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आधुनिक दुर्योधन, दु:शासन, और कर्ण

(अमृत पाल ‘सिंघ’ अमृत)

दुर्योधन ने अपने मामा शकुनि की सहायता से युधिष्ठिर को छल से जुए में हरा दिया था। युधिष्ठिर की भी बुद्धि फिर गयी और उसने अपनी पत्नी द्रौपदी को भी जुए के लिए दाँव पर लगा दिया। शकुनि ने पाँसा फेंका और युधिष्ठिर जुए में द्रौपदी को भी हार गया।

उसके बाद राजा धृतराष्ट्र की उस सभा में जो हुया, उसका ज़िक्र करने में ज़ुबान थरथर्राने लगती है। उस बे-हद शर्मनाक घटना को लिखते-लिखते कलम भी कांपने लगती है।

सत्ता का, सियासी ताक़त का नशा, और हर तरह के नशे से बढ़कर होता है। और जो सियासी ताक़त के क़ाबिल न हो, उसको अगर सियासी ताक़त मिल जाये, फिर तो उस से बढ़कर कोई दुराचारी और पापी नही होता। रावण तो सिर्फ एक उदाहरण है सियासी ताक़त के नशे में पागल हुये ऐसे दुराचारियों की।

दुर्योधन शायद रावण से भी बढ़कर कोई काम करने पर उतरा हुया था। सियासी ताक़त के नशे में चूर दुर्योधन ने हुक्म दिया कि पांचाली द्रौपदी को भरी सभा में पेश किया जाये।

दुर्योधन रिश्ते में द्रौपदी का देवर ही तो था। हाँ, यह बात अलग है कि उस सभा में कोई लक्ष्मण सा देवर न था। लक्ष्मण कोई हर युग में ही पैदा होते हों, ऐसा तो नहीं है न। पैदा हो भी जायें, तो लक्ष्मण कभी ऐसी निर्लज सभा में तो नहीं बैठेंगे। दशरथ की सभा हो या राम का दरबार हो, तो लक्ष्मण हो सकते हैं वहाँ। पर धृतराष्ट्र के दरबार में लक्ष्मण नहीं होते। दुर्योधन जैसों की राज-भक्ति कम-अज़-कम लक्ष्मण जैसे धर्मवीर तो नहीं कर सकते।

दुष्ट नीच को राजसत्ता का संरक्षण मिल चुका है। अब वह रिश्ते में अपनी ही भाभी को भरे दरबार में नंगा करने का हुकुम दे डालता है।

बादशाह अन्धा हो, तो कोई बात नहीं, पर अगर उसकी अक्ल पर पर्दा पड़ जाये, तो पूरे राष्ट्र की तबाही की संभावना हो जाती है। अपने रिश्तेदारों, अहलकारों, और समर्थकों को अगर वह पाप से नहीं रोकता, तो उसके वे पापी रिश्तेदार, अहलकार, और समर्थक तो तबाह होंगे ही, साथ में अपने राष्ट्र को भी तबाही की कगार पर ला खड़ा करेंगे।

पुत्र-मोह में अन्धे हुये धृतराष्ट्र को उस वक़्त यह ख़्याल तक न होगा कि उसकी अपनी हुकूमत की तबाही का बीज बोया जा रहा था। धृतराष्ट्र का बेटा और दुर्योधन का भाई दु:शासन द्रौपदी को केशों से पकड़ कर राजा की उस भरी सभा में घसीटता हुया लाया। उस वक़्त द्रौपदी सिर्फ एक ही कपड़े में थी। उसको उस राजा की सभा में ऐसे ही घसीटते हुये लाया गया, जो राजा उस का रिश्ते में ससुर भी लगता था। तथाकथित शूरवीरों की उस भरी सभा में उसके अपने ही रिश्तेदार और बज़ुर्ग थे ससुराल की ओर से। राजा की वह सभा उस के ससुरालियों की सभा ही तो थी।

सियासी ताक़त के बुरे नतीजे का चिन्ह बन चुके दुर्योधन ने हुकुम दे डाला कि द्रौपदी को भरी सभा में नंगा कर दो।

भाई गुरदास जी ने लिखा है:

अंदर सभा दुसासनै मथै वाल द्रौपती आंदी॥
दूतां नो फुरमाइआ नंगी करहु पंचाली बाँदी॥ (पउड़ी ८, वार १०)।

युधिष्ठिर ने जुआ खेला और जुए में द्रौपदी हार दी थी, तो क्या अब द्रौपदी यूर्योधन और उसके भाइयों की भाभी न रही थी? क्या अब धृतराष्ट्र उसका ससुर न रहा था? क्या देवव्रत भीष्म अब द्रौपदी के दादा-ससुर न रहा था?

युधिष्ठिर ने जुए में अपनी पत्नी को खो दिया था? या, धृतराष्ट्र ने जुआ खेला और अपनी बहू को खो दिया था?

बूढ़ा हुआ देवव्रत भीष्म उस वक़्त द्रौपदी के सवालों का जवाब देते-देते “धर्म” को ही मज़ाक का विषय बना डालता है।
महाभारत ग्रंथ में पढ़ना देवव्रत का धर्म पर उस वक़्त दिया गया व्याख्यान।

आख़िर, द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उसकी रक्षा किसी राजा धृतराष्ट्र ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर वह रक्षा कुल-पुरोहित कृपाचार्य ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उस की रक्षा शस्त्रधारी योद्धा द्रोण या अश्वथामा ने नहीं की। द्रौपदी की रक्षा हुई, पर उसकी रक्षा अम्बा, अंबिका और अंबालिका का अपहरण करने वाले देवव्रत भीष्म ने नहीं की।

ये क्या रक्षा करते? इनको तो यह भी नहीं पता होगा कि राष्ट्र-भक्ति और राज-भक्ति में बहुत फ़र्क होता है। यह तो राज-धर्म भूल चुके धृतराष्ट्र और पापी दुर्योधन के हुकुम मानने को ही राष्ट्रवाद समझ रहे होंगे। ख़ुद को राष्ट्रवादी होने का दिखावा करते-करते अपनी आँखों के सामने एक अबला का अपमान होते देख कर भी उसको रोकने का कोई कारगर तरीक़ा का ढूंढ पाये।

राष्ट्र के हित की बात तो यही होती कि दुष्ट राजा और उसके अहलकारों को सियासी ताक़त से महरूम कर दिया जाता। बाद में भी तो युद्ध के मैदान में दुर्योधन और उसकी दुष्ट चौकड़ी को मारना ही पड़ा।

लेकिन, एक दुर्योधन मर गया, तो इस का मतलब नहीं कि दुर्योधन फिर कभी पैदा नहीं हुया। अपने आस-पास देखोगे, तो पाओगे कि दुर्योधन अभी भी भेस बदल कर यहाँ-तहां घूमता रहता है। सियासी ताक़त के नशे में झूमते कई दुर्योधन कभी-कभी अख़बारों की सुर्खियां भी बन जाते हैं, हालांकि ज़्यादातर उनके पापों की चर्चा होती ही नहीं है।

दिल्ली में “निर्भया” बलात्कार काण्ड करने वाले आज के दौर के दुर्योधन ही तो हैं। वह बेचारी भी तो किसी की बेटी थी। उन नीच बलात्कारियों के साथ हमदर्दी रखने वाले कौन हैं? वे सब दुर्योधन के भाई आधुनिक दु:शासन और दुर्योधन के दोस्त आधुनिक कर्ण ही तो हैं।

छोटे-मोटे दुर्योधन तो सोश्ल-मीडिया पर भी बहुत मिल जाते हैं। किसी भी लड़की की फोटो किसी सोश्ल-मीडिया वेबसाइट पर डाली और बदनाम करना शुरू। द्रौपदी भी किसी की बेटी, किसी की बहन, किसी की पत्नी, और किसी की माँ थी। आज का दुर्योधन इंटरनेट पर जिस लड़की को बे-वजह बदनाम करता है, वह भी किसी की बेटी और किसी की बहन होती है। अक्ल के अन्धे ऐसे बहुत दुर्योधन तो इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पाते कि अपनी असल पहचान ही बता सकें। कभी वह किसी लड़की की प्रोफ़ाइल के पीछे छिपे हुये मिलते हैं, तो कभी राष्ट्रवाद या धर्म का मुखौटा पहने पाये जाते हैं। दिखावे के धर्म-कर्म के काम दुर्योधन क्या नहीं करता था?

आधुनिक दौर में तो ऐसे दुर्योधन भी बैठे हैं, जो मर चुकी औरतों के चरित्र पर भी कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते। जब ऐसे दुष्टों के मुखौटे उतरेंगे, तो उनके असली चेहरे बहुत ही भद्दे निकलेंगे।

आधुनिक दुर्योधन और उनके दु:शासन और कर्ण यह भी जान लें कि दुर्योधन और उसकी दुष्ट मंडली का क्या हुआ? गुरु ग्रंथ साहिब जी में भक्त नामदेव जी का शब्द है: –

मेरी मेरी कैरउ करते दुरजोधन से भाई ॥ बारह जोजन छत्रु चलै था देही गिरझन खाई ॥२॥

(६९३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

युद्ध के मैदान में दुर्योधन का मान तोड़ ही दिया गया था। भक्त कबीर साहिब का फुरमान है:

दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥

(११६३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

नीच की कड़वी बात का उत्तर न दो

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

जिसके मन में पाप ही भरा-पड़ा हो, ऐसे सम्बन्धी से नज़दीकी बढ़ा कर क्या पाओगे? नीच आदमी से दोस्ती करोगे, तो क्या मिलेगा? नीच पुरुष को सम्मान दोगे, तो क्या मिलेगा? ओछी सोच रखने वाले को अपने पास जगह दोगे, तो क्या मिलेगा?

कभी सोचना, युधिष्ठिर को क्या मिला दुर्योधन को सम्मान दे कर।

पाण्डु की जब मौत हुई, पाण्डव तब शतशृंग पर्वत पर रहते थे। पाण्डु की मौत के बाद वे कुन्ती के साथ अपने रिश्तेदारों के यहाँ आ पहुँचे। धृतराष्ट्र बड़ा भाई था पाण्डु का। इस तरह धृतराष्ट्र पांडवों का ताऊ लगता था। दुर्योधन और उसके अन्य भाई इसी धृतराष्ट्र के बेटे थे। ये सभी पांडवों के रिश्तेदार ही तो हुये।

महाभारत ग्रन्थ पढ़ो, तो पता चलता है कि दुर्योधन के मन में खोट भरा पड़ा था। पांडवों के प्रति उसके मन में ख़ास दुश्मनी थी।

कभी पाण्डु राजा था। अब धृतराष्ट्र राजा हो चुका था। पाण्डु के पुत्र होने की वजह से पांडवों का हक़ बनता था हुकूमत पर। अब कोई पापी हो, तो किसी दूसरे को उसका जायज़ हिस्सा भी कैसे दे देगा? जायज़ हिस्सा दे ही दे, तो फिर पापी ही न रहा वह। दुर्योधन पापी था। उसने पांडवों को राज्य देने का विरोध किया। पुत्र-मोह के आगे धृतराष्ट्र बे-बस हो गया। मोह ने उसके ज्ञान के नेत्र भी बन्द कर दिये थे।

पापी हमेशा साज़िशें रचता है निर्दोषों के खिलाफ़। दुर्योधन ने भी साजिशें रचीं पांडवों के खिलाफ़। लाख (लाक्ष) के बने घर में घर समेत पांडवों को उनकी माता के साथ मारने की साज़िश रच डाली।

पांडव मरे नहीं वहाँ। अब मरना-मारना तो प्रभु के हाथ है, इंसान के हाथ नहीं। पांडव बच निकले। लेकिन, दुर्योधन ख़ुश था इसी ग़लतफ़हमी में कि पाण्डव अपनी माता सहित जल मरे।

बहुत समय बीत गया। द्रौपदी के स्वंयबर का मौक़ा आया। दुर्योधन भी पहुँचा। पाण्डव भी पहुँचे। और पहुँचे श्री कृष्ण भी।

स्वंयबर में अर्जुन ने द्रौपदी को जीता।

पापी को उसके पाप ही डराते रहते हैं। अब दुर्योधन और धृतराष्ट्र को डर सताने लगा। पाण्डव ज़िन्दा हैं। और अब अकेले भी नहीं। पांचाल नरेश का साथ है । अब तो कृष्ण का भी साथ है।

राज्य का बँटवारा हो, ऐसा फ़ैसला कर दिया गया। आधा राज्य पाँडवों को दे दिया गया।

अलगाववाद कभी पक्का हल नहीं होता। मिल कर रहना ही सही होता है। अलग हो भी जाओ, तो इस से क्या दुश्मनी ख़त्म हो जायेगी? नफ़रत दिल में भरी पड़ी हो, तो अलग-अलग हो कर दुश्मनी जारी रहती है।

पांडवों ने अपने राज्य का विस्तार किया। अब खुशियाँ मनाने का वक़्त था। सब को इन खुशियों में शामिल होने के लिये बुलाया। दुर्योधन आदि को भी बुलावा भेज दिया।

वे आये। पांडवों ने उन को बहुत इज़्ज़त दी।

जो इज़्ज़त के लायक नहीं, उसको इज़्ज़त देने से कई बार ख़ुद बे-इज़्ज़त होना पड़ जाता है। जिस की ख़ुद की कोई इज़्ज़त नहीं, वह दूसरों को बे-इज़्ज़त करने में ही ख़ुशी महसूस करता है। पांडवों के बे-इज़्ज़त होने का वक़्त नजदीक आ रहा था।

दुष्ट व्यक्ति दूसरे के शोभा और इज़्ज़त बर्दाश्त नहीं कर सकता। दुर्योधन से भी पांडवों की शोभा और शान-ओ-शौकत बर्दाश्त कहाँ होती?

जब वह वापिस अपने नगर गया, तो पांडवों से राज्य छीन लेने की तरक़ीब सोचने लगा। दुष्ट कायर होता है। ओछे हथकंडे ही अपनाता है। दुर्योधन ने अपने दुष्ट साथियों के मशवरे के अनुसार युधिष्ठिर जो जुआ खेलने के लिये बुलाया।

सब जानते ही हैं कि क्या हुआ। दुष्ट और कपटी व्यक्ति जुआ भी तो कपट से ही खेलेगा। जुआ खेला गया। शकुनि ने दुर्योधन की तरफ़ से दांव फ़ेंके। कपट में माहिर था शकुनि। नतीजा यह हुया कि युधिष्ठिर जुआ हार गया।

महाभारत ग्रन्थ बहुत विस्तार से बताता है कि फिर क्या हुया…

युधिष्ठिर ने अपनी पत्नि द्रौपदी को भी जुए में दांव पर लगा डाला। और हार भी गया।

मर्दों की उस विशाल सभा में द्रौपदी के साथ जो हुया, उसका ज़िक्र करने की हिम्मत कम-अज़-कम मुझ में तो नहीं है। बस इतना ही कहूँगा कि द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की कोशिश हुयी। एक अबला सैंकड़ों मर्दों के सामने अपमानित होती रही। महाभारत ग्रन्थ में कई पन्ने इसी घटना का विवरण देते हैं। इतिहास के वे पन्ने मैं सियाही से नहीं, कभी आंसुओं से लिखूंगा।

दुष्ट नीच से नीच हरकत कर के भी लज्जित नहीं होता। दुर्योधन भी लज्जित नहीं था इस कुकर्म पर। उल्टा वह पांडवों को और अपमानित करने लगा। बेहूदा बातें बोलने लगा।

पाण्डव भीम को क्रोध आया। बहुत क्रोध आया। यहाँ तक कि अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के प्रति भी क्रोध किया।

दुर्योधन बोला, तो उसका ही एक साथी कर्ण भी कहाँ पीछे रहता? उसने भी अपमान भरे बोल कहे। भीम से बर्दाश्त नहीं हुआ।

भीम बोलना शुरू ही हुया, कि अर्जुन ने अपने बड़े भाई भीम को रोका।

मैं पांडवों की कहानी नहीं सुनाना चाहता आज। मैं तो बस वह बात सुनाना चाहता हूँ, जो अर्जुन ने उस वक़्त भीम को कही थी। अर्जुन की वह बात मैंने अपने पल्ले बाँध ली। औरों को भी कहता हूँ कि यह बात पल्ले बाँध लो।

दुष्टों द्वारा अपमानित हुये क्रोध से भरे भीम को अर्जुन ने कहा: –

न चैवोक्ता न चानुक्ता हीनत: पुरुषा गिर: ।
भारत प्रतिजल्पन्ति
सदा तूत्तमपुरुषा:॥८॥
(७२वां अध्याय, सभा पर्व, महाभारत)।

“भारत ! श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषों द्वारा कही, या न कही गयी कड़वी बातों का कभी उत्तर नहीं देते ॥८॥”

इसी लिये मैं अक्सर कहता हूँ कि अगर कोई कुत्ता मुझ पर भोंके, तो क्या मुझे भी उस पर भोंकना शुरू कर देना चाहिये? क्या उस पर भोंक कर मुझे भी बदला लेकर यह दिखा देना चाहिये कि देखो, मैं कितना बहादुर हूँ? कुत्ते पर भोंक रहा इन्सान, इन्सान ही कहाँ रहा? वह तो कुत्ता हो गया। दिखने में वह इन्सान ही है, लेकिन काम तो कुत्ते वाला ही है।

नीच लोगों की कही बातों का जवाब देते वक़्त हम भी ग़ुस्से में भर कर कुछ ग़लत बोल सकते हैं। नीच चाहता भी यही है। वह ख़ुद तो नीच है ही, औरों को भी नीच बना देना चाहता है।

क्या किसी नीच की कड़वी बात का जवाब देने के चक्कर में हमें भी नीच बन जाना चाहिये?

अर्जुन ने कहा है, “श्रेष्ठ पुरुष नीच पुरुषों द्वारा कही, या न कही गयी कड़वी बातों का कभी उत्तर नहीं देते।”

आप को भी मैं कहता हूँ कि अर्जुन की यह बात अपने पल्ले बाँध लो।

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नानक इह बिधि हरि भजउ

नोट: यह लेख PDF फ़ारमैट में भी उपलब्ध है। डाउनलोड करने के लिये इस लिन्क पर जाएँ: –
http://www.amritworld.com/hindi/articles/nanak_eh_bidh_har_bhajau_hindi.pdf

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

किसी जीव मेँ अवगुण भी हो सकते हैं और सद्गुण भी। कुत्ता भी जीव है। कुत्ते मेँ अवगुण भी हैं और गुण भी हैं।

कुत्ते मेँ एक अच्छा गुण है, उसका अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होना। मालिक उसको अच्छा भोजन दे या बुरा, कुत्ता अपने मालिक का साथ नहीं छोड़ता। मालिक उनकी पिटाई करे, तो भी कुत्ता अपने मालिक का दर नहीं छोड़ता, ऐसा बहुत प्रसिद्ध है।

खोजी विद्वानों का कहना है कि कुत्ते का साथ इन्सान की शारीरक और मानसिक सेहत के लिये बहुत अच्छा है। जिन लोगों ने कुत्ते पाले हुये हैं, उनकी सेहत और लोगों के मुक़ाबले मेँ बढ़िया रहती है और दिल भी ख़ुश रहता है। जो लोग कुत्ता पालते हैं, उनकी बढ़िया सेहत की एक वजह यह भी है कि कुत्ते की देखभाल करते-करते उनकी अच्छी कसरत हो जाती है।

कुत्ता एक अच्छे दोस्त की तरह अपने मालिक के दु:ख-सुख को महसूस करने की योग्यता रखता है। इस बारे मेँ कई कहानियाँ हमें सुनने को मिल जाती हैं। वह अपाहिज लोग, जिन्होने कुत्ता रखा होता है, अजनबी लोगों से मिलते वक़्त ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। डिप्रेशन आदि मानसिक समस्याओं से परेशान लोगों के लिये कुत्ता बहुत बढ़िया मददगार साबित होता है।

कुत्ता हज़ारों सालों से इन्सानों के साथ चला आ रहा है। इन्सान की तवारीख़ मेँ कुत्ते का ज़िक्र शुरू से ही मिलता है। दुनिया भर के साहित्य मेँ कुत्तों का ज़िक्र है। बुल्ले शाह ने भी कुत्ते का ज़िक्र करते हुये कहा था: –

बुल्लिया ! रातीं जागें, दिनें पीर सदावें,
रातीं जागण कुत्ते,
तैं थीं उत्ते।

गुरुवाणी मेँ बहुत जगहों पर वाणीकारों ने ख़ुद को कुत्ता (कूकर) कहा है, जैसे: –

हम कूकर तेरै दरबारि ॥ (९६९, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

और,

कबीर कूकरू राम कउ (१३६८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

कुत्ते में कुछ अवगुण भी हैं और गुरुवाणी ने इन अवगुणों की भी बात की है, पर जो भी हो, कुत्तों के अवगुणों से उनके गुण ज़्यादा हैं।

एक गुण कुत्ते मेँ ऐसा है, जो उसके अवगुणों को छिपा लेता है। यह गुण है वफ़ादारी का। श्री सद्गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने भी कुत्ते (श्वान/सुआन) के अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होने के गुण का ज़िक्र करते हुये एक-मन और एक-चित हो कर हरि की भक्ति करने की बात कही है: –

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

श्री सद्गुरु कहते हैं कि जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता, हे नानक ! इसी तरह ही एक-मन हो कर, एक-चित हो कर हरि का भजन किया जाना चाहिये।

‘सुआमी को ग्रिहु’, स्वामी का गृह, मालिक का घर। सुआन कुत्ते को कहते हैं। ‘तजत नही’, त्याग नहीं देता, छोड़ता नहीं। अर्थात, जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता।

‘नानक’, अपने-आप को सम्बोधित करते हुये सद्गुरु कहते हैं, ‘हे नानक !’, ‘इह बिधि’, इस विधि से, इस तरीक़े से। ‘हरि भजउ’, हरि का भजन करो, प्रभु की बन्दगी/सुमिरन करो। ‘इक मनि’, एक-मन हो कर, मन की ऐसी अवस्था बना कर, जब कोई और विचार मन मेँ न रहे। ‘इक चिति’, एक-चित हो कर। जब चित की अवस्था ऐसी हो जाए कि चित प्रभु का ही रूप हो जाये।

‘इह बिधि’। कौन-सी विधि? श्लोक की पहली पंक्ति मेँ कुत्ते की वफ़ादारी का ज़िक्र किया। वफ़ादारी की उसी विधि का प्रयोग करो प्रभु के लिये भी। कोई भी स्थिति हो, कुत्ता अपने मालिक का घर नहीं छोड़ता। भक्त भी वफ़ादारी की उसी विधि का प्रयोग करे। मालिक प्रभु जिस तरह रखे, उसकी रज़ा मेँ राज़ी रहना।

श्री सद्गुरु रामदास जी महाराज ने कितना सुन्दर कहा है:-

जे सुखु देहि त तुझहि अराधी दुखि भी तुझै धिआई ॥२॥
जे भुख देहि त इत ही राजा दुख विचि सूख मनाई ॥३॥
तनु मनु काटि काटि सभु अरपी विचि अगनी आपु जलाई ॥४॥
पखा फेरी पाणी ढोवा जो देवहि सो खाई ॥५॥
नानकु गरीबु ढहि पइआ दुआरै हरि मेलि लैहु वडिआई ॥६॥
अखी काढि धरी चरणा तलि सभ धरती फिरि मत पाई ॥७॥
जे पासि बहालहि ता तुझहि अराधी जे मारि कढहि भी धिआई ॥८॥
जे लोकु सलाहे ता तेरी उपमा जे निंदै त छोडि न जाई ॥९॥
(७५७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

श्री सद्गुरु रामदास जी महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! अगर तुम मुझे सुख दो, तो भी मैं तेरा ही आराधन करता रहूँ। अगर दु:खों मेँ हूँ, तो भी तेरी ही आराधना करता रहूँ।२। अगर तुम मुझे भूखे रखो, तो इस (भूख) मेँ भी मैं भर-पेट रहूँ। (तेरे दिये) दु:खों मेँ सुख ही भोगता रहूँ ।३। अपना तन और मन काट-काट के सब तेरे लिये अर्पण कर दूँ। आग मेँ खुद को जला दूँ।४। (तेरे लिये) पंखा फेरूँ। (तेरे लिये) पानी लाऊं। (हे प्रभु!) जो तुम दो, वह ही मैं खा लूँ।५। (महाराज कहते हैं कि मैं) ग़रीब नानक तुम्हारे दर पर आ गिरा हूँ। हे प्रभु! मुझे अपने मेँ मिला लो। यह ही तुम्हारा बढ़पन है, शोभा है।६। (अपनी) आखें निकाल कर (प्रभु) के चरणों के नीचे रख दूँ। सारी धरती पर (भी अगर मुझे तेरी तलाश मेँ घूमना पड़े, तो मैं) घूमता रहूँ, (यह सोच कर कि) शायद मुझे प्रभु मिल जाये, शायद परमात्मा से मेरा मेल हो जाये।७। अगर तुम मुझे अपने पास बैठा लो, तो मैं तेरी ही आराधना करूँ। अगर तुम मार-पीट कर के (अपने दर से) निकाल दो, तो भी मैं तेरी ही आराधना करता रहूँ।८। अगर दुनिया मेरी तारीफ़ करे, तो भी मैं तेरी ही गुणगान करता रहूँ। अगर समाज मेरी निन्दा करे, तो भी (मैं तेरी भक्ति) छोड़ कर न जाऊँ।९।

यह है वफ़ादारी प्रभु के प्रति। प्रभु जैसी भी अवस्था मेँ रखे, भक्त उसमें ही राज़ी है, ख़ुश है।

ऐसी ही वफ़ादारी की बात श्री सद्गुरु तेग़ बहादुर साहिब ने की है, जब उन्होने कहा: –

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

वफ़ादारी दुर्लभ हो गयी है आजकल। न परिवार के लिये वफ़ादारी रही, न दोस्तों के लिये। न समाज के लिये वफ़ादारी रही, न धर्म के लिये।

परिवार के लिये वफ़ादारी क्या है?

जिस परिवार ने, या परिवार के जिन सदस्यों ने पाल-पोस के बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार करने लायक बनाया, उस परिवार या परिवार के सदस्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाना ही परिवार के प्रति वफ़ादारी है।

परंतु, ज़्यादातर होता क्या है?

जिस परिवार ने, या जिन पारिवारिक सदस्यों ने पाल-पोस के बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोज़गार करने लायक बनाया, उस परिवार या परिवार के सदस्यों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल कर लोभी इन्सान अपने ही सुखों के लिये यतनशील हो जाता है। शादी हो गयी, तो इन्सान अपने माँ-बाप आदि के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल कर अपनी पत्नी को लेकर माँ-बाप से अलग हो जाता है।

जब पैदा हुये, तो भगवान को बिसार दिया, जब शादी हुयी, तो माँ-बाप को भुला दिया।

भाई गुरदास जी ने इस बारे मेँ ऐसा लिखा है: –

कामणि कामणिआरीऐ कीतो कामणु कंत पिआरे ॥
जम्मे सांई विसारिआ वीवाहिआं माँ पिअ विसारे ॥
सुखां सुखि वीवाहिआ सउणु संजोगु विचारि विचारे ॥
पुत नूहै दा मेलु वेखि अंग ना माथनि माँ पिउ वारे ॥
नून्ह नित मंत कुमंत देइ माँ पिउ छडि वडे हतिआरे ॥
वख होवै पुतु रंनि लै माँ पिउ दे उपकारु विसारे ॥
लोकाचारि होए वडे कुचारे ॥१२॥
(वार ३७)।

दोस्तों से वफ़ादारी अब बस किताबों मेँ ही लिखी रह गयी है। शायर बशीर बदर का एक शेयर है: –

दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें,
किस ज़माने के आदमी तुम हो?

आज के वक़्त मेँ सियासत मेँ वफ़ा की उम्मीद करना ही बेवकूफी माना जायेगा। सियासत आज समाज की सेवा करने के लिये नहीं, बल्कि अपना घर भरने के लिये ही समझी जाती है। सियासत की थोड़ी-सी जानकारी रखने वाले जानते हैं कि आज की सियासत मेँ वफ़ादारी की कोई गुंजायश ही नहीं रही। अपनी सियासी जमायत मेँ कोई रुतबा न मिला, तो पार्टी छोड़ दी। इलैक्शन लड़ने के लिये टिकेट नहीं मिली, तो पार्टी छोड़ दी। दूसरी पार्टी की तरफ से अच्छे रुतबे की पेशकश हुयी, तो पार्टी छोड़ दी। एक बार पार्टी छोड़ देने के बाद उसी पार्टी की तरफ से कोई लालच दिया गया, तो वापिस उसी पार्टी मेँ जाने से भी कोई संकोच नहीं। वफ़ादारी नहीं, बल्कि ज़ाती फ़ायदे ही देखे जाते हैं आज की सियासत मेँ।

वफ़ादार की कमी अब मज़हब की दुनिया मेँ भी ख़ूब देखने को मिलती है। कुछ सहूलतों या पैसों के लालच मेँ कई लोग अपना मज़हब तक तब्दील करने मेँ झिझक महसूस नहीं करते। सियासी फ़ायदे के लिये भी मज़हब बदलने मेँ कुछ लोग देर नहीं करते। यह कहना ग़लत न होगा कि बहुत बार मज़हब को सियासी ताक़त हासिल करने के लिये एक औज़ार से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता। बहुत जगहों पर मज़हबी रहनुमा अपने सियासी आक़ाओं के हुकुम मानने वाले ही होते हैं।

जिस समाज मेँ न परिवार के प्रति वफ़ादारी है, न दोस्तों के प्रति; न समाज के प्रति वफ़ादार है, न मज़हब के प्रति; वहाँ प्रभु के प्रति वफ़ादारी रखने वाले कितने लोग होंगे? जिस समाज मेँ वफ़ादार इन्सान कम ही मिलते हों, वहाँ कुत्तों की वफ़ादारी की कहानियाँ सुनना बहुत अच्छा लगता है। कुत्ते की वफ़ादारी से अगर इन्सान कुछ सीख ले ले, तो बहुत अच्छी बात होगी।

जैसे कुत्ता अपने मालिक के प्रति वफ़ादार होता है और उसको कभी नहीं छोड़ता, उसी तरह हमें भी अपने प्रभु मालिक प्रति वफ़ादार रह कर उसकी भक्ति मेँ लगना चाहिये। संसारी वस्तुएं, धन-दौलत, सियासी या सामाजिक पदों के लालच मेँ लग कर प्रभु-भक्ति का त्याग नहीं कर देना चाहिये।

जैसे कुत्ता अपने मालिक का घर कभी नहीं छोड़ता, उसी तरह ही एक-मन हो कर, एक-चित हो कर हरि का भजन किया जाना चाहिये।

सुआमी को ग्रिहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित ॥
नानक इह बिधि हरि भजउ इक मनि हुइ इक चिति ॥४५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

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जगत सभ मिथिआ

नानक क़हत जगत सभ मिथिआ जिउ सुपना रैनाई॥ (सारंग महला 9, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

जगत मिथ्या है, नाशमान है। हक़ीक़त में इस का अपना अस्तित्व उसी प्रकार का ही है, जैसे किसी सपने का अस्तित्व होता है। रात को आए सपने के अस्तित्व के बारे में क्या कहा जाए? क्या उस का अस्तित्व है? क्या उस का अस्तित्व नहीं है? सपने का अस्तित्व हो कर भी वह अस्तित्व रहित है। सपना मिथ्या है। सपने में घटित घटना असलियत में घटित हुई ही नहीं, परंतु मन ने सपने में घटित घटना को असली मान लिया। इसीलिए, भयानक सपने से यह डर जाता है, दुख का सपना देख के दुखी हो जाता है और खुशी का सपना देख कर खुश हो जाता है। न कोई भयानक घटना घटी, न कोई दुखभरी घटना हुई, न ही खुशी की कोई बात हुई। केवल सपना आया, पर मन डर गया, दुखी हो गया या खुश हो गया। कुछ भी घटित नहीं हुया, पर मन ने डर, दुख या सुख को महसूस कर लिया।

मां को बिछड़ा बेटा मिला

एक मां को बिछड़ा बेटा मिल गया और एक बेटे को बिछड़ी मां मिल गयी। पढ़ कर भावुक हो गया हूँ। हज़ारों बच्चे अपने मां बाप से बिछड़े, पर उनमें से बहुत फिर कभी मिल नही पाये। गणेश को बहुत बधाई कि अंततः वह अपनी मां के चरणों तक पहुँच पाया। फिर भी, मैं यह महसूस कर सकता हूँ कि २३ साल तक अपने आप को ‘अनाथ’ समझ कर जीना उसे कैसे लगा होगा।

http://aajtak.intoday.in/story/lost-son-returned-after-23-year-as-a-cop-1-744762.html

आशा रखना ही सबसे बड़ा दुख है

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

अवधूत दत्तात्रेय जी ने राजा यदु को उपदेश करते हुये कहा था: –

आशा हि परमं दु:खं
नैराश्यम परमं सुखम।।

आशा रखना ही सबसे बड़ा दुख है और आशा-रहित होना ही सबसे बड़ा सुख है।

बात बड़ी गहरी है।

किसी वस्तु आदि की आशा करते करते, यदि वह मिल भी जाये, तो मन कहता है कि इसमें ख़ास क्या? यह तो मिलनी ही थी। इस की तो पहले से ही पूरी-पूरी आशा थी। कथित सुख मिलने पर भी भीतर से ख़ुशी न-हुई-सी ही हुई।

किसी वस्तु आदि की आशा करते करते, यदि वह न मिली, तो दुख ही दुख महसूस होता है। मन कहता है कि मैं इतनी आशा लगा कर बैठा था। यह तो मेरा अधिकार था। दुख है, बहुत दुख है कि यह मुझे नही मिली।

यदि किसी वस्तु आदि की आशा की ही न गई हो, और वस्तु न मिले, तो दुख कैसा? और, यदि किसी वस्तु आदि की आशा की ही न गई हो, फिर भी वह मिल जाये, तो क्या कहना ! आशा न की थी, नैराश्य रहे, और दुख से बचे रहे।

संतु न छाडै संतई

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

मेरे मुहल्ले के एक घर में एक पालतू कुत्ता है। बहुत भोंकता है। जब मैं उस घर के आगे से गुज़रता हूँ, तो भोंकना शुरू हो जाता है। उस का भोंकना भी बे-वजह है। मैं चोर नहीं हूँ। मैं उस घर का, या उस घर के बाशिंदों का भला ही चाहता हूँ। फिर भी, वह कुत्ता मुझ पर भोंकता ही रहता है।

जब वह कुत्ता अपने घर में मुझ पर भोंकता है, तो मुझे क्या करना चाहिये?

जब कोई कुत्ता मुझ पर भोंके, तो क्या मुझे भी उस पर भोंकना शुरू कर देना चाहिये? क्या उस पर भोंक कर मुझे भी बदला लेकर यह दिखा देना चाहिये कि देखो, मैं कितना बहादुर हूँ?

कुत्ते पर भोंक रहा इन्सान, इन्सान ही कहाँ रहा? वह तो कुत्ता हो गया। दिखने में वह इन्सान ही है, biologically, शरीर विज्ञान के अनुसार भी वह इन्सान ही है, लेकिन काम तो कुत्ते वाला ही है।

कोई उसे पूछे, “भाई, कुत्ते पर क्यों भोंक रहे हो?”

क्या कहेगा वह? यह कि “यह कुत्ता मुझ पर भोंक रहा था, इसलिये अपनी बहादुरी बताने के लिये मैं भी इस पर भोंक रहा हूँ। मैं कुत्ते पर इस लिये भोंक रहा हूँ कि कोई इन्सान मुझे यह न कहे कि इन्सान हो कर कुत्ते से डर गये?”

क्या वह यह कहेगा कि मैं बहादुरों की क़ौम से हूँ और कुत्ते का भोंकना हरगिज़ बरदाश्त नहीं कर सकता?

कोई इन्सान कुत्ते पर भोंकेगा, तो उस इन्सान की ही हंसी उड़ाई जायेगी। बाक़ी इन्सान उस भोंकने वाले को ही बुरा कहेंगे।

“अरे भाई! कुत्ता को भोंकने दो। कुत्ता है वह, भोंकेगा ही। तुम तो इन्सान हो। तुम क्यों कुत्ते बनते हो?”

कुत्ता भोंके, तो उसको नज़रअंदाज़ कर दो। किसी का पालतू है। उसको रखा ही गया है भोंकने के लिये। ज़्यादा प्रेशानी है, तो उसके मालिक से बात करो। उस का मालिक है, तभी तो वह कुत्ता बहादुर बना फिरता है। उसको लगता है कि वह अपने मालिक की हिफ़ाज़त में है, इसलिये भोंकता है।

अगर हम कुत्ते के भोंकने पर वापिस कुत्ते पर नहीं भोंकते, तो फिर उस आदमी के religion को, पंथ या धर्म को क्यों गाली देना शुरू कर देते हैं, जो हमारे पंथ या धर्म को गाली दे रहा है?

कोई मेरे धर्म के लिये बुरे लफ़्ज़ बोल रहा है, तो क्या यह ज़रूरी है कि मैं भी उसके धर्म के लिये बुरे लफ़्ज़ बोलूँ? कोई मेरे इष्ट को गाली दे रहा है, तो क्या मुझे भी उसके इष्ट को गाली देनी चाहिये? क्योंकि कोई कुत्ता भोंक रहा है, तो क्या मुझे भी भोंकना ही चाहिये?

कोई क्या कर रहा है, यह उस का कर्म है। अपने उस काम के लिये वह ही ज़िम्मेदार है। मेरे अपने काम के लिये मैं ही ज़िम्मेदार हूँ।

मेरे लिये महत्वपूर्ण मेरा धर्म होना चाहिये। मेरा कर्म, मेरा काम मेरे धर्म के अनुसार होना चाहिये। मेरा कर्म, मेरा काम मेरा धर्म ही निर्धारित करेगा। किसी की गाली मेरा कर्म निर्धारित नहीं कर सकती। अपने कर्म के लिये मुझे निर्देश अपने धर्म से लेना है। किसी बुरे इन्सान की गाली से मैं अपने लिये कोई निर्देश क्यों लूँ? मुझे वही करना चाहिये, जो मेरा धर्म मुझे कहता है। मेरा रहबर मेरा धर्म है, किसी की गाली मेरा रहबर नहीं है।

किसी के मूंह में ज़हर भरा है, तो मैं भी अपने मूंह में ज़हर क्यों भर लूँ? किसी बुरे इन्सान को जिंदगी ने ज़हर ही दिया है। उसके काम ऐसे रहे होंगे कि उसको ज़हर ही मिला। उस का परिवार ऐसा रहा होगा कि उसको ज़हर ही मिला। उसके हालात ऐसे रहे होंगे कि उसको ज़हर ही मिला। या फिर उसकी क़िस्मत को ही इल्ज़ाम दे लीजिये कि उसको सिर्फ़ ज़हर ही मिला है। उसको सच्चा गुरु न मिला होगा, उसको सही मुरशिद न मिला होगा, इस लिये उसको ज़हर ही मिला। बस, उसने ज़हर ही संभाल लिया है अपने मूंह में।

मेरे गुरु की कृपा हुई मुझ पर, मेरे रहबर की रहमत हुई मुझ नाचीज़ पर कि मुझे अमृत मिला, आब-ए-हयात मिला, मैं उस को क्यों न अपने मूंह में संभाल-संभाल के रखूँ? कोई भले ही अपने मूंह से ज़हर उगलता रहे, मुझे तो अमृत-बोल ही बोलने हैं।

अरे भाई, मैं करूँ भी क्या? मेरा गुरु मुझे ज़हरीले बोल बोलने सिखाता ही नहीं।

भक्त कबीर साहिब महान क्रांतिकारी हुये हैं। उनसे पूछो, तो वह फ़ुरमाते है कि संत अपनी संतताई, संत वाला अपना स्वभाव नहीं छोड़ता, चाहे उसको करोड़ों असंत मिल जायें। मल्य पहाड़ पर होने वाले चन्दन के पेड़ को साँप भी घेरे रहें, तो भी चन्दन का वह पेड़ अपनी शीतलता, अपनी ठंडक को छोड़ता नहीं है।

कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥
मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥
(१३७३, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

असंत लफ़्ज़ उनके लिए है, जो संत नहीं हैं। संत का मन शान्त है, असंत का मन बिलकुल ही शान्त नहीं है। संत दूसरों का भला करता है, असंत दूसरों का बुरा करता है। संत मीठे बोल बोलता है, असंत कड़वे बोल बोलता है। संत की वाणी से अमृत झरता है, असंत ज़हर उगलता है।

अगर कोई संत है, तो वह दूसरों का भला ही करेगा। जो बुरे हैं, संत उनका भी भला करेगा। जो उस संत का बुरा करेगा, संत उस का भी भला ही करेगा।

ऐसा नहीं है कि संत कोई प्लानिंग बनाता है कि उसने किसी का भला करना है। बस, उससे दूसरों का भला हो जाता है। ऐसा नहीं कि सूरज यह सोचता है कि मैं रौशनी बाँटूँ। बस, सूरज के होने से रौशनी हो जाती है। सूरज है, तो रौशनी बंटेगी ही।

चन्दन क्या यह सोचता है कि आज मैं ख़ुशबू बांटुंगा? ख़ुशबू चन्दन का अपना सहज गुण है। चन्दन है, तो ख़ुशबू होगी ही। ख़ुशबू चन्दन का धर्म है। ख़ुशबू और चन्दन एक दूसरे से घुले-मिले हैं। चन्दन होगा, तो ख़ुशबू होगी ही। कितने भी ज़हरीले नाग चन्दन के पेड़ को लिपटे रहें, चन्दन फिर भी ख़ुशबू ही देता है, ज़हर बांटना नहीं शुरू कर देता।

ऐसे ही, संत है, तो दूसरों का भला होगा ही। संत का सहज स्वभाव है दूसरों का भला करना। कोई उसका भी बुरा कर जाये, संत उस बुरे का भी भला ही चाहता है। चन्दन है, तो ख़ुशबू होगी ही। संत है, तो दूसरों की भलाई होगी ही।

सूरज के आस-पास अँधेरा है। गहरा अँधेरा है। गहरे अंधेरे के बीच रहते-रहते भी सूरज रौशनी देने का अपना स्वभाव छोड़ नही देता है। संत भी अगर करोड़ों असंतों, करोड़ों बुरे लोगों के बीच रहे, तो भी वह असंत नहीं हो जाता है। करोड़ों बुरे लोगों के बीच रहते भी वह अपना संत-स्वभाव छोड़ता नहीं है।

अँधेरा है, तभी तो पता है कि रौशनी क्या है। अँधेरा है, तभी तो सूरज की क़ीमत पता चलती है। अँधेरे की ग़ैर-मौजूदगी हो, तो सूरज को भी कौन जानेगा? अँधेरा न हो, तो सूरज की भी क्या ज़रूरत?

बुरे लोग हैं, तभी तो अच्छे इन्सान की क़ीमत है। बुरे लोग न हों, तो कौन किस को अच्छा इन्सान कहेगा? बुरे लोग हैं, तभी तो अच्छे लोगों की ज़रूरत महसूस होती है।

कुछ लोग होते तो अच्छे हैं, लेकिन कभी कुछ बुरे लोगों के साथ रह-रह कर उनके असर में बुरे ही बन जाते हैं। किसी बुरे इन्सान के बुरे काम देख कर वे भी बुरे काम करने लग जाते हैं। कभी किसी ने उनके साथ बुरा किया, तो बदले में अब वे भी बुरा ही करने लग गये हैं। ऐसे लोग कुछ भी हों, लेकिन संत तो नही हैं, क्योंकि संत बुरे लोगों की संगत में अपना संत वाला स्वभाव छोड़ नहीं देता। हमें संत बनना है। हमें गुरु की शिक्षा को अमल में लाना है। बुरे लोगों के साथ रह-रह कर, बुरे लोगों के प्रभाव में आ कर बुरा नहीं बनना है। हमने अच्छा बनना है। गुरु ने हमें अच्छा बनने की शिक्षा दी है।

हिन्दू-सिख एकता हमेशा रहेगी

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

हिन्दू धर्म कोई अभी-अभी नहीं शुरू हुया। हिन्दू धर्म कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले नहीं शुरू हुया। ऐसे ही, सिक्ख धर्म कोई अभी-अभी नहीं शुरू हुया, कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले नहीं शुरू हुया।

सिक्ख धर्म गुरु नानक देव के वक़्त से चला आ रहा है। सिख वह है, जो गुरुओं की शिक्षाओं को मानता है, गुरुवाणी को मानता है, गुरु ग्रंथ साहिब को मानता है। गुरुवाणी आज से कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले नहीं लिखी गयी है। गुरु गोबिन्द सिंघ ने १७०८ ई॰ में गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु घोषित कर दिया था, हालाँकि सिद्धांतक रूप से गुरुवाणी को हमेशा से ही गुरु का दर्जा दिया जाता रहा है। गुरु ग्रंथ साहिब की शिक्षाओं को मानने वाला ही सिख है।

हिन्दू वह है, जो हज़ारों साल पहले लिखे गये संस्कृत के ग्रन्थों की शिक्षाओं को मानता है। इन ग्रन्थों में वेद, उपनिषद और पुराण शामिल हैं। ६ शास्त्र, महाभारत, और रामायण भी इन धार्मिक ग्रन्थों में शामिल हैं। ये सभी ग्रंथ कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले नहीं लिखे गये। ये ग्रंथ हज़ारों साल पहले लिखे गये थे। जो इन ग्रन्थों को मानता है, वह हिन्दू है। जो इन ग्रन्थों की शिक्षाओं पर अमल करता है, वह हिन्दू है।

कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले लिखी किसी किताब पर सिख धर्म की बुनियाद नहीं रखी गयी। कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले लिखी किसी किताब पर हिन्दू धर्म की बुनियाद नहीं रखी गयी। कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले लिखी गयी कोई भी किताब सिखों और हिंदुओं के मूल धर्म ग्रन्थों की जगह नहीं ले सकती। कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले हुया व्यक्ति सिखों के गुरु के बराबर की पदवी नहीं ले सकता। कोई ५ साल, १० साल, १०० साल, या २०० साल पहले हुया व्यक्ति वेदिक ऋषि या अवतार की पदवी के बराबर नहीं हो सकता।

सिख के धार्मिक यक़ीन की बुनियाद गुरु ग्रंथ साहिब है, गुरुवाणी है। हिन्दू की धार्मिक आस्था का आधार वेद, उपनिषद, पुराण, और शास्त्र आदि हैं।

जो ख़ुद को सिख तो कहे, मगर गुरुवाणी के अनुसार न चले, वह नकली सिख है, पाखंडी सिख है। जो गुरुवाणी के खिलाफ किसी इंसान या किसी किताब की माने, और ख़ुद को सिख भी कहे, तो वह नकली सिख है, पाखंडी सिख है।

जो ख़ुद को हिन्दू तो कहे, परन्तु वेद, उपनिषद, और शास्त्रों आदि के अनुसार न चले, तो वह नकली हिन्दू है, पाखंडी हिन्दू है। शास्त्र-विरुद्ध किसी व्यक्ति या पुस्तक को मानने वाला नकली हिन्दू है, पाखंडी हिन्दू है।

ये वे पाखंडी लोग हैं, जिन्होने मूल धर्म-ग्रन्थ कभी पढ़े ही नहीं। मूल धर्म-ग्रन्थों को पढ़े बिना ही ये धर्म के ठेकेदार बन बैठे हैं। मूल धर्म-ग्रन्थों को गहराई से जाने बिना ही ये ख़ुद को धर्म रक्षक घोषित कर बैठे हैं। जब इन्होने ख़ुद ही मूल धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया, तो उस धर्म का, उस मज़हब का प्रचार कैसे कर सकते हैं? उस धर्म या मजहब की बात भी कैसे कर सकते हैं?

ये जो पाखंडी सिख और पाखंडी हिन्दू हैं, इन में कभी एकता नहीं हो सकती। ये धर्म के रास्ते से भटके हुये हैं। ये समाज में तब तक नफ़रत फैलाते ही रहेंगे, जब तक इन का कोई स्थायी हल नहीं किया जाता।

किसी भी प्रकार के धार्मिक मतभेद कभी भी सच्चे धार्मिक लोगों के लिये नफ़रत का कारण नहीं बन सकते। मूल धर्म ग्रन्थों की शिक्षाओं पर चलने वाले सच्चे सिखों और सच्चे हिंदुओं में कभी आपसी नफ़रत और दुश्मनी नहीं हो सकती। सच्चे हिन्दू और सिख हमेशा ही आपसी प्रेम, सद्भाव, और एकता के हिमायती रहे हैं। इन में हमेशा ही एकता रही है। इन में हमेशा ही एकता रहेगी।

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ख़ुशी और ग़म मेँ झूलता मन

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

मन का काम है मनन करना, विचार करना। इच्छा या कामना भी मन मेँ ही पैदा होती है।

कामना पूरी होने का यक़ीन होना ही आशा या उम्मीद है। कामना पूरी न होने का ख़दशा होना बेउम्मीदी या आशाहीन होना है। आशा मन मेँ ख़ुशी की लहर पैदा करती है। बेउम्मीदी मन मेँ ग़म पैदा होने की वजह बन जाती है।

इच्छा पूरी हो जाए, जो जीव की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं होता। वह ऐसे महसूस करता है, जैसे आसमान मेँ ऊंची उड़ान भर रहा हो।

इच्छा पूरी न हो, तो जीव उदास हो जाता है। वह ऐसे महसूस करता है, जैसे किसी गहरी खाई मेँ गिर पड़ा हो।

ख़ुशी मिल जाना, या ख़ुशी की महज़ उम्मीद ही बंध जानी बहुत होती है मन को ऊंचे आसमान मेँ उड़ान भरने के लिए। ग़म मिल जाना, या ग़म की सिर्फ़ आशंका ही हो जानी बहुत होती है मन को किसी अँधेरी गहरी खाई मेँ फेंकने के लिए।

एक आम इन्सान कभी अपनी सीमित-सी दुनिया के आसमान मेँ खुशियों मेँ ऊंची उड़ानें भरने के भर्म मेँ पड़ा रहता है और कभी अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी की किसी गहरी खाई मेँ गिरा हुआ वह ग़म के प्याले पी रहा होता है। कभी सुख, कभी दुख। कभी ख़ुशी का मौसम, कभी ग़मगीन माहौल।

ऊंची उड़ान और गहरी खाई के बीच झूलता रहता है एक साधारण व्यक्ति। कभी मन ख़ुशी के आकाश मेँ ऊंचा जा पहुंचता है और कभी ग़म की गहरी खाई मेँ पड़ा हुआ मातम मनाने लगता है।

कबहू जीअड़ा ऊभि चड़तु है
कबहू जाइ पइआले ॥
(८७७, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी)।

भक्ति के बिना बचपन, यौवन और बुढ़ापा निरार्थक है

(अमृत पाल सिंघ ‘अमृत’)

बचपन, जवानी और बुढ़ापा, ये तीन अलग अलग मुकाम इंसान की ज़िंदगी में आते हैं। बचपन खेल-कूद में ही कब बीत गया, इस का इंसान को पता ही नही चलता। जवानी में इंसान अपने काम धन्धों और दिल की ख्वाहिशें पूरी करने में ही लगा देता है। इस को होश तब आता है, जब बूढ़ी उम्र वह कोई काम करने लायक ही नहीं रहता।

बचपन बीत गया खेल-कूद में। जवानी बीत गयी काम-धन्धे में। अब बुढ़ापे में बीमारियों ने घेर लिया है। न बचपन में और न जवानी में अपने मालिक ख़ुदा को याद किया। भगवान की तो याद आई ही नही।

गुरु तेग़ बहादुर साहिब फ़ुरमाते हैं कि ख़ुदा के ज़िक्र के बिना, भगवान की याद के बिना बचपन, जवानी और बुढ़ापा निरार्थक ही चला गया।

बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि ॥
कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु ॥३५॥
(१४२८, श्री गुरु ग्रन्थ साहिब)।