो सकते हैं और सद्गुण भी। कुत्ता भी जीव है। कुत्ते मेँ अवगुण भी हैं और गुण भी हैं।

कुत्ते मेँ एक अच्छा गुण है, उसका अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होना। मालिक उसको अच्छा भोजन दे या बुरा, कुत्ता अपने मालिक का साथ नहीं छोड़ता। मालिक उनकी पिटाई करे, तो भी कुत्ता अपने मालिक का दर नहीं छोड़ता, ऐसा बहुत प्रसिद्ध है।

खोजी विद्वानों का कहना है कि कुत्ते का साथ इन्सान की शारीरक और मानसिक सेहत के लिये बहुत अच्छा है। जिन लोगों ने कुत्ते पाले हुये हैं, उनकी सेहत और लोगों के मुक़ाबले मेँ बढ़िया रहती है और दिल भी ख़ुश रहता है। जो लोग कुत्ता पालते हैं, उनकी बढ़िया सेहत की एक वजह यह भी है कि कुत्ते की देखभाल करते-करते उनकी अच्छी कसरत हो जाती है।

कुत्ता एक अच्छे दोस्त की तरह अपने मालिक के दु:ख-सुख को महसूस करने की योग्यता रखता है। इस बारे मेँ कई कहानियाँ हमें सुनने को मिल जाती हैं। वह अपाहिज लोग, जिन्होने कुत्ता रखा होता है, अजनबी लोगों से मिलते वक़्त ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। डिप्रेशन आदि मानसिक समस्याओं से परेशान लोगों के लिये कुत्ता बहुत बढ़िया मददगार साबित होता है।

कुत्ता हज़ारों सालों से इन्सानों के साथ चला आ रहा है। इन्सान की तवारीख़ मेँ कुत्ते का ज़िक्र शुरू से ही मिलता है। दुनिया भर के साहित्य मेँ कुत्तों का ज़िक्र है। बुल्ले शाह ने भी कुत्ते का ज़िक्र करते हुये कहा था: –

बुल्लिया ! रातीं जागें, दिनें पीर सदावें,
रातीं जागण कुत्ते,
तैं थीं उत्ते।

गुरुवाणी मेँ बहुत जगहों पर वाणीकारों ने ख़ुद को कुत्ता (कूकर) कहा है, जैसे: –

हम कूकर तेरै दरबारि ॥ (९६९, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

और,

कबीर कूकरू राम कउ (१३६८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

कुत्ते में कुछ अवगुण भी हैं और गुरुवाणी ने इन अवगुणों की भी बात की है, पर जो भी हो, कुत्तों के अवगुणों से उनके गुण ज़्यादा हैं।

एक गुण कुत्ते मेँ ऐसा है, जो उसके अवगुणों को छिपा लेता है। यह गुण है वफ़ादारी का। श्री सद्गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने भी कुत्ते (श्वान/सुआन) के अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होने के गुण का ज़िक्र करते हुये एक-मन और एक-चित हो कर हरि की भक्ति करने की बात कही है: –

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

श्री सद्गुरु कहते हैं कि जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता, हे नानक ! इसी तरह ही एक-मन हो कर, एक-चित हो कर हरि का भजन किया जाना चाहिये।

‘सुआमी को ग्रिहु’, स्वामी का गृह, मालिक का घर। सुआन कुत्ते को कहते हैं। ‘तजत नही’, त्याग नहीं देता, छोड़ता नहीं। अर्थात, जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता।

‘नानक’, अपने-आप को सम्बोधित करते हुये सद्गुरु कहते हैं, ‘हे नानक !’, ‘इह बिधि’, इस विधि से, इस तरीक़े से। ‘हरि भजउ’, हरि का भजन करो, प्रभु की बन्दगी/सुमिरन करो। ‘इक मनि’, एक-मन हो कर, मन की ऐसी अवस्था बना कर, जब कोई और विचार मन मेँ न रहे। ‘इक चिति’, एक-चित हो कर। जब चित की अवस्था ऐसी हो जाए कि चित प्रभु का ही रूप हो जाये।

‘इह बिधि’। कौन-सी विधि? श्लोक की पहली पंक्ति मेँ कुत्ते की वफ़ादारी का ज़िक्र किया। वफ़ादारी की उसी विधि का प्रयोग करो प्रभु के लिये भी। कोई भी स्थिति हो, कुत्ता अपने मालिक का घर नहीं छोड़ता। भक्त भी वफ़ादारी की उसी विधि का प्रयोग करे। मालिक प्रभु जिस तरह रखे, उसकी रज़ा मेँ राज़ी रहना।

श्री सद्गुरु रामदास जी महाराज ने कितना सुन्दर कहा है:-

जे सुखु देहि त तुझहि अराधी दुखि भी तुझै धिआई ॥२॥
जे भुख देहि त इत ही राजा दुख विचि सूख मनाई ॥३॥
तनु मनु काटि काटि सभु अरपी विचि अगनी आपु जलाई ॥४॥
पखा फेरी पाणी ढोवा जो देवहि सो खाई ॥५॥
नानकु गरीबु ढहि पइआ दुआरै हरि मेलि लैहु वडिआई ॥६॥
अखी काढि धरी चरणा तलि सभ धरती फिरि मत पाई ॥७॥
जे पासि बहालहि ता तुझहि अराधी जे मारि कढहि भी धिआई ॥८॥
जे लोकु सलाहे ता तेरी उपमा जे निंदै त छोडि न जाई ॥९॥
(७५७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

श्री सद्गुरु रामदास जी महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! अगर तुम मुझे सुख दो, तो भी मैं तेरा ही आराधन करता रहूँ। अगर दु:खों मेँ हूँ, तो भी तेरी ही आराधना करता रहूँ।२। अगर तुम मुझे भूखे रखो, तो इस (भूख) मेँ भी मैं भर-पेट रहूँ। (तेरे दिये) दु:खों मेँ सुख ही भोगता रहूँ ।३। अपना तन और मन काट-काट के सब तेरे लिये अर्पण कर दूँ। आग मेँ खुद को जला दूँ।४। (तेरे लिये) पंखा फेरूँ। (तेरे लिये) पानी लाऊं। (हे प्रभु!) जो तुम दो, वह ही मैं खा लूँ।५। (महाराज कहते हैं कि मैं) ग़रीब नानक तुम्हारे दर पर आ गिरा हूँ। हे प्रभु! मुझे अपने मेँ मिला लो। यह ही तुम्हारा बढ़पन है, शोभा है।६। (अपनी) आखें निकाल कर (प्रभु) के चरणों के नीचे रख दूँ। सारी धरती पर (भी अगर मुझे तेरी तलाश मेँ घूमना पड़े, तो मैं) घूमता रहूँ, (यह सोच कर कि) शायद मुझे प्रभु मिल जाये, शायद परमात्मा से मेरा मेल हो जाये।७। अगर तुम मुझे अपने पास बैठा लो, तो मैं तेरी ही आराधना करूँ। अगर तुम मार-पीट कर के (अपने दर से) निकाल दो, तो भी मैं तेरी ही आराधना करता रहूँ।८। अगर दुनिया मेरी तारीफ़ करे, तो भी मैं तेरी ही गुणगान करता रहूँ। अगर समाज मेरी निन्दा करे, तो भी (मैं तेरी भक्ति) छोड़ कर न जाऊँ।९।

यह है वफ़ादारी प्रभु के प्रति। प्रभु जैसी भी अवस्था मेँ रखे, भक्त उसमें ही राज़ी है, ख़ुश है।

ऐसी ही वफ़ादारी की बात श्री सद्गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने की है, जब उन्होने कहा: –

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

वफ़ादारी दुर्लभ हो गयी है आजकल। न परिवार के लिये वफ़ादारी रही, न दोस्तों के लिये। न समाज के लिये वफ़ादारी रही, न धर्म के लिये।

परिवार के लिये वफ़ादारी क्या है?

जिस परिवार ने, या परिवार के जिन सदस्यों ने पाल-पोस के बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार करने लायक बनाया, उस परिवार या परिवार के सदस्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाना ही परिवार के प्रति वफ़ादारी है।

परंतु, ज़्यादातर होता क्या है?

जिस परिवार ने, या जिन पारिवारिक सदस्यों ने पाल-पोस के बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार करने लायक बनाया, उस परिवार या परिवार के सदस्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल कर लोभी इन्सान अपने ही सुखों के लिये यतनशील हो जाता है। शादी हो गयी, तो इन्सान अपने माँ-बाप आदि के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल कर अपनी पत्नी को लेकर माँ-बाप से अलग हो जाता है।

जब पैदा हुये, तो भगवान को बिसार दिया, जब शादी हुयी, तो माँ-बाप को भुला दिया।

भाई गुरदास जी ने इस बारे मेँ ऐसा लिखा है: –

कामणि कामणिआरीऐ कीतो कामणु कंत पिआरे ॥
जम्मे सांई विसारिआ वीवाहिआं माँ पिअ विसारे ॥
सुखां सुखि वीवाहिआ सउणु संजोगु विचारि विचारे ॥
पुत नूहै दा मेलु वेखि अंग ना माथनि माँ पिउ वारे ॥
नून्ह नित मंत कुमंत देइ माँ पिउ छडि वडे हतिआरे ॥
वख होवै पुतु रंनि लै माँ पिउ दे उपकारु विसारे ॥
लोकाचारि होए वडे कुचारे ॥१२॥
(वार ३७)।

दोस्तों से वफ़ादारी अब बस किताबों मेँ ही लिखी रह गयी है। शायर बशीर बदर का एक शेयर है: –

दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें,
किस ज़माने के आदमी तुम हो?

आज के वक़्त मेँ सियासत मेँ वफ़ा की उम्मीद करना ही बेवकूफी माना जायेगा। सियासत आज समाज की सेवा करने के लिये नहीं, बल्कि अपना घर भरने के लिये ही समझी जाती है। सियासत की थोड़ी-सी जानकारी रखने वाले जानते हैं कि आज की सियासत मेँ वफ़ादारी की कोई गुंजायश ही नहीं रही। अपनी सियासी जमायत मेँ कोई रुतबा न मिला, तो पार्टी छोड़ दी। इलैक्शन लड़ने के लिये टिकेट नहीं मिली, तो पार्टी छोड़ दी। दूसरी पार्टी की तरफ से अच्छे रुतबे की पेशकश हुयी, तो पार्टी छोड़ दी। एक बार पार्टी छोड़ देने के बाद उसी पार्टी की तरफ से कोई लालच दिया गया, तो वापिस उसी पार्टी मेँ जाने से भी कोई संकोच नहीं। वफ़ादारी नहीं, बल्कि ज़ाती फ़ायदे ही देखे जाते हैं आज की सियासत मेँ।

वफ़ादार की कमी अब मज़हब की दुनिया मेँ भी ख़ूब देखने को मिलती है। कुछ सहूलतों या पैसों के लालच मेँ कई लोग अपना मज़हब तक तब्दील करने मेँ झिझक महसूस नहीं करते। सियासी फ़ायदे के लिये भी मज़हब बदलने मेँ कुछ लोग देर नहीं करते। यह कहना ग़लत न होगा कि बहुत बार मज़हब को सियासी ताक़त हासिल करने के लिये एक औज़ार से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता। बहुत जगहों पर मज़हबी रहनुमा अपने सियासी आक़ाओं के हुकुम मानने वाले ही होते हैं।

जिस समाज मेँ न परिवार के प्रति वफ़ादारी है, न दोस्तों के प्रति; न समाज के प्रति वफ़ादार है, न मज़हब के प्रति; वहाँ प्रभु के प्रति वफ़ादारी रखने वाले कितने लोग होंगे? जिस समाज मेँ वफ़ादार इन्सान कम ही मिलते हों, वहाँ कुत्तों की वफ़ादारी की कहानियाँ सुनना बहुत अच्छा लगता है। कुत्ते की वफ़ादारी से अगर इन्सान कुछ सीख ले ले, तो बहुत अच्छी बात होगी।

जैसे कुत्ता अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होता है और उसको कभी नहीं छोड़ता, उसी तरह हमें भी अपने प्रभु मालिक प्रति वफ़ादार रह कर उसकी भक्ति मेँ लगना चाहिये। संसारी वस्तुएं, धन-दौलत, सियासी या सामाजिक पदों के लालच मेँ लग कर प्रभु-भक्ति का त्याग नहीं कर देना चाहिये।

जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता, उसी तरह ही एक-मन हो कर, एक-चित हो कर हरि का भजन किया जाना चाहिये।

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

-0-