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सच्चा दोस्त

(अमृत पाल सिंघ अमृत)

जब कभी दोस्त और दोस्ती की, मित्र और मित्रता की बात करनी हो, तो श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का ज़िक्र आ ही जाता है।

सुदामा और कृष्ण बचपन के मित्र थे। वक़्त बदला। अब श्री कृष्ण राजा हो गये। सुदामा एक ग़रीब इन्सान की ज़िन्दगी जीने लगे। फिर ऐसा वक़्त आया, जब अपनी पत्नी के ज़ोर देने पर सुदामा श्री कृष्ण के राजमहल के द्वार पर जा पहुंचे।

भाई गुरदास जी ने लिखा है: –

बिप सुदामा दालदी बाल सखाई मित्र सदाए॥
लागू होई बाह्मणी मिल जगदीस दलिद्र गवाए॥
चलिआ गिणदा गटीआं कयों कर जाईए, कौण मिलाए॥
पहुता नगर दुआरका सिंघ दुआर खलोता जाए॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।

ਬਿਪ ਸੁਦਾਮਾ ਦਾਲਦੀ ਬਾਲ ਸਖਾਈ ਮਿਤ੍ਰ ਸਦਾਏ ॥
ਲਾਗੂ ਹੋਈ ਬਾਮ੍ਹਣੀ ਮਿਲ ਜਗਦੀਸ ਦਲਿਦ੍ਰ ਗਵਾਏ ॥
ਚਲਿਆ ਗਿਣਦਾ ਗਟੀਆਂ ਕਯੋਂ ਕਰ ਜਾਈਏ ਕੌਣ ਮਿਲਾਏ ॥
ਪਹੁਤਾ ਨਗਰ ਦੁਆਰਕਾ ਸਿੰਘ ਦੁਆਰ ਖਲੋਤਾ ਜਾਏ ॥ (ਵਾਰ ੧੦, ਭਾਈ ਗੁਰਦਾਸ ਜੀ)

भीतर बैठे श्री कृष्ण को इतलाह दी गयी कि कोई सुदामा नाम का व्यक्ति आया है। कहता है, “कृष्ण से मिलना है”।

सुना। श्री कृष्ण ने सुना। सुना नाम सुदामा का। सुना नाम अपने मित्र का। सुना नाम अपने बचपन के सखा का।

“सुदामा मुझसे मिलने आये हैं।“

अपना सिंहासन छोड़ा कृष्ण ने। दूर से देखा कृष्ण ने। दंडवत प्रणाम किया। कृष्ण ने दंडवत प्रणाम किया। दोस्त कृष्ण ने दंडवत प्रणाम किया अपने मित्र सुदामा को। अपने मित्र की प्रदक्षिणा की कृष्ण ने। राजा कृष्ण ने नहीं, मित्र कृष्ण ने। सुदामा के चरण छू कर गले से लगाया। सुदामा के पैर धो कर अपने सिंहासन पर बैठाया।

भाई गुरदास जी ने लिखा है: –

दूरहूं देख डंडउत कर छड सिंघासण हरि जी आए॥
पहिले दे परदखणा पैरीं पै के लै गल लाए॥
चरणोदक लै पैर धोए सिंघासण उपर बैठाए॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।

ਦੂਰਹੁੰ ਦੇਖ ਡੰਡਉਤ ਕਰ ਛੱਡ ਸਿੰਘਾਸਣ ਹਰਿ ਜੀ ਆਏ ॥
ਪਹਿਲੇ ਦੇ ਪਰਦਖਣਾ ਪੈਰੀਂ ਪੈ ਕੇ ਲੈ ਗਲ ਲਾਏ ॥
ਚਰਣੋਦਕ ਲੈ ਪੈਰ ਧੋਇ ਸਿੰਘਾਸਣ ਉਪਰ ਬੈਠਾਏ ॥

और जब दो सच्चे मित्र मिलें, जब दो असली दोस्त इकट्ठा हो बैठें, तो गुरु की बात करेंगे, गुरु की सेवा की बात करेंगे: –

भाई गुरदास जी ने लिखा है: –

पुछे कुसल पिआर कर गुर सेवा दी कथा सुणाए॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।

ਪੁਛੇ ਕੁਸਲ ਪਿਆਰ ਕਰ ਗੁਰ ਸੇਵਾ ਦੀ ਕਥਾ ਸੁਣਾਏ ॥

किसी राजा को क्या ख़ुशी होगी वो तंदुल, वो चावल तोहफ़े में ले कर? पर सच्चे मित्र को ख़ुशी मिलती है इस तोहफ़े से भी। कृष्ण ने वो चावल खाये और ख़ुश हुये। जब विदा करने का वक़्त आया, तो श्री कृष्ण ने पहले से ही सुदामा के घर ज़रूरत की हर वस्तु पहुंचा दी।

भाई गुरदास जी ने लिखा है: –

लै के तंदल चबिओन, विदा करे, अगे पहुचाए॥
चार पदारथ सकुच पठाए॥९॥ (वार १०, भाई गुरदास जी)।

ਲੈਕੇ ਤੰਦਲ ਚਬਿਓਨ ਵਿਦਾ ਕਰੇ ਅਗੇ ਪਹੁਚਾਏ ॥
ਚਾਰ ਪਦਾਰਥ ਸਕੁਚ ਪਠਾਏ ॥੯॥ (ਵਾਰ ੧੦, ਭਾਈ ਗੁਰਦਾਸ ਜੀ)।

गुरुवाणी में भी आया है: –

मिलिओ सुदामा भावनी धारि सभु किछु आगै दालदु भंजि समाएआ॥४॥ (११९१, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਮਿਲਿਓ ਸੁਦਾਮਾ ਭਾਵਨੀ ਧਾਰਿ ਸਭੁ ਕਿਛੁ ਆਗੈ ਦਾਲਦੁ ਭੰਜਿ ਸਮਾਇਆ ॥੪॥

आज जब हम अपने समाज की ओर देखते हैं, तो ज़्यादातर यही देखने में आता है कि अगर कोई एक कथित मित्र अमीर हो जाए, तो वह अपने ग़रीब मित्र से कोई भी सम्पर्क नही रखता। कथित अमीर दोस्त अपने ग़रीब दोस्त की कोई मदद नही करना चाहता। ऐसा अक्सर देखने में आता है।

श्री कृष्ण के ज़माने में ही दानवीर कर्ण भी हुये। संसार की नज़र से देखो, तो लगता है कि कर्ण सचमुख दुर्योधन के परम मित्र थे। दुर्योधन के बुरे कामों में कर्ण ने साथ दिया। धर्म की नज़र से देखो, तो कर्ण दुर्योधन के सच्चे दोस्त न बन सके। वे दुर्योधन को बुरे कामों से न रोक सके। दुर्योधन के बुरे कामों का अंजाम भी बुरा हुया। दुर्योधन भी युद्ध में मारा गया, कर्ण भी युद्ध में मारे गए।

जब हम अपने आस-पास देखते हैं, तो पता चलता है कि ज़्यादातर दोस्त मित्र खाने पीने के ही साथी होते हैं। कोई ख़ुशी का मौका आया, तो कहेंगे, “चल शराब मँगवा, शराब पीएंगे”। शादी विवाह का मौका, तो “चल शराब ला, पार्टी दे”। अच्छी नौकरी लगी, “चल पार्टी दे”। बच्चे हुये, “चल पार्टी दे”। नया घर बनवाया, “चल पार्टी दे”। नयी गाड़ी ली, “चल पार्टी दे”। कुल मिला कर ये, कोई भी मौका मिले सही, ऐसे बहुत से दोस्त, बहुत से मित्र खाने पीने की ही फ़ुर्माइश करते दिखते हैं।

स्त्री को या दोस्तों-मित्रों को ख़ुश करने की कोशिश में वह पाप करता है, जिस की वजह से आख़िर वह बंधा हुया नर्क में ही जाता है। गुरु ग्रंथ साहिब में ज़िक्र आया है: –

कामणि लोड़े सुएना रूपा मित्र लुड़ेनि सु खाधाता॥ नानक पाप करे तिन कारणि जासी जमपुरि बाधाता॥
(१५५, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਕਾਮਣਿ ਲੋੜੈ ਸੁਇਨਾ ਰੁਪਾ ਮਿਤ੍ਰ ਲੁੜੇਨਿ ਸੁ ਖਾਧਾਤਾ ॥ ਨਾਨਕ ਪਾਪ ਕਰੇ ਤਿਨ ਕਾਰਣਿ ਜਾਸੀ ਜਮਪੁਰਿ ਬਾਧਾਤਾ ॥

ये जो संसार के परिवार हैं, मित्र हैं, भाई हैं, ये सब अपने मतलब के लिए हमें आ मिलते हैं। जिस दिन उनका स्वार्थ, उनका मतलब हम से पूरा न होगा, उस दिन कोई हमारे नज़दीक भी न आएगा।

जो संसारै के कुटंब मित्र भाई दीसहि मन मेरे ते सभि अपनै सुआए मिलासा॥
जितु दिनि उन का सुआउ होए न आवै तितु दिनि नेड़े को न ढुकासा॥
मन मेरे अपना हरि सेवि दिनु राती जो तुधु उपकरै दूखि सुखासा॥३॥
(७६०, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਜੋ ਸੰਸਾਰੈ ਕੇ ਕੁਟੰਬ ਮਿਤ੍ਰ ਭਾਈ ਦੀਸਹਿ ਮਨ ਮੇਰੇ ਤੇ ਸਭਿ ਅਪਨੈ ਸੁਆਇ ਮਿਲਾਸਾ ॥
ਜਿਤੁ ਦਿਨਿ ਉਨ੍ ਕਾ ਸੁਆਉ ਹੋਇ ਨ ਆਵੈ ਤਿਤੁ ਦਿਨਿ ਨੇੜੈ ਕੋ ਨ ਢੁਕਾਸਾ ॥
ਮਨ ਮੇਰੇ ਅਪਨਾ ਹਰਿ ਸੇਵਿ ਦਿਨੁ ਰਾਤੀ ਜੋ ਤੁਧੁ ਉਪਕਰੈ ਦੂਖਿ ਸੁਖਾਸਾ ॥੩॥

जिन लोगों को इन नकली दोस्तों की, स्वार्थी मित्रों की हक़ीक़त का अहसास हो गया, वे किसी सच्चे दोस्त की, किसी असली मित्र की तलाश में लग जाते हैं। वे कहते हैं: –

मित्र घणेरे करि थकी मेरा दुखु काटै कोए॥
(३७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਮਿਤ੍ਰ ਘਣੇਰੇ ਕਰਿ ਥਕੀ ਮੇਰਾ ਦੁਖੁ ਕਾਟੈ ਕੋਇ ॥

मैं बहुत मित्र बना चुका। अब कोई आये, मेरे अन्दर का दु:ख काट दे, मेरे अन्दर का दु:ख ख़त्म कर दे।

दु:ख कटे कैसे? दु:ख दूर हो कैसे? गुरुवाणी ने कहा, “प्रभु प्रियतम के मिलने से दु:ख दूर हुया।” पर, प्रभु प्रियतम से मिलना कैसे होता है? गुरुवाणी ने कहा, “सबदि मिलावा होए॥ गुरु के शब्द के द्वारा, गुरु के उपदेश की द्वारा प्रभु से मिलाप होता है।

मित्र घणेरे करि थकी मेरा दुखु काटै कोए॥
मिलि प्रीतम दुखु कटिआ सबदि मिलावा होए॥
(३७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਮਿਤ੍ਰ ਘਣੇਰੇ ਕਰਿ ਥਕੀ ਮੇਰਾ ਦੁਖੁ ਕਾਟੈ ਕੋਇ ॥
ਮਿਲਿ ਪ੍ਰੀਤਮ ਦੁਖੁ ਕਟਿਆ ਸਬਦਿ ਮਿਲਾਵਾ ਹੋਇ ॥

इन्सान को धर्म की राह से भटकाने वाला उसी का मन होता है। यही मन अगर इन्सान के अपने बस में हो जाए, तो यह बहुत अच्छा दोस्त, मित्र भी हो जाता है। इसलिए, गुरुवाणी में मन को मित्र कह कर भी बुलाया गया है: –

सुणि मन मित्र पिआरिआ मिलु वेला है एह॥
जब लगु जोबनि सासु है तब लगु एहु तनु देह॥
बिनु गुण कामि न आवई ढहि ढेरी तनु खेह॥१॥
(२०, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਸੁਣਿ ਮਨ ਮਿਤ੍ਰ ਪਿਆਰਿਆ ਮਿਲੁ ਵੇਲਾ ਹੈ ਏਹ ॥
ਜਬ ਲਗੁ ਜੋਬਨਿ ਸਾਸੁ ਹੈ ਤਬ ਲਗੁ ਇਹੁ ਤਨੁ ਦੇਹ ॥
ਬਿਨੁ ਗੁਣ ਕਾਮਿ ਨ ਆਵਈ ਢਹਿ ਢੇਰੀ ਤਨੁ ਖੇਹ ॥੧॥

सच्चे दोस्त, सच्चे मित्र वे हैं, जो हमें हरि का नाम याद दिलाते हैं: –

ओए साजन ओए मीत पिआरे॥
जो हम कउ हरि नामु चितारे॥
(७३९, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਓਇ ਸਾਜਨ ਓਇ ਮੀਤ ਪਿਆਰੇ ॥
ਜੋ ਹਮ ਕਉ ਹਰਿ ਨਾਮੁ ਚਿਤਾਰੇ ॥੧॥

अपने ही मन की करने वाले मित्रों के विपरीत, बुरे रास्ते पर ले जाने वाले नकली दोस्तों के उलट, असली मित्र वे हैं, जिन को देख कर मन के बुरे ख़्याल ख़त्म हो जाएँ। गुरुवाणी ने कहा कि मैं ढूँढता हूँ सारे संसार में, ऐसे मित्र विरले हैं, बहुत कम हैं।

जिना दिसंदडिआ दुरमति वंझे मित्र असाडढ़े सेई॥
हउ ढूढेदी जगु सबाएआ जन नानक विरले केई॥
(५२०, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

ਜਿਨਾ ਦਿਸੰਦੜਿਆ ਦੁਰਮਤਿ ਵੰਞੈ ਮਿਤ੍ਰ ਅਸਾਡੜੇ ਸੇਈ ॥
ਹਉ ਢੂਢੇਦੀ ਜਗੁ ਸਬਾਇਆ ਜਨ ਨਾਨਕ ਵਿਰਲੇ ਕੇਈ ॥੨॥

जिना दिसंदडिआ – जिन को देखने से, जिन का दीदार हो जाने से,
दुरमति वंझे – दुरमति दूर हो जाए, बुरे ख़्याल ख़त्म हो जाएँ,
मित्र असाडढ़े सेई- वे ही हमारे मित्र हैं।
हउ ढूढेदी जगु सबाएआ- मैंने सारे संसार में उनको ढूंढा है, सारे संसार में ढूँढता हूँ।
जन नानक विरले केई- (गुरु) नानक (देव जी कहते हैं) कि (ऐसे सच्चे दोस्त) बिरले ही हैं, कोई कोई ही सच्चा दोस्त बनता है।

दुनिया की इस बहुत बड़ी भीड़ में अगर सिर्फ़ एक ही सच्चा दोस्त मिल जाए, तो किसी और रिश्ते की ज़रूरत ही नही रहती।

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देश के मन्त्री कैसे होने चाहिए?

(अमृत पाल सिंघ “अमृत”)

जिस से मन्त्र्णा की जाए, वह मन्त्री कहलाता है। मन्त्र्णा का अर्थ है, सलाह-मशवरा करना। अतः जिस से सलाह ली जाए, वह मन्त्री है।

शासक अपनी सहायता के लिए कुछ मंत्रियों की नियुक्ति करता है, जो उसे विभिन्न विषयों पर सलाह देते हैं। ऐसा नही है कि कोई शासक किसी को भी अपना मन्त्री नियुक्त कर दे, तो काम चल जाएगा। मन्त्री कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो अपने विषय के तत्व को जानने वाला हो। मन्त्री कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो सदा शासक और देश के हित में लगा रहने वाला हो। उसका हर मशवरा शासक और राष्ट्र के हित में ही होना चाहिए।

किसी देश के मन्त्री कैसे होने चाहिए ?

श्री वाल्मीकि जी द्वारा रचित रामायण में लिखा है कि महाराज दशरथ के मन्त्री विद्वान, सलज्ज, कार्यकुशल, जितेंद्रिय, महात्मा, शस्त्रविद्या के ज्ञाता, यशस्वी, तेजस्वी, औरे क्षमाशील थे। (श्लोक ६, ७, और ८, सर्ग ७, बालकाण्ड)। किसी भी शासक के मंत्रियों में यह सभी गुणों को होना अति-आवश्यक है।

किसी भी राज्य की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि इस बात की पूरी जानकारी रखी जाए कि दुश्मन देशों की हुकूमत क्या कर रही है, क्या कर चुकी है और क्या करना चाहती है। ऐसा करने के लिए एक गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है, जो कार्यकुशल गुप्तचरों को देश-विदेश में नियुक्त करता है। एक सुयोग्य गुप्तचर विभाग तभी अच्छी तरह से कार्य कर सकता है, अगर उस विभाग की देखरेख करने वाला मन्त्री एक सुयोग्य व्यक्ति हो। एक सुयोग्य मन्त्री का चुनाव एक सुयोग्य प्रशासक या शासक ही कर सकता है।

एक सुयोग्य शासक एक निरपक्ष न्याय व्यवस्था का प्रबन्ध करता है। उसका प्रबन्ध ऐसा होना चाहिए कि यदि किसी मन्त्री, किसी और उच्च पदस्थ अधिकारी, यहाँ तक के स्वयं शासक का पुत्र भी अपराधी हो, तो उसको भी उचित दण्ड मिले।

किसी भी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी प्रजा की भलाई के लिए विद्यालय और चिकित्सालय आदि का निर्माण करवाए। समाज की भलाई के लिए जो भी उचित कार्य हो, उसे करे। ऐसे कार्य तभी हो सकेंगे, जब राज्य के कोष में पर्याप्त धन हो। किसी भी शासक के लिए आवश्यक है कि वह राजकीय कोष को भरा हुया रखे। राजकीय कोष को भरा रखने के लिए उचित आर्थिक नीतियों का पालन करना पड़ता है।

किसी भी राज्य की सुरक्षा उसकी सेना पर ही निर्भर करती है। एक सुशिक्षित और पर्याप्त रूप से शस्त्रबद्ध सेना ही किसी राष्ट्र की सुरक्षा कर सकती है। एक कुशल शासक को चाहिए कि वह इस बात का ध्यान रखे कि सेना के पास पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र हों और सेनिकों को उचित प्रशिक्षण भी प्राप्त हो। एक शक्तिशाली सेना ही अपने राष्ट्र की सुरक्षा का दायत्व संभाल सकती है। राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों की रक्षा की जानी चाहिए।

किसी राष्ट्र के पास एक शक्तिशाली सेना हो जाने से उस राष्ट्र और उस के शासक की ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है। किसी शासक के पास एक शक्तिशाली सेना हो, तो हो सकता है कि वह जो चाहे, वही करने लगे। अगर ऐसा होता है, तो यह बहुत ग़लत है। एक आदर्श शासक को चाहिए कि उस के शत्रु ने भी अगर कोई अपराध नहीं किया, तो वह उसकी हिंसा न करे।

यह बहुत आवश्यक है कि मन्त्री-गण जो भी मंत्रणा करें, उसे आवश्यकतानुसार गुप्त रखा जाए। यदि गुप्त मंत्रणा का भेद खुल जाये, उस से राष्ट्र और शासक का अहित हो सकता है। इसलिए मन्त्री ऐसा हो, जो ऐसी बातों का भेद सदा ही बनाए रखे।

यदि मन्त्री ऐसे शुभ गुणों वाले होंगे, तो उनका यश देश और विदेश में फैलेगा। स्वाभाविक है कि प्रजा भी ऐसे गुणवान मंत्रियों का पूर्ण आदर करेगी।

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(राजा दशरथ के आठ मुख्य मन्त्री थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं, धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र। राजपुरोहित वशिष्ठ जी और वामदेव जी भी मन्त्री की तरह राजा को सलाह भी दिया करते थे। इस के सिवा भी राजा दशरथ के मन्त्री थे, जिन के नाम इस प्रकार हैं, सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, मार्कन्डेय और कात्यायन। )

सामाजिक नियम सदा बदलते रहते हैं

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

चंदू दिल्ली के बादशाह जहाँगीर के वक़्त मुग़ल दरबार में एक उच्च अधिकारी था। अपनी बेटी की सगाई सिक्खों पांचवें गुरु, श्री गुरु अर्जुन देव जी के सपुत्र श्री (गुरु) हरगोबिन्द जी से होने के बाद उस ने गुरु साहिब के बारे में कुछ अपमानजनक टिप्पणियाँ की। वहाँ मौजूद कुछ सिक्खों ने यह सुना और ख़ुद को अपमानित हुया महसूस किया। उन्होने गुरु जी को कहला भेजा कि यह रिश्ता स्वीकार न किया जाये। गुरु अर्जुन देव जी ने वही किया, जो सिक्ख चाहते थे।

चंदू की बेटी और (गुरु) हरगोबिन्द साहिब जी की कभी भी आपस में शादी न हुई। जैसा कि उन दिनों कथित ऊंची जाति के हिन्दू समाज में प्रचलन था, चंदू की बेटी अपनी मौत तक बिन-ब्याही ही रही।

उन दिनों में, कथित ऊंची जाति की हिन्दू औरत को यह कतई मनज़ूर न था कि एक बार किसी एक मर्द से उसका नाम जुडने के बाद वह किसी और मर्द के बारे में सोचे भी। एक बार किसी के साथ किसी औरत की सगाई हो जाने के बाद कोई और मर्द उस से कभी शादी न करता, अगर उस की सगाई टूट भी जाए। ऐसे नियम थे समाज के तब।

उन दिनों किसी हिन्दू विधवा के लिए दुबारा शादी कर लेना असम्भव था। सिक्ख गुरुओं ने विधवाओं की शादी को उत्साहित किया, ताकि वे नये सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू कर सकें। यह सामाजिक नियमों में लाया गया इरादतन बदलाव था।

आजकल हम देख सकते हैं कि परंपरागत भारतीय समाज ने अपने आप को किस तरह से बदल लिया है। टूटी हुई सगाईयाँ, यहाँ तक कि टूटी हुई शादियाँ भी अब लड़कियों के लिए शर्मिंदगी की वजह नहीं रहीं, चाहे कि अब भी बहुत से ऐसे लोग हैं, जो इन बदलावों से ख़ुश नहीं हैं।

एक सोश्ल नेटवर्क वैबसाइट पर मैंने एक मैसेज पढ़ा, जो कुछ ऐसे था:

पहले लड़कियां कहा करती थीं, “मैंने पहले बी॰ ए॰ वन पास की, फिर बी॰ ए॰ टू, और फिर बी॰ ए॰ फ़ाइनल की। या, मैंने पहले बी॰ कॉम॰ वन पास की, फिर बी॰ कॉम॰ टू, और फिर बी॰ कॉम॰ फ़ाइनल। या, मैंने पहले बी॰ एस॰ सी॰ वन पास की, फिर बी॰ एस॰ सी॰ टू, और फिर बी॰ एस॰ सी॰ फ़ाइनल की”। आजकल की लड़की कहती है, “मैंने पहले पहली सगाई की, फिर दूसरी सगाई की, और फिर फ़ाइनल सगाई की”।

चाहे सामाजिक तौर पर इज़्ज़तदार कई परिवार अब भी अपनी किसी बेटी की सगाई टूट जाने को अपनी बेइज्ज़ती के तौर पर लेते हैं, दूसरे इस को कुछ ज़्यादा तवज्जो नही देते। कुछ लड़कियां अब तो तीन-तीन बार भी शादियाँ करा रही हैं और साधारण समाज ने उन्हें लगभग स्वीकार भी किया है।

यह ख़बर तो अब पुरानी हो चुकी है कि मुंबई की एक अदाकारा ने बिना शादी किए ही एक विदेशी क्रिकेटर के बच्चे को जन्म दिया। बहुत से लोग ‘लिव-इन’ रिश्ते को तरजीह देने लगे हैं, चाहे कि भारत के एक बड़े हिस्से में इसे सामाजिक मान्यता नही मिली है।

परंतु, लगता है कि सामाजिक नियम अब एक बड़े परिवर्तन की और जा रहे हैं। भारत की सूप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में ‘लिव-इन’ रिश्तों के लिए कुछ दिशा-निर्देश दिये हैं, जिस से कि ‘लिव-इन’ रिश्तों में भी औरतों को सुरक्षा दी जा सके। सूप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘लिव-इन’ रिश्ते न तो अपराध हैं और न पाप, और संसद को चाहिए कि वह ऐसे रिश्ते में रह रही औरतों और ऐसे रिश्तों से पैदा होने वाले बच्चों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए।

ग़ुलाम प्रथा

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

ग़ुलामी (ग़ुलाम रखने की प्रथा) एक सच्चाई थी और है।

ग़ुलामी एक प्रथा है, जिस में लोगों को पकड़ा जाता है, खरीदा और बेचा जाता है। उन को उन की इच्छा के खिलाफ़ रखा जाता है। गुलामों को काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उन्हें वहाँ से जाने का कोई अधिकार या काम से इनकार करने का अधिकार नहीं होता। उन को तनख्वाह (सैलरी) या मुआवज़ा मांगने का कोई हक नहीं होता।

मंडी में बेचने के लाया गया ग़ुलाम (पेंटिंग

गुलामों को उन के जन्म के वक्त से भी पकड़ लिया जा सकता है। इस का मतलब यह है कि अपनी ज़िन्दगी के पहले दिन से ही एक इन्सान को उसके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

चाहे पिछले कुछ वक्त से ग़ुलामी पर ज़्यादातर देशों में पाबन्दी लगा दी गयी है, पर हकीकत में ग़ुलामी प्रथा कई रूपों में अभी भी प्रचलित है; जैसा कि बंधुआ मज़दूरी, कैद में रखे गए घरेलू नौकर, बाल-सैनिक, बच्चे गोद लेने की नकली घटनाएँ, जहां बाद में गोद लिए बच्चों से गुलामों जैसा काम लिया जाता है। यहाँ तक कि जबरन किए गए विवाहों को भी ग़ुलामी के रूप में ही जाना जाना चाहिए।

जब कोई व्यक्ति कर्ज़ के एवज़ में खुद को पेश करता है, तो उस को बंधुआ मज़दूर कहते हैं। कर्ज़ लौटाने के लिए किए जाने वाली मज़दूरी और इस का वक्त निर्धारित नहीं भी किया हो सकता है। ऐसी बंधुआ मज़दूरी अक्सर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती रहती है। इस का अर्थ है कि बंधुआ मज़दूर के बच्चे को इस बात के लिए मजबूर किया जाता है कि वह अपने माँ-बाप का कर्ज़ उतारे। इस काम के लिए उस को बंधुआ मज़दूर बनने पर मजबूर किया जाता है। बंधुआ मज़दूरी आज के वक्त में ग़ुलामी का सब से ज़्यादा प्रचलित रूप माना जाता है।

ग़ुलामी का एक और रूप है। जब किसी व्यक्ति को हिंसा या सज़ा की धमकी दे कर उस से उस की मर्ज़ी के खिलाफ़ काम करवाया जाता है और उस की आज़ादी पर पाबंदी लगा दी जाती है, तो इस को जबरन मज़दूरी करवाना कहा जाता है।

हम अक्सर अलग-अलग देशों में घरेलू नौकरों को कैद में रख कर काम करवाए जाने की ख़बरें पढ़ते हैं। यह ग़ुलामी की एक और किस्म है।

वर्तमान में कई बार बच्चों का युद्ध में लड़ाकों के तौर पर, खास कर के दहशतगर्द संगठनों की और से प्रयोग किया जाता है। यह बाल-सिपाही भी एक तरह से ग़ुलाम ही हैं।

ग़ुलामी की एक और किस्म है। ऐसे मामलों में कोई व्यक्ति किसी बच्चे को गोद ले लेता है और फिर उस बच्चे को एक ग़ुलाम की तरह काम करने को मजबूर किया जाता है।

कई भाईचारों में युवा पीढ़ी को अपनी मर्ज़ी के लड़के या लड़की से शादी करने की इजाज़त नहीं होती। उन को किसी और से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है। अगर वे ऐसा करने से इनकार करें, तो उन को अक्सर निर्दयी शारीरिक सज़ा का सामना करना पड़ता है। कई बार तो उन का कत्ल तक भी कर दिया जाता है और वह भी उन के अपने पारिवारिक सदस्यों द्वारा ही। शारीरिक सज़ा, और यहाँ तक कि कत्ल किए जाने से बचने के लिए युवा, आम तौर पर लड़कियां अपनी इस किस्मत को कबूल कर लेते हैं। ऐसे विवाह जबरन किया गए विवाह हैं और इन को भी एक तरह से ग़ुलामी ही समझा जाना चाहिए।

दूसरे देशों पर हमलों के दौरान कई हमलावरों ने हज़ारों मर्दों, औरतों, लड़कों और लड़कियों को ग़ुलाम बनाया। इन ग़ुलाम बनाए गए लोगों को उन हमलावरों ने अपने-अपने देश में जा कर शरेआम बाज़ारों में बेचा।

बाज़ार में बिकते ग़ुलाम (पेंटिंग)

कुछ देर पहले तक भी कई औरतों को युद्ध के दौरान काम-वासना की पूर्ति के लिए ग़ुलाम बनाया जाता रहा है।

दिसम्बर १०, १९४८ को संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की। यह घोषणा पहली सार्वभौम स्वीकृति थी कि सभी इन्सानों को मूल हक और आज़ादी प्राप्त है और यह घोषणा आज तक एक ज़िंदा और प्रासंगिक दस्तावेज़ है।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की ६०वीं सालगिरह (दिसम्बर १०, २००८) के मौके पर अमृतवर्ल्ड डॉट कॉम ने सार्वभौम घोषणा को अपना लिया था

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद ४ के अनुसार: –

कोई भी ग़ुलामी या दासता की हालत में न रखा जाएगा, ग़ुलामी-प्रथा और गुलामों का व्यापार अपने सभी रूपों में निषिद्ध होगा।

हम किसी भी तरह की ग़ुलामी के सख़्त खिलाफ़ हैं। हम विश्वास करते हैं कि बंधुआ मज़दूरी, बाल-सिपाही, जबरन मज़दूरी, जबरन विवाह, ग़ुलामी के लिए बच्चों को गोद लेने की नकली घटनाएँ, और युद्ध और दंगों के दौरान औरतों को काम-पूर्ति के लिए ग़ुलाम बनाना, यह सभी ग़ुलामी के ही अलग-अलग रूप हैं।

व्यक्ति, समूह, संस्थाएं, राजनैतिक दल, धार्मिक संगठन और सरकारें ग़ुलामी की इस प्रथा को रोकने के लिए जो कुछ भी कर सकते हों, वह किया जाना चाहिए।

औरों की इस विषय पर संबन्धित सामग्री

छत्री ब्रहमन रहा न कोई

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

जब भी किसी निर्दोष की हत्या होती है, वह एक गलत कार्य होता है। निर्दोष का अर्थ है, ‘जिस का दोष न हो’। ‘निर्दोष’ के अर्थ में यह शामिल नही होता कि वह हिन्दू है या मुस्लिम, सिख है या ईसाई। चाहे गोधरा की घटना हो, या पंजाब की घटनाएँ हो, दिल्ली, असम, कश्मीर, बांग्लादेश या पाकिस्तान हो, निर्दोष को हुआ कोई भी नुकसान निंदनीय ही होता है।

कोई एक गलत कार्य किसी दूसरे गलत कार्य को सही साबित नही कर सकता। गोधरा में निर्दोषों की हत्याएँ पूरे गुजरात में हुये मुसलमानों के कत्ल-ए-आम को जायज़ करार नही दे सकतीं।

निर्दोष, निहत्थे, मासूम बच्चों, औरतों और मर्दों की हत्या करना एक घृणित अपराध है। ‘यह गलत क्यों है?’, यह वही समझ सकता है, जिसने सच्चे ‘क्षत्रिय धर्म’ को जान लिया हो। ‘क्षत्रिय धर्म’ जानने वाले को पता था कि सीता जी के हर्ण का बदला किस से लेना है। क्या हनुमान जी के लिए यह मुश्किल था कि वह रावण के परिवार को एक कमरे में बंद कर के आग लगा देते? युद्ध करने की ज़रूरत ही न होती। ‘क्षत्रिय धर्म’ जानने वाले को पता था कि ऐसा करना एक घृणित अपराध है। भला, रावण के अपराध करने से मंदोदरी का दोषी होना कैसे सिद्ध होता है? भला, रावण के अपराध के लिए मंदोदरी को सज़ा कैसे दी जा सकती थी? सज़ा तो रावण को ही मिलनी चाहिए थी। यह बात ‘क्षत्रिय धर्म’ जानने वालों को पता थी। इसीलिए, उन्होने वही किया, जो ‘क्षत्रिय धर्म’ के अनुसार करना चाहिए था।

निर्दोष को नही, बल्कि अपराधी को ही सज़ा देना ‘क्षत्रिय धर्म’ के अनुसार है।

चलो छोड़ो, यह मान लेते हैं कि आज ‘क्षत्रिय धर्म’ भी ‘ब्राह्मण धर्म’ की भांति दुर्लभ हो गया है। गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने भी तो लिख ही दिया, “छत्री जगति न देखीऐ कोई” (कलकी अवतार, श्री दशम ग्रंथ जी)।

और,

“छत्री ब्रहमन रहा न कोई ॥” (कलकी अवतार, श्री दशम ग्रंथ जी)।

चलो, मान लेते हैं कि “एक एक ऐसे मत कै है।। जा ते प्रापति शूद्रता होए है॥” (कलकी अवतार, श्री दशम ग्रंथ जी)।

किन्तु, जो कार्य न तो ‘ब्राह्मण धर्मा’ हो और न ही ‘क्षत्रिय धर्मा’, (बल्कि इसके विपरीत ही हो), उसकी प्रशंसा तो ‘ब्राह्मण’ और ‘क्षत्रिय’ पुरुषों के वंशज न करें।

प्रचारक की सफलता या असफलता के कारण

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

किसी भी विचार या सिद्धांत का विश्व में प्रसार प्रचार से ही होता है. किसी विचार या सिद्धांत का प्रचार करने वाले को प्रचारक कहा जाता है. किसी भी विचारधारा का प्रचार करना कोई आसान कार्य नहीं होता. किसी प्रचारक की सफलता बहुत से बिन्दुओं पर निर्भर रहती है. प्रचारक की सफलता सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, पारिवारिक और आर्थिक स्थितिओं से प्रभावित होती है.

किसी समाज की बनावट किसी प्रचारक की सफलता में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. किसी दकियानूसी समाज में आधुनिक विचारधारा का प्रचारक स्वयं को बहुत कठिन स्थिति में फँसा हुआ देखता है. उदहारण के तौर पर, नारी के प्रति बहुत तंग सोच रखने वाले समाज में नारी को सम्पूर्ण स्वतंत्रता देने वाली विचारधारा के प्रचारक को प्रचार करने में बड़ी कठिनाई होगी. नारी को सम्पूर्ण स्वतंत्रता देने की उस की सोच उस को लम्पट घोषित करवा सकती है.

यदि कोई प्रचारक किसी कम्यूनिस्ट देश में पूँजीवाद का प्रचार करना चाहे, तो वह अपने प्राणों को संकट में डाल रहा होगा. किसी इस्लामिक देश में इस्लाम का प्रचार करने से किसी कम्यूनिस्ट देश में इस्लाम का प्रचार करना निश्चित ही इतना आसान नहीं होगा. इस्लाम के प्रचारक को जो सुविधा इस्लामिक निज़ाम में मिल सकती है, वह किसी और राजनैतिक सिस्टम में प्राप्त नहीं हो सकती. किसी देश में किसी विशेष राजनैतिक दल की सरकार किसी विचारधारा के प्रचार में बहुत सहायक भी हो सकती है और बहुत बड़ी रुकावट भी बन सकती है. कई बार कोई विचारधारक लहर किसी विशेष सत्ताधारी राजनैतिक दल के लिए राजनैतिक या रणनीतिक तौर पर लाभदायक हो, तो ऐसा राजनैतिक दल गुप्त या खुले तौर पर उस लहर की जम कर सहायता करता है. भारतीय पंजाब में दो प्रमुख राजनैतिक दलों में से एक सिरसा शहर वाले डेरा सच्चा सौदा का विरोध करता है और दूसरा समर्थन करता है. ऐसा असल में राजनैतिक कारणों से ही है. ज़ाहिर है कि राजनैतिक स्थितियाँ भी किसी प्रचारक की सफलता या असफलता में अपना योगदान डालती हैं.

कई बार पारिवारिक हालात भी किसी प्रचारक को सफल या असफल कर देते हैं. घर में बीमार पड़े चलने-फिरने से लाचार किसी वृद्ध की सेवा को छोड़ कर प्रचार करना अधिकतर संभव नहीं होता. कई बार पारिवारिक व्यस्तता प्रचार करने के लिए समय ही शेष नहीं छोड़ती. किसी व्यक्ति को अपनी वार्तालाप से आसानी से प्रभावित कर लेने वाला प्रचारक अपने घर के हालात के कारण ही प्रचार करने में असमर्थ हो जाता है. पारिवारिक और निजी कारण किसी प्रचारक की सफलता या असफलता में बड़ा योगदान करते हैं.

किसी प्रचारक की सफलता या असफलता में विशेष योगदान उसकी आर्थिक स्थिति का भी होता है. बौद्ध विचारधारा का जो प्रचार सम्राट अशोक की भारी सहायता से हुआ, वह उस से पहले सम्भव ही नहीं हो सका था. सम्राट की भारी आर्थिक और राजनैतिक सहायता से बौद्ध विचारधारा का प्रचार न केवल भारत में ही, बल्कि विदेशों में भी ख़ूब हुआ. बौद्ध विचारधारा के प्रचारक अशोक से पहले भी मौजूद थे पर उनको वह आर्थिक और राजनैतिक सहयोग नहीं मिल सका था, जो अशोक के समय के बौद्ध प्रचारकों को मिला. अशोक से पहले के बौद्ध प्रचारकों की योग्यता पर शक नहीं किया जा सकता, बस, उन के आर्थिक और राजनैतिक हालात उन को वैसी सफलता न दे सके.

किसी क्षेत्र की संस्कृति भी किसी विशेष विचारधारा के प्रचारक की सफलता में सहायक या अड़चन बनती है. भारतीय प्रचारक ओशो (रजनीश) को जो सफलता संयुक्त राज्य अमरीका में जा कर प्राप्त हुयी, वह केवल भारत में रहने से प्राप्त होनी असम्भव थी. उसकी विचारधारा का सांस्कृतिक पक्ष भारतीय संस्कृति से मेल नहीं खाता था. जब वह भारत आया भी, तो उसकी विशेष विचारधारा उसके अपने आश्रम से बाहर वैसा स्थान प्राप्त करने में सफल न हो सकी.

ऊपर वर्णित कारणों में से कोई एक कारण भी किसी प्रचारक की सफलता या असफलता निर्धारित करने में समर्थ है. कोई बहुत ही योग्य प्रचारक उपरोक्त कारण या कारणों से असफल हो सकता है. दूसरी और, उपरोक्त कारण या कारणों से कोई कम योग्यता रखने वाला प्रचारक भी बड़ी सफलता प्राप्त कर सकता है.

गोपाल पान्धा जी

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

पान्धा गोपाल जी ‘राय भोए दी तलवंडी’ (अब इसका नाम श्री ननकाना साहिब है) नामक गाँव में शिक्षक थे. गुरु नानक देव जी के पिता, मेहता कालू जी चाहते थे कि उनका पुत्र बही-खाता लिखने का काम सीखे, क्योंकि यही उनका अपना व्यवसाय था. इसलिये, उन्होंने गुरु जी को साथ लिया और पान्धा गोपाल जी के पास गये.

पान्धा गोपाल जी ने गुरु जी को शिक्षा देना प्रारम्भ किया. उन्होंने गणना से शुरू किया. परन्तु, गुरु जी तो इस विश्व में शिक्षा देने के लिये आये थे, न कि शिक्षा लेने. पान्धा गोपाल जी गणना से बाहर रहने वाले गुरु जी को गणना करना सिखाने का प्रयत्न कर रहे थे. पान्धा जी गुरु जी से अति प्रसन्न थे, क्योंकि वह समझ रहे थे कि गुरु जी बहुत शीघ्र सीख रहे थे. उन्होंने मेहता कालू जी के आगे गुरु जी की प्रशंशा की. जब कालू जी विद्यालय में आये, तो पान्धा जी ने गुरु जी को बुलाया और पहाढ़े (गुणक) सुनाने को कहा. गुरु जी ने एक शब्द भी नही कहा. पान्धा जी बोले, “क्यों नहीं सुनाते? कल तो तुम बहुत अच्छे-से सुना रहे थे. आज तुम्हे क्या हुआ? तुम अपने मित्रों के साथ खेलना चाहते हो? अभी तुम पढ़ने की इच्छा नहीं रखते.”

गुरु जी बोले, “आचार्य! आप क्या जानते हैं? आप ने क्या सीखा? बही-खाता सीखने का क्या लाभ है? पहले आप मुझे इसका उत्तर दें. उस उपरान्त ही मुझे शिक्षा दें.”

पान्धा जी हैरान हुए और बोले, “मैं गणना जानता हूँ, लेखा जानता हूँ. तुम पढ़ते क्यों नहीं?”

गुरु जी ने कहा, “पान्धा जी, आत्मा बंधन में है. जब आत्मा को दुःख सहन करना पड़ेगा, तब यह विद्या सहायता न देगी. यह बही-खाता की विद्या तब कोई सहायता न कर पायेगी, जब हम मृत्यु को प्राप्त होंगे. कुछ ऐसी विद्या ग्रहण करें, जो मृत्यु के बाद भी सहायता करे.”

गुरु जी ने तब राग श्री में एक शब्द का उच्चारण किया:

सिरीरागु महलु १ ॥ जालि मोहु घसि मसु करि मति कागदु करि सारु ॥ भाउ कलम करि चितु लेखारी गुर पुछि लिखु बीचारु ॥ लिखु नामु सालाह लिखु लिखु अंतु न पारावारु ॥१॥ बाबा एहु लेखा लिखि जाणु ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै होइ सचा नीसाणु ॥१॥ रहाउ ॥ जिथै मिलहि वडिआईआ सद खुसीआ सद चाउ ॥ तिन मुखि टिके निकलहि जिन मनि सचा नाउ ॥ करमि मिलै ता पाईऐ नाही गली  वाउ दुआउ ॥२॥ इकि आवहि इकि जाहि उठि रखीअहि नाव सलार ॥ इकि उपाए मंगते इकना वडे दरवार ॥ अगै गइआ जाणीऐ विणु नावै वेकार ॥३॥ भै तेरै डरु अगला खपि खपि छिजै देह ॥ नाव जिना सुलतान खान होदे डिठे खेह ॥ नानक उठी चलिआ सभि कूड़े तुटे नेह ॥४॥६॥

गुरु जी ने कहा, “मोह को जला कर उसकी घिसाई कर के सिआही बना लो. अपनी मति को, अक्ल को श्रेष्ठ कागज़ बना लो. प्रभु के भय को लेखनी बनाओ, चित को लिखारी बना कर गुरु से पूछ कर विचार लिखो. प्रभु का नाम लिखो, प्रभु की उसतति लिखो और लिखो कि प्रभु का कोई अन्त नहीं, कोई पारावार नहीं.”

पान्धा जी ने गुरु जी के शब्दों का मनन किया. पान्धा जी ने जान लिया कि यह कोई साधारण शिष्य नहीं है.

पान्धा जी ने गुरु जी के चरण छूए. वह गुरु जी के सच्चे शिष्य बन गये.

भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे भ्रष्टाचार-विरोधी

क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष करने वाले लोग खुद ही भ्रष्टाचारी हैं? अन्ना हजारे की अगुआई वाली संस्था “इंडिया अगेंस्ट करप्शन” (आईएसी), जिसके परचम तले भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया गया है, स्वयं ही विवादों में घिरती जा रही है.

आईएसी के वरिष्ठ सदस्य अरविंद केजरीवाल ने आयकर विभाग को साढ़े नौ लाख रुपये वापस कर देने की बात कही है. केजरीवाल फरमाते हैं कि वह इस मुद्दे को यहीं खत्म कर देंगे.

आयकर विभाग को साढ़े नौ लाख रुपये वापस कर देने से मुद्दा खत्म नहीं होता केजरीवाल
साहिब! इतनी रकम वापस करने से सिर्फ आपके खिलाफ़ आयकर विभाग का मामला ही समाप्त होता है. मुद्दा तो यह है कि आपने जो किया था, वह भ्रष्ट कार्य था या नहीं.

आईएसी की अन्य वरिष्ठ सदस्या किरण बेदी पर भी वित्तीय अनियमितता का आरोप है. 1979 में एक आईपीएस अधिकारी के तौर पर राष्ट्रपति से वीरता पदक पा चुकी किरण बेदी को एयर इंडिया के इकोनॉमी क्लास के किराए में 75 फीसदी की छूट हासिल है, लेकिन वह जहां भी सेमिनार में जाती हैं, उसके आयोजकों से पूरा किराया वसूलती हैं. यही नहीं इकोनॉमी क्लास में सफर करके वह आयोजकों से बिजनेस क्लास का किराया मांगती हैं.

जवाब में बेदी साहिबा ने फुर्माया कि वह जो भी करती हैं, नेक काम के लिए करती हैं, लेकिन इसे बेवजह तूल दिया जा रहा है.

यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर कोई डकैत डकैती का माल नेक कार्य में लगा दे, तो क्या उसकी डकैती अपराध नहीं रहती?

अब किरण बेदी कह रहीं हैं कि उन्हें आमंत्रित करने वालों को यात्रा खर्च के ऐवज में ली गई

अधिक राशि लौटा दी जाएगी. साफ़ है कि किरण बेदी के अन्तर्मन ने यह मान लिया है कि उन्होंने जो किया था, वह गलत था. लौटायी गयी राशि से किया गया अपराध माफ़ हो जायेगा क्या? कोई भी भ्रष्ट अधिकारी या नेता पकड़े जाने पर यदि यह कहे कि वह भ्रष्टाचार से हासिल की गयी राशि लौटा देगा, तो क्या उसका अपराध अपने आप माफ़ हो जायेगा?

अरविंद केजरीवाल तथा किरण बेदी के खिलाफ लगे वित्तीय अनियमितता के आरोपों और अन्य सदस्य प्रशांत भूषण द्वारा कश्मीर में जनमत संग्रह के समर्थन में दिए गए बयान के बाद “इंडिया अगेंस्ट करप्शन” (आईएसी) की छवि निश्चय ही खराब हुई है.

अन्ना हजारे टीम के महत्वपूर्ण सदस्य रहे राजेंद्र सिंह का कहना है कि हजारे अपने मकसद से भटक गए हैं और टीम अन्ना घमंडियों का दल है. उसमें अच्छे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है.

राजेंद्र सिंह का कहना है कि टीम अन्ना में सबसे खराब सदस्य किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल हैं. दोनों घमंडी हैं, दोनों अधिकारी रहे हैं, इसलिए लोगों पर रौब झाड़ना और अपनी बात थोपना उनकी आदत रही है.

सच्चाई क्या है, यह तो शायद कभी सामने आ ही जायेगी, परन्तु इस समय तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध चले इस आंदोलन के अगुआ कुछ लोगों के दामन दागदार-से नज़र आ रहे हैं.

– अमृत पाल सिंह ‘अमृत’

अक्तूबर २८, २०११.

वर्तमान बहु-पति प्रथा

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

महाभारत की कथा है कि द्रौपदी के पांच पति थे. ये पांच पति पाण्डव थे, जो आपस में भाई लगते थे. इस तरह, द्रौपदी पाँच पतियों की पत्नि थी.

यह तो थी महाभारत की कथा. जब मैं देहरादून (उत्तराखण्ड राज्य) में रहता था, तो जौनसार-बावर इलाके की लडकियों से सुनता था कि उन के इलाके में ऐसा रिवाज़ था कि कई भाईयों की एक सांझा पत्नि होती है. हालाँकि ऐसा रिवाज़ समय के साथ-साथ लगभग समाप्त होता जा रहा था.

परन्तु, अभी-अभी हरियाणा राज्य के एक सब-डिविज़नल जुडिशल मैजिस्ट्रेट डा. अतुल मारिया ने इन्क्शाफ किया है कि हरियाणा के डबवाली (सिरसा) क्षेत्र में ऐसा देखने में आ रहा है कि किसी औरत की शादी तो किसी और के साथ होती है, पर रहती वह अपने किसी देवर या जेठ के साथ है. ऐसे भी वाकयात हैं, जहाँ एक औरत एक ही समय में दो या दो से भी अधिक मर्दों के साथ रहती है. ये मर्द आपस में सगे भाई ही होते हैं. (देखो: http://www.tribuneindia.com/2011/20110815/haryana.htm#8)

बीते समय में पंजाब में भी ऐसा देखने को मिलता था कि अपनी भूमि की बाँट को रोकने के लिए कई परिवारों में सिर्फ एक ही भाई की शादी की जाती थी. यह भी, अप्रत्क्ष रूप में बहु-पति प्रथा का ही दोहराव था.

आखिर, ऐसी प्रथा वर्तमान समय में भी क्यों चल रही है? क्यों बहु-पति प्रथा फिर से आगे आ रही है?

असल में, बेटे की लालसा कई लोगों में इतनी बढ़ चुकी है कि वे गर्भ में ही बेटियों की हत्या करने से भी सँकोच नहीं करते. पैदा होते ही बेटियों को जान से मार दिया जाता है. बेटियों की देखभाल, खुराक आदि में कमी की जाती है. नतीजा यह निकला है कि भारत में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या में बहुत अन्तर देखने को मिल रहा है. सिरसा में ६ साल तक के बच्चों में १००० लड़कों के मुकाबले सिर्फ ८५२ लडकियाँ हैं. ज़ाहिर है कि १४८ लड़के ऐसे होंगे, जिनके लिए दुल्हन नहीं मिलेगी. ऐसी स्थिति में इस के सिवा और कोई रास्ता नही होगा कि दो या दो से अधिक लड़के किसी एक लड़की से शादी करें.

चाहे बहु-पति प्रथा भारत के कई हिस्सों में प्रचलित रही है और इसके कई सामाजिक, आर्थिक और परम्परागत कारण रहे हैं (देखो: http://www.articlesbase.com/weddings-articles/polyandry-a-social-system-in-india-now-state-of-disappearance-257364.html), परन्तु वर्तमान में हरियाणा आदि में ध्यान में आये बहु-पति प्रथा के इन रुझानों के पीछे एक ही कारण लड़कियों की तेज़ी से कम हो रही संख्या ही है.

इस से पहले कि बहुत देर हो जाये, यह बहुत आवश्यक है कि लोगों को लड़कियों की कम हो रही संख्या के बारे में जागरूक किया जाये और ऐसा यकीनी बनाया जाये कि लड़कियों और लड़कों की संख्या का अनुपात लगभग बराबर रहे. नहीं तो, आने वाले समय में समाज में कई प्रकार की विकृतियाँ पैदा हो जाएँगी, जो कि लम्बे समय तक भी ठीक नहीं की जा सकेंगी. आओ, बेटियों को बचाएँ, समाज को बचाएँ, खुद को बचाएँ…

मार्क स्ट्रोमन को सज़ा-ए-मौत

अमरीका में मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने जब अक्टूबर ०४, सन २००१ में वासुदेव पटेल के सीने में अपनी पिस्तोल से गोली मार कर उसकी हत्या की, वह (स्ट्रोमन) इस कत्ल को देश-भक्ति का कारनामा समझ रहा था.

इस हत्या से लगभग एक साल बाद तक भी उस का विचार बदला नहीं था. अपने ब्लॉग पर उसने कुछ ऐसा लिखा, “यह कोई नफ़रत का अपराध नहीं, बल्कि भावना और देशभक्ति का कार्य था, देश और समर्पण का कार्य, बदला लेने, सज़ा देने का कार्य था. यह शान्ति के समय नहीं, बल्कि युद्ध के वक्त किया गया था.”

परन्तु, जब उस को मौत की सज़ा सुनाई गई, उस के बाद उस ने फ़रमाया, “मैं अफ़सोस के साथ कहता हूँ कि मेरे गुस्से, दुःख और हानि की कीमत निर्दोष लोगों को चुकानी पड़ी. मैंने अपने और मेरे शिकार बने लोगों के परिवारों को नष्ट कर डाला है. निरोल गुस्से और मूर्खता से, मैंने पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और सउदी अरब के कुछ लोगों के साथ कुछ किया. और अब मैं सज़ा-ए-मौत की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. और, किसी तरह से भी मुझे उस पर गर्व नहीं हैं, जो मैंने किया.”

वासुदेव पटेल की हत्या से पहले मार्क एंथनी स्ट्रोमन ने सतंबर १५ को पाकिस्तानी मूल के वकार हसन के सर में गोली मार कर उसका कत्ल कर डाला था. महज़ छः दिन बाद ही मार्क स्ट्रोमन ने रईसउद्दीन के चेहरे पर गोली दाग दी. रईसउद्दीन की जान तो बच गई, मगर उस की एक आँख सदा-सदा के लिये नकारा हो गई.

सतंबर ११, २००१ को संयुक्त राज्य अमरीका के भीतर हुए हमलों की वजह से मार्क स्ट्रोमन बहुत गुस्से में था. उसे लगता था कि अमरीकी सरकार ने इन हमलों का बदला लेने के लिये कुछ नहीं किया और उसे ही कुछ करना होगा. उसने तीन लोगों को मध्य-पूर्व के लोग (अरब मुस्लिम) समझ कर उन पर हमले किये. इन में से दो लोग (पटेल और वकार हसन) की मौत हो गई.

पटेल और वकार हसन का अमरीका के भीतर हुए उन हमलों में किसी प्रकार का कोई हाथ नहीं था. गुस्से में पागल एक व्यक्ति के फतूर का शिकार बने इन मज़लूमों को तो यह भी नहीं पता था कि उन पर हमला आखिर किया क्यों गया.

हैरानी की बात तो यह है कि वासुदेव पटेल न तो मुसलमान था, न ही किसी अरब देश का नागरिक. वह भारतीय मूल का हिंदू था. वह तो सिर्फ इसीलिए मारा गया, क्योंकि कोई सिर-फिरा कातिल उसे मुस्लिम समझ रहा था.

अमरीका में वासुदेव पटेल अकेला ही ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो किसी सर-फिरे की गलतफहमी का शिकार बना. बहुत से सिख भी सिर्फ इस लिये निशाना बने, क्योंकि हमलावर उन्हें मुसलमान समझ रहे थे.

कुछ देर की नफ़रत ने विश्व भर में कितने ही लोगों की हत्याएँ करवाईं है ! नफ़रत की आंधी में कितनी ही स्त्यवंती नारियों के साथ दुराचार हुआ है ! चाहे १९४७ के अगस्त महीने में भारत के विभाजन की बात हो, १९८४ में सिक्खों का कत्लेआम हो, पंजाब में बसों से उतार कर हिंदुओं की हत्याएँ करना हो, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार हो या कश्मीर में पंडितों का दमन, इनसान के भीतर रहते शैतान के कुकृत्यों की सूची बहुत लम्बी है.

मौत की सज़ा का इंतज़ार करते हुए मार्क स्ट्रोमन ने कहा था, “मैं आपको यह नहीं कह सकता कि मैं एक निर्दोष व्यक्ति हूँ. मैं आपको यह नहीं कह रहा कि मेरे लिये अफ़सोस करो, और मैं सच्चाई नहीं छुपाऊँगा. मैं एक इनसान हूँ और मैंने प्यार, दुःख और गुस्से में एक भयन्कर भूल की. और मेरा विश्वास करो कि मैं दिन के एक-एक मिनट में इस की कीमत चूका रहा हूँ.”

कुछ भी हो, मार्क स्ट्रोमन ने अपना गुनाह कबूल किया और अपने पछतावे का इज़हार भी किया. अपने गुनाह को मान लेने से गुनाहगार का गुनाह माफ़ तो नहीं होता, मगर इस से कुछ और लोगों को गुनाहगार न बनने की प्रेरणा अवश्य मिलती है. गुनाहगार का पछतावा कुछ हद तक कुछ लोगों को वही गुनाह करने से रोकता है.

१९८४ में सिक्खों का कत्लेआम, पंजाब में हिन्दुओं की हत्याएँ, गुजरात में गोधरा काण्ड और मुसलमानों का नरसंहार या कश्मीर में पंडितों का दमन करने के किसी भी तरह के दोषी क्या मार्क स्ट्रोमन का अनुसरण करेंगे? क्या वे अपने गुनाह कबूल करेंगे? गुनाह कबूल करना भी कुछ हद तक बहादुरी ही है. क्या निर्दोषों की हत्याएँ करने वाले अपना गुनाह कबूल कर के कुछ बहादुरी दिखायेंगे?

जुलाई २०, २०११ को टैक्सास की एक जेल में मार्क स्ट्रोमन को ज़हर का टीका लगा कर मौत की सज़ा दे दी गई.

– अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’